Sarita Kumar

Tragedy

3.9  

Sarita Kumar

Tragedy

वर्क फ्रॉम होम

वर्क फ्रॉम होम

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पहली बार जब सुना था "वर्क फ्रॉम होम " तो अच्छा लगा था । बहुत राहत महसूस हुई थी कि इस विपदा में नौकरी सुरक्षित है जबकि बहुत से संस्थानों में तो नौकरी से छुट्टी मिल गई थी । लगभग 20% लोग घर में क़ैद होकर सड़क पर आ गए , खाने के लाले पड़ गए थे । बहुत कठिन दौर था और सिर्फ हमारे देश ही नहीं पूरा संसार आर्थिक संकट को झेल रहा था । इस भयानक आपदा में जिनकी नौकरी सुरक्षित बची हुई है वो आठों पहर ईश्वर को आभार प्रकट करते होंगे । मैं भी ईश्वर को सुबह-शाम धन्यवाद बोलती हूं । मेरे दो बच्चों को वर्क फ्रॉम होम का आदेश मिला । कुछ दिन तो अपने अपने शहर में रह कर करते रहें अपनी-अपनी ड्यूटी फिर एक दिन ख्याल आया कि क्यों न बच्चों को घर बुला लिया जाए । संकट की इस घड़ी में नज़र के सामने बच्चें रहेंगे तो सुबह बेहद खुबसूरत हो जाएगी और दिन सुनहरे .... रात को भी सुकून भरी बेहद मीठी नींद आएगी .....। इन्हीं ख्यालों को मूर्तरूप दिया गया और हैदराबाद एवं बैंगलोर से बच्चों को बुलाया गया । घर को व्यवस्थित ढंग से सजाया गया । हाई-स्पीड वाई फाई का कनेक्शन लिया गया । दोनों बच्चों के लिए अलग-अलग एक एक कमरे को आफिस का लुक दिया गया । खाने-पीने का भी बच्चों के पसंद के हिसाब से सभी इंतजाम किए गए । उनके आने पर रंगोली बनाई गई और बड़े गर्मजोशी से स्वागत की गई । ऐसा लग रहा था कि कोई जंग जीतकर आएं हैं हमारे बच्चें । सप्ताह भर के आराम के बाद बच्चों ने शुरू कर लिया अपना-अपना आफिस । बेटा का समय सुबह 7 बजे से था और बेटी का 11 बजे से । बेटा को जगाने के लिए बेड टी का इंतजाम था और उसके तुरंत बाद नाश्ते का भी फिर ठीक 7 बजे आफिस शुरू हो जाता था । बेटी उठकर सबसे पहले मां के लिए चाय बनाती फिर नाश्ता उसके बाद दैनिक दिनचर्या से निवृत्त होकर लैपटॉप खोलती और काम शुरू करती उसके बाद ही मुंह में कुछ डाल पाती । कभी लैपटॉप कभी मोबाइल पर कॉल , कभी आफिस स्टाफ का कभी किसी टीचर का और कभी किसी बच्चे के पैरेंट्स का । इस तरह चार जगहों पर दिमाग बंट जाता और नाश्ता ठंडा हो जाता । कभी कोई पड़ोसी , कभी रिश्तेदार , कभी बिजली बिल , कभी कोई कूरियर वाला घड़ी घड़ी बेल दबाता सुनाई तो सबको देता मगर हर बार अपना आफिस का काम करते-करते या रोक कर इशू ही जाती । पता नहीं क्यों वो अभी तक घर की सारी जिम्मेदारी अपने सर पर लिए फिरती है । यह बिल्कुल सच है कि बरसों से वही करती आई है यह सब काम । घर की सबसे छोटी सदस्य होने के नाते सब लोग बड़ी आसानी से उस पर थोप देते थे । बचपन में तो कभी कभी बहुत चिढ़ जाती थी गुस्सा होती थी भाई बहनों से लड़ाई भी करती थी और पापा से शिकायत भी कि सब कुछ मैं ही क्यों करूं ? लेकिन बड़ी होने के बाद कुछ ज्यादा ही समझदार हो गई है । घर का काम , बाजार