गज़ल
गज़ल
दिल में खयालों का सैलाब उमड़ आया क्यूँ है,
मोहब्बत में डूबकर ये खेल ही रचाया क्यूँ है।
मालूम कहाँ था दर्द की गर्दीश है नाम इश्क का,
सपनो का सुंदर जहाँ तसव्वुर में बसाया क्यूँ है।
ना तू हमसफ़र ना जान ए मेहबूब मेरा आखिर,
मैं दीवाना पागल तुमसे दिल लगाया क्यूँ है।
अंजाम ए मोहब्बत पर मेरे हंसता है जहाँ सारा,
संगदिल तूने इश्क का इशारा दिखाया क्यूँ है।
निगाहों से अश्कों के आबशार सूखते ही नहीं,
जो पूरा ना हो ख़्वाब आँखों ने सजाया क्यूँ है।
खता उसकी नहीं दिल हमारा ही तलबगार रहा,
बनाकर खुदा इबादत में उसे बिठाया क्यूँ है।
देखना उसका कनखियों से हमें तौबा वल्लाह,
न थी हमसे मोहब्बत खाँमखाँ सताया क्यूँ है।
कह दो जाकर खुदा से कोई इश्क जानलेवा है,
मिट्टी के शरीर में शीशे का दिल बनाया क्यूँ है।
इश्क की आग है बड़ी ज़ालिम कौन बच पाया है,
दिल के भोलेपन ने भावना को झुकाया क्यूँ है॥