वो रसीदें
वो रसीदें
आज मेरे जन्मदिन के दिन शून्यता के इस अहसास को अभिव्यक्ति देना बहुत कठिन, असंभव सा लग रहा है. यूँ तो आज भी सबकुछ हर साल जैसा ही है, बेटियों द्वारा रात के बारह बजे काटने के लिए फ्रिज में छिपा के रखा गया केक, पापा और बेटियों द्वारा दिया गया उपहार, रिश्तेदारों, दोस्तों और सहकर्मियों की शुभएच्छायें और उपहार, यहाँ तक कि जन्मदिन जानते हुए भी अनजान बने कुछ लोगों/ रिश्तेदारों का अहम भी पहले सा ही है, कुछ भी बदला नहीं है, पर बहुत कुछ बदल गया है. आज बाऊजी द्वारा भेजे गये फूल और केक लिए कोई डिलीवरी बॉय दरवाजे पे दस्तक नहीं देगा. ना ही मेरठ में बाऊजी बेचैनी से मेरे फ़ोन का इंतज़ार कर रहे होंगे कि केक मिल गया है. बाऊजी को ऑनलाइन ऑर्डर करना नहीं आता था, पर वो हर साल केक और फूल डिलीवरी के outlet पे जाते, केक और फूलों का ऑर्डर करते, और फिर फ़ोन का इंतज़ार करते रहते यह जानने को कि केक मिल गया. उनके जाने के बाद उनकी फ़ाइलों में सँभाल के रखे ड्राफ्ट मैसेजेज और केक डिलीवरी की वो सारी रसीदें मिली जो वो हम सबको भेजा करते थे. आज बस उनके वो ड्राफ्ट मैसेजेज और रसीदें ही है, बाऊजी नहीं हैं.