Shalini Venuturupalli

Abstract Others

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Shalini Venuturupalli

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वो दिन भी क्या दिन थे

वो दिन भी क्या दिन थे

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हम सब इंसानों का जीवन एक तरह से देखा जाए तो का.फी चीज़ों में एक जैसा ही है। हम पैदा होते हैं, बोलना सीखते हैं, चलना सीखते हैं और तीन साल की उमर में पाठशाला में दाखिल होते हैं। बाल विहार के तीन साल तो हँसते-खेलते, अक्षर सीखते, लिखना सीखते ही हो जाता है। फिर शुरु होता है हमारा असली सीखना। हम पहली कक्षा में आते और वहाँ से दस साल का सफर कैसे कटता है पता ही नहीं चलता।

लेकिन इन सब में ताजुब की बात यह है कि जब हम स्कूल में होते हैं, तब हमें लगता है कि यार हम बड़े कब होंगे, यह होमवकर्र कब खतम होगा और ऐसी सारी चीज़ों से हमें छुटकारा कब मिलेगा जो हमें पसंद नही है। पर जब वो दस साल खतम हो जाते हैं तब लगता है कि वक्त कितनी जल्दी बीत गया है। स्कूल के वक्त, हम बच्चों को एक चीज़ का बेसब्री से इंतज़ार होता था- छुट्टियाँ, चाहे वो गर्मी की छुट्टियाँ हो, दिवाली की या किसी और चीज़ की भी। उन दिनों में हम कितनी मस्ती, कितना धमाल करते थे। पूरा दिन खेल-कूद, बिना खाए-पीए, बिना विराम के। हम खेलके घर आते, थके-हारे, पसीने में भीघे हुए, स्नान करके खाते, सो जाते और अगले दिन उठकर, तैयार हो कर फिर खेलने भागते। एसी होती थी हमारी दिनचर्या छुट्टियों में। वो क्षण, वो लम्हे, वो मस्ती, जब भी याद करते हैं, हम उदास भी होते हैं कि वो दिन कितने जल्दी बीत गए, और खुश भी होते हैं कि क्या दिन थे वो। बचपन में सुबह जब जल्दी उठना पड़ता था, स्कूल जाने के लिए, मुझे गुस्सा आता था कि क्यों जाना है, कब स्कूल से बाहर आएँगे ताकि यह सब करना ना पड़े, लेकिन जब आखिर-कार निकल गए तब पता चला कि वो दिन भी क्या सुहाने दिन थे और लगता है कि हमेशा स्कूल में ही रह जाते तो कितना अच्छा होता।

मैं तो यह कहूँगी कि भले हमें लगे कि स्कूल एसा है, वैसा है, लेकिन हमारे जीवन में याद करने पर वो दिन सबसे अच्छे ही लगेंगे। वो दोस्त, वो मस्ती, वो दिन, वापस नहीं आएँगे दोबारा, इसिलिए हमें हर पल आनंद और उत्साह से जीना चाहिए।


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