का काम , आफिस का अपना काम और उसके ऊपर से कलीग्स के रिक्वेस्ट पर उनका काम भी कर देती । दो चार मीठे बोल बोल कर सब लोग अपने-अपने तरीके से अपना काम करवाते रहें । मैं भी उन्हीं लोगों में शामिल हो गई थी अक्सर चाय की फरमाइश कर देती और मेरी भोली भाली बेटी मना नहीं कर पाती । क्षमता से अधिक काम करने की वजह से उसकी सेहत पर असर होने लगा नींद पूरी नहीं हो पाती थी । एक तो खेलने कूदने और कॉलेज में मटरगस्ती करने के उम्र में उसे जॉब मिल गई थी , 18 साल 6 महीने के उम्र में वो ज़िद करके इंटरव्यू देने चली गई वहां जहां अनुभवी और ट्रेंड बच्चें आए थे । हम सभी ने रोकने के लिए यहां तक बोला था कि कैब के हजार रुपए भी बर्बाद जाएंगे और व्रत में जा रही हो तो चक्कर खाकर गिर गई तो हॉस्पिटल का भी कुछ खर्चा होगा । मगर वो नहीं मानी नवरात्रि के व्रत में थी वैसे ही चली गई । दिन अच्छे थे शायद सौ डेढ़ सौ लड़कियों में से वो अकेली पहली राउंड में ही सिलेक्ट हो गई थी । ट्रेनिंग में भी अच्छा प्रदर्शन किया था तो "सी आर " बना दी गई थी । इन सभी बातों ने उसे उसके उम्र से और अधिक बड़ा , जिम्मेदार और समझदार बना दिया था । चुपचाप लेट कर मैं यही सब सोचती रही और घर की पूरी गतिविधियों पर गौर किया उसके बाद मैं तड़प गई । "वर्क फ्रॉम होम " से कितनी अधिक परेशानी होती है महिलाओं को .... । तीगुना काम करने के बाद भी नहीं मिलता है दो पल उसके हिस्से का वक्त । अचानक से मेरा रक्तचाप बढ़ गया , दिल की धड़कनें तेज हो गई माथे पर पसीना झिलमिलाने लगा और सर में बहुत गर्मी लगने लगी । यह सब मेरा वहम नहीं था क्योंकि मेरे कलाई में बंधा फिटनेस बैंड पर भी डिस्प्ले हो रहा था । वास्तव में मैं बहुत चिंतित , क्रोधित और उत्तेजित हो गई थी इस नाइंसाफी से । चुकी गुनाहगार मैं भी थी इसलिए कुछ ज्यादा तड़प गई क्योंकि बेईमानी मैं भी कर रही थी । बेटा का जब आफिस टाइम रहता था तब हम भजन और हनुमान चालीसा भी नहीं सुनते थे । कोई शोर नहीं यहां तक की अपने मोबाइल का नोटिफिकेशन भी बंद कर दिया था । बेटे से कोई काम करवाना तो दूर उसके बेड पर ही खाना ,पानी , फल , जूस , सूप सब पहुंचाती थी । डायनिंग टेबल पर आकर खाना खाने की कोई जरूरत नहीं थी । और इशू पर सारे नियम कायदे कानून यथावत लागू थे । आफिस टाइम और मीटिंग के दौरान भी डिस्टर्ब करने में संकोच नहीं होता किसी को । शायद घर वालों ने उसे अभी तक वही छोटी सी नटखट शैतान बच्ची समझते हैं जिसके पास कोई जिम्मेदारी नहीं है सिवाय मस्तीखोरी के ... । किसी ने गंभीरता से नहीं लिया उसकी नौकरी को जबकि उसकी मोटी तनख्वाह आने पर खूब पार्टी शाटी होती थी । उसके द्वारा दिए गए बेशकीमती उपहार सभी ने सहर्ष स्वीकारा बस उपहार लेते समय ही हमने उसे कमासूत समझा , नौकरीपेशा माना बाकी लैपटॉप और मोबाइल लेकर बैठी हुई ऐसी लगती जैसे "कॉल आफ ड्यूटी" , "ऐज आफ इंपायर" और "पब जी" खेल रही हो ... । 

