ज़िंदगी की ताने
ज़िंदगी की ताने
क्यूँ ज़िंदगी की कुछ तानें क्षुब्ध कर देती है हमें,
ज़रूरी तो नहीं की उसका हर फैसला हमें मंज़ूर हो!
उसकी ताल पे नाचते पैर जो पकड़ ले दिल की मधुर तान
तो क्या हुआ की उम्र के कुछ लम्हें खुदपरस्ति में कटे!
क्यूँ खिंच लेती है ज़िंदगी अपनी बंदिशों के दायरे में हमें ?
वक्त के हाथों की कठपुतली है इंसान की शख़्सीयत,
कहाँ अपनी खुशी से ज़िंदगी की ज़मीन पर बो सकते है अपने सपनों के बीज..!
वो आसमान भी तो नसीब होना चाहिए जो बरसा दे नेमतों की नमी,
बूँदें दर्द के घने बरगद के उपर बरसे भी तो क्या हर शाख तो हरी नहीं होती
रह जाते है कुछ समिध अधजले ना जलते है ना बुझते है..!
बस चुनने है हमारे हिस्से के समिध हमें, ज़िंदगी के यज्ञ की धूनी जल रही है अर्घ्य को तरसती,
होम में तो होंगे आख़री आँच तक सपनों को पकाने की कोशिश में जूझते।।