मैं अपनी माँ जैसी नहीं हूँ
मैं अपनी माँ जैसी नहीं हूँ
तुम बिल्कुल अपनी माँ जैसी हो;
ऐसा अक्सर सुनती हूँ ;
गर्व नहीं पीड़ा से सिहर उठती हूँ।
माँ की खाने में कोई पसंद नहीं
उन्हें अपने खाने पीने की कोई सुध नहीं
सबसे आखिर में वही शौक से खाती
जो घर में कोई और खाता नहीं।
क़तर ब्योंत कर कुछ पैसे बचते
होली दीवाली सबके कपड़े बनते
अपनी शादी की साड़ी पहने
'एकदम नयी जैसी है ' माँ के शब्द होते।
छोटों के नाज़ नखरे उठाती
बड़ों के तानों पर भी मुस्कुराती
अपने सपनों को हम बच्चों की आँखों में ढूंढती
सबकी ख़ुशी में ही मेरी ख़ुशी माँ यही कहती।
माँ की पीड़ा को समझती
अपने खुद के सपनों को पंख देती
अपनी दिल की आवाज़ को अनसुना नहीं करती
मैं अपनी माँ जैसी नहीं हूँ।