मैं नदी हूँ
मैं नदी हूँ
तुम जैसी ही तो हूँ
निरंतर ही चलती जाती हूँ।
चट्टानों का सीना फाड़
जन्मी हूँ, अमृत धार बनकर ।
जिस जगह से भी गुजरती हूँ
सबकी प्यास बुझाती हूँ।
ना भेद किया है ,कभी किसी में
जो दर पर मेरे आता है।
सींचती हूँ मैं जीवन को
सबको निर्मल करती हूँ।
सबके राज़ खुद में दफ़न कर
मुख से कुछ ना कहती हूँ।
पर मेरे इस त्याग को
कोई भी समझ ना पाता है।
कभी पूजी गई हूँ देवी जैसे
कभी विध्वंसक कह मुझको बाँधा है।
जाने क्यों सब समझ नही पाते
उनकी करनी का ही ये प्रतिफल है ।
दायरे में ही तो थी,मैं अपने
तुम सब ने विकराल बनाया है।
मैला किया है उजले आँचल को
अपने स्वार्थ की काली कालिख से
लूटा है फिर सबने मिलकर
ना समझ ही पाए, बलिदान को ।
आख़िर कब तक मैं भी
तुम सब का बोझ उठा पाऊँगी।
अपने अस्तित्व को मिटा कर एक दिन
मैं सागर में मिल जाऊँगी
मैं सागर में मिल जाऊँगी।