ग़ज़ल
ग़ज़ल
जो मेरा है तो मैं इंकार किस लिए करता ?
अगर नहीं है तो अधिकार किस लिए करता ?
चला यूँ आया हूँ महफ़िल से तेरी रुसवा मैं।
वजूद अपना वहाँ ख़्वार किसलिए करता ?
लगा ग्रहण जो तेरे मेरे इश्क़ में दिलबर।
ग्रहण लगा है तो स्वीकार किस लिए करता ?
सितमगरों के सितम दर्द देते है मुझको।
वो अपने निकले मैं फिर वार किस लिए करता ?
फ़लक है छत मेरी, धरती बिछौना है मेरा।
न कोई संगी है आगार किस लिए करता ?
शुमार है ये नमस्कार मेरी आदत में।
मिला न कोई नमस्कार किस लिए करता ?
वो चाहते है कि खामोशियां मैं ओढ़े रहूँ।
खिलाफ उनके मैं गिफ़्तार किस लिए करता ?
मेरे ग़मों से खुशी मिल रही जहां को "कमल"
खुशी का फिर भला इज़हार किस लिए करता ?