आज अचानक मेरे भीतर की वो औरत जिंदा हो गई जिसने लिंगभेद के खिलाफ आवाज उठाई थी और बेटे बेटी में फर्क को खत्म करने के लिए साकारात्मक कदम उठाए थे । महिला को उनके अपने हक के लिए जागरूक किया था । कितनी शर्म की बात है कि दूसरों को न्याय दिलाने वाली समाज सेविका अपनी ही बेटी के साथ अन्याय होते हुए देख रही है और खुद भी अन्याय करके गुनाहगार बन गई है । 

अब मैं सोते से जग गई हूं । नहीं होने दूंगी कोई भेद "वर्क फ्राम होम " का एक ही मतलब होना चाहिए बेटा के लिए भी और बेटी के लिए भी । डिनर के समय मैंने ऐलान कर दिया कि "इशू के आफिस टाईम में कोई डिस्टर्ब नहीं करेगा बिल्कुल वैसे ही जैसे अंकू के आफिस टाइम में हम सभी उसका ध्यान रखते हैं । "


21 जुलाई , इशू का आफिस खुल गया । वर्तमान समय को देखते हुए ढेरों हिदायतें देकर भेजा है डबल मास्क , सेनिटाइजर , ग्लब्स के अलावा एक निश्चित दूरी बनाए रखने को कहा है । मन में कोई विशेष चिंता नहीं है बल्कि थोड़ी राहत और खुशी भी कि लगभग डेढ़ साल से घर में क़ैद रहने के बाद मिला है खुला आकाश स्वच्छ हवाएं , पेड़, पौधे और पक्षियों को देख सकेगी उन्मुक्त गगन में उड़ान भरते हुए । आफिस में बैठकर सिर्फ आफिस का ही काम करेगी । जब आफिस से आएगी तो सुकून के दो चार मिलेंगे उसे भी रिफ्रेश होने के लिए । 

सभी से मेरी गुजारिश है कि "वर्क फ्राम होम " में काम करने वाली लड़कियों और महिलाओं को उतनी ही अहमियत दी जाए जितना की लड़कों और पुरूषों को दी जाती है । वक्त काफी बदल चुका है आज की बेटियां किसी भी क्षेत्र में पीछे नहीं हैं । देश के हर उन ओहदों पर विराजमान हैं जिस पर पुरूषों का एकछत्र राज हुआ करता था । सीमाओं पर तैनाती से लेकर लड़ाकू विमानों को भी सफलता से उड़ा रही हैं ‌। परिवार की जिम्मेदारी भी बेटों की तरह सहर्ष उठा लेती हैं । एक बार मेरी तबियत बहुत खराब हो गई थी दिल्ली के डॉक्टरों ने जवाब दे दिया । किसी ने वेलोर के "सी एम सी" हाॅस्पिटल में जाने की सलाह दी तब दो घंटे के भीतर मेरे दामाद जी ने रजिस्ट्रेशन करवाया और पटना से दिल्ली और दिल्ली से चेन्नई की टिकट ली और चेन्नई से वेलोर के लिए टैक्सी और होटल की बुकिंग की । उस वक्त कुपवाड़ा में हमला हुआ था इसलिए मेरे पति आ नहीं सकते थे बेटा का इंटर्नशिप चल रहा था तो उसके करियर का सवाल था । मेरी बेटी मुझे लेकर अजनबी शहर के लिए चल पड़ी बेख़ौफ़ । दूसरी बेटी ने तो मुझे मेरी मां बनकर पाला था पूरे साढ़े तीन साल । उसने इतनी सेवा और देखभाल की कि मैं ना सिर्फ उठ खड़ी हुई बल्कि चलने फिरने लगी यहां तक की बैडमिंटन खेलना शुरू कर दिया । जब भी इशू ड्यूटी से फ्री होती मेरे साथ बैडमिंटन खेलती थी । हर तरीके से उसने मुझे संभाला शारिरिक और मानसिक रूप से भी और अब बिना जरूरत के आर्थिक रूप से भी संभाल रही है । तनख्वाह मिलते ही मेरे अकाउंट में पैसे डाल देती है और हर बार मैं डांटती हूं क्योंकि पैसों की बिल्कुल भी जरूरत नहीं है भारत सरकार हमें पेंशन दे रही है । मगर वो नहीं मानती है ‌। अगले महीने मेरा जन्मदिन आने वाला है और उसने अभी ही मेरे लिए डायमंड रिंग भेजा है ।


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