Become a PUBLISHED AUTHOR at just 1999/- INR!! Limited Period Offer
Become a PUBLISHED AUTHOR at just 1999/- INR!! Limited Period Offer

Vikash Kumar

Tragedy

3  

Vikash Kumar

Tragedy

कविता

कविता

1 min
388


जिंदगी है पर मौत का तमाशा देख रहा हूँ,

मैं घर जलाने का उनका पेशा देख रहा हूँ।


भूख की बात भूख से पहले खत्म कर दी,

रोटी की जगह मजहबी नशा देख रहा हूँ।


इस गुलिस्ताँ में खिलते थे फूल कई हजार,

अब अंगार ही अंगार हर दिशा देख रहा हूँ।


घर जलाने का हुनर सीखाते हैं कुछ लोग,

दीये की रोशनी है पर निराशा देख रहा हूँ।


'कुमार' को भाती नहीं रकीब की कोई बात,

विपक्ष की दुर्दशा और उनकी मंशा देख रहा हूँ।


Rate this content
Log in

Similar hindi poem from Tragedy