देखा है कभी?
देखा है कभी?
पारिजात की भोर देखी है
तुमने?
या देखा है कोई प्यास
का दरिया
चुनरी कोई तारों सजी या!
लबों पर ठहरी पंखुड़ियाँ
विष की झील या
झरना शराब का!
रात की तिश्नगी पर
चाँदनी का झूमना
या सपनों का खजाना
नींद की मस्ती या
तितलियों का तराना!
अतिथियों की आहट पर
दहलीज़ का गुनगुनाना
कोरे उर की झंखना या
प्रीत से लबरेज़ कोई गाना!
एक तान बजती है ज़िंदगी
की सतह पर
झूमती, नाचती मदहोशी के
आलम में,
स्वर्ण कलश से निकलती
रश्मियों का सागर जब
बहता है भोर के आगाज़ पर!
तब
किसी नवयौवना की
अधखुली, अनछुई
पलकों पर
विराजमान होती है ये
सारी रंगीनियाँ!
देखना कभी बिखरी लटों
वाली सुरभि को अंगड़ाई
लेते हुए सुबह रौशन हो
उठती है झिलमिलाती
संदली सुगंधित सी!
भरते ही वो नज़ारा नैनों की
कटोरीयों में
एक आह न निकल जाएँ तो
कहना साहब।।