तब मैं कविता क्यों लिखूं ?
तब मैं कविता क्यों लिखूं ?
काश !
लिख पाता मैं भी कोई कविता।
कह लेता इक कागज़ से कुछ भाव भरे शब्द,
उड़ेल देता कम से कम आँसू की एक बूंद तो।
गीले कागज़ को चार तहों में कर
रख लेता अपनी शर्ट की जेब में।
लेकिन,
कौन लिख पाया है कविता आज तक ?
जो बुद्ध बना वो कवि नहीं
और कवि ! कभी बुद्ध नहीं बन पाया।
कटे सिर वाले सिपाही
जली हुई दुल्हनें
कुंठित लड़ते हुए लोग
या अकेली माँ
ऐसा ही कुछ कह पाता है कोई कवि !
ओ भावुक कवि !
जो तुमने लिखा उसे खुदने भी पढ़ा कभी ?
हाँ ! सुनाया ज़रूर होगा।
सोचो श्रोता !
क्या तुमने सुना कभी बुद्धत्व को कविता में ?
जो कविता में हो बुद्धत्व,
तब मैं कविता क्यों लिखूं ?
तुम भी क्यों सुनो ?