Sheikh Shahzad Usmani शेख़ शहज़ाद उस्मानी

Romance Tragedy

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Sheikh Shahzad Usmani शेख़ शहज़ाद उस्मानी

Romance Tragedy

वक़्त-बेवक़्त कल और आज (लघुकथा)

वक़्त-बेवक़्त कल और आज (लघुकथा)

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"मैं... मैं हूँ और... तुम... तुम!

मैं और मेरी तन्हाई

अक्सर ये बातें करते हैं

ये कहाँ

आ गये हम

यूँ ही साथ-साथ चलते

तेरी बांहों में हैं जानम

मेरे जज़्बात यूं सिसकते!"


यह गुनगुनाता वक़्त के साथ मैं मुल्क के इतिहास, समाज, राज-सिंहासन और आज से रूबरू होता... छोटी-बड़ी बस्तियों से पॉश कॉलोनियों तक के हर वर्ग के हर उम्र के इंसान, शैतान और हैवान से ... नेता-अभिनेता, नीति संविधान से... धर्म, राजनीति और विज्ञान से दो-चार होता हुआ, सबकी ज़िन्दगी में कभी न कभी अहम जगह बनाता हुआ, नई सदी में अपना साम्राज्य क़ायम करता हुआ आज मैं इस लेखक के काफ़ी नज़दीक़ आ पहुंचा एकदम एकांत में! यह सबका होते हुए भी अब कोई भी इसका न था! लेखनी इसकी थी, रात्रि भी! तथाकथित दोस्तों, परिचितों और रिश्तेदारों के इसके साथ भी प्रायः स्वार्थी औपचारिक से रिश्ते थे। इसी कारण इसे भी मुझसे बेपनाह मुहब्बत हो गई। इस लेखक की लेखनी भी पाठकों के लिए बढ़िया सृजन कर रही थी, लेकिन यह बेबस भी मेरी बांहों में था!


हर वक़्त-बेवक़्त मेरा यहाँ-वहाँ, येन-केन-प्रकारेण वजूद रहा है, मेरा साम्राज्य रहा है! लेकिन मुझ में भी एक प्यास है, तड़प है, आग है, ख़्वाब है क्योंकि मैंने मुझमें फँसे और जीते लोगों की प्यास, तड़प, और आग को बेहद नज़दीक़ से महसूस किया है, उनके ख़्वाबों को प्रकारांतर से शाब्दिक या अभिव्यक्त होते देखा है, पढ़ा है या सुना है!


वक़्त मुझे समझता रहा है, समझ रहा है!


यहाँ आज उसने मुझसे कहा:


"तुम और तुम्हारी तन्हाई

मुझसे अक्सर ये बातें करते हैं

तुम न होते तो कैसा होता

लोग ये कहते, लोग वो कहते

मैं उनकी बात पे हैराँ होता

मैं उनकी बातों पे ख़ुश होता,

हँसता या रो-रोकर कहता 

तुम होते, तो ऐसा होता,

तुम होते, तो वैसा होता

मैं और मेरा चक्र

अक्सर ये बातें करते हैं!"


मैंने वक़्त से कहा, "लोग मुझे 'अकेलापन' या 'तन्हाई' कहते हैं, सृजक या शैतान या विध्वंसक कहते हैं! ऐ वक़्त तुम्हारे लिए भी तो ऐसा ही कहा जाता रहा है न!"


उसने प्रत्युत्तर में मुझसे इतना ही कहा, "ऐ तन्हाई! मैं रहूँ या तुम.. इंसान पर निर्भर है... हमारे साथ वह कुछ अच्छा कर ले या बहुत अच्छा, अथवा कोई बुरा कर ले या बहुत बुरा! ...


हमारी राहें खुली हुई हैं

है चाँदनी लोगों की नज़रों से, कर्मों से

हमारी रातें धुली हुई हैं

ये जग है

या लोगों का विचार-मंथन

तज़र्बे हैं या लोगों के आँचल

हवाओं के झोंके हैं या आँधियाँ... !" आदि पता नहीं क्या-क्या वक़्त मुझसे कहता गया, किंतु मैं उस लेखक की लेखनी के इर्द-गिर्द मौजूद रहा। आज अभी मैं यहाँ एक सृजक ही तो था। वक़्त-वक़्त की बात है!


[कुछ पंक्तियाँ हमारे मशहूर मनपसंद महानायक पर फ़िल्माये मशहूर गीत की तुकबंदी पर आधारित]



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