कविता
कविता
जिंदगी है पर मौत का तमाशा देख रहा हूँ,
मैं घर जलाने का उनका पेशा देख रहा हूँ।
भूख की बात भूख से पहले खत्म कर दी,
रोटी की जगह मजहबी नशा देख रहा हूँ।
इस गुलिस्ताँ में खिलते थे फूल कई हजार,
अब अंगार ही अंगार हर दिशा देख रहा हूँ।
घर जलाने का हुनर सीखाते हैं कुछ लोग,
दीये की रोशनी है पर निराशा देख रहा हूँ।
'कुमार' को भाती नहीं रकीब की कोई बात,
विपक्ष की दुर्दशा और उनकी मंशा देख रहा हूँ।