वो बच्चे
वो बच्चे
हर बार ईद के समय वर्षो पहले की एक घटना मेरे जेहन में तैरने लगती है। उस वर्ष ईद की तारीख ठंड के मौसम में थी। मैं उस समय कोलकता में रहती थी।
महानगर की एक विशेषता है, जैसे ही कार लाल बत्ती पर रुकती है, वैसे ही तरह-तरह के भिखारी, फूल बेचने वाले, विभिन्न कारों की ओर लपकते हैं। अनेकों बार कार से जाते समय मेरा सामना इनसे हुआ। मैंने देखा कि अनेक हिजड़े भी लाल बत्ती पर लोगों को परेशान करते हैं, कार का शीशा खुलवाकