ले चल मुझे
ले चल मुझे
बहुत थक चूंकि
इस आबो हवा में
अब ले चल मुझे मेरे गाँव
जहाँ बारिश की पहली बूँद से
मिट्टी की सौंधी खुश्बू आती है।
हरियाली चारों तरफ
धानी चुनर लहराती है
पीपल और बरगद
की घनी छाँव है।
चिड़ियों का गुँजन
कौवे की कांव कांव है।
चौपाल है, गौशाला है
छोटे बच्चों की पाठशाला है।
बढ़ो का पैर छूने के संस्कार
और बुजुर्गों का आशीर्वाद है।
अपनी परम्परा है, संस्कृति है
हर त्योहारों की अपनी रीति है।
अनेकता में भी एकता है
नदिया बलखाती है
जिन पर पेड़ो की डाली
आज भी लहराती है।
बहुत थक चूंकि
अब ले चल मुझे मेरे गाँव
मिट्टी में मिल जाने के पहले
अपनी माटी से मिल जाना है।
यहाँ आडम्बर और दिखावा है
वहाँ हर एक से अपनेपन का नाता है।
कोई काका, कोई बाबा
हर कोई...
अब भी मुझे मेरे बचपन के
नाम से पुकारता है।
मेरी कितनी यादें है
सब को फिर से
जीना चाहती हूँ
अपने गाँव अब लौटना चाहती हूँ ।