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sonali karhana

Abstract

3.3  

sonali karhana

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मैं तुम्हें नहीं लिखना चाहती

मैं तुम्हें नहीं लिखना चाहती

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मैं तुम्हें नहीं लिखना चाहती

आज फिर एक माँ ने अपने बेटे को सरहद पर खोया हैं,

मैं उनकी सिसकियों को लिखना चाहती हूँ।


आज फिर एक बेटी ने अपने नन्हे हाथों से

तिरंगे में लिपटे हुए अपने पिता को पहचाना है,

मैं उन नन्ही आँखों को लिखना चाहती हूँ जो आगे ज़िंदगी में

उस तिरंगे को लहराता हुआ देखकर,

हमेशा एक जान की क़ीमत का हिसाब लगाएँगी।


मैं उस पिता की खामोशी को लिखना चाहती हूँ,

जो हिम्मत छुपाए बैठीं है।

मैं उन दोस्तों की आँखो को लिखना चाहती हूँ,

जिनसे आँसो अब छिप छिपकर नहीं निकलते।


मैं उस शहर को लिखना चाहती हूँ,

जो खून से सना अब अपनी

ख़ूबसूरती पर नाज़ नहीं कर पा रहा है। 

मैं उस जान को लिखना चाहती हूँ,

जो उस मिट्टी में सनि क्रांति पर एक बार फिर जन्मेगी।


मैं उन हथियार को लिखना चाहती हूँ,

जो शायद अब थक चुके हैं।

तुम और तुम्हारा धर्म ही तो था जनाब,

मैं उन्हें नहीं लिखना चाहती,

मैं तुम्हें नहीं लिखना चाहती।


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