स्त्री
स्त्री
स्त्री ने जब व्यक्त किया
संसाररूपी विचार की विडंबना
अर्थ छुपा हैं उसके हर पहलू मैं
मन खोया तन खोया धन खोया
फिर भी पैरो मैं बाखडे बेड़ियां
जिन्होंने तय की कुछ दूरियां
जिन्होंने हासिल की सफलता
क्या उन्हें औचित्य सम्मान मिला ?
क्या उन्हें स्वतन्त्रता का प्रेम मिला ?
स्त्री तो स्त्री ही रही हर अवतार मैं
वो माँ बनी वो पत्नी बनी
वो बेटी बनी वो बहन बनी
ना जाने कितने रूप उसके
किस रूप मैं उसे स्वम्
के लिए अधिकार मिला ?
अधिकार छोड़ो क्या खुद
के लिए तनिक समय मिला ?
छेड़े जब भी उसने आवाज़ के तार
पैदा हुई कई आपत्तियां
जूझती रही समाज की विकृति से
प्रथम आपत्ति दहलीज़
द्वितिय आपत्ति मर्यादा
तृतीय आपत्ति बेघर
और विभिन्न रूपों मैं खड़ी थी रुकावटे
दफनाई गयी कई खोख मैं मासूमियत
शोषण हुआ मानसिकता का
दहसत भरी शेष बुलंदियों के भीतर
आखिर कब छूटेगी ये बेड़िया ?
आखिर कब उसे राहत मिली ?
इन विकृतियों के फलस्वरूप
आखिर एक वक़्त आना नियत था
अब वो समय था
जब उसे खुद के लिए जागना था
अब वो समय था
जब उसे इस मानसिकता की
बेड़ियों से उठना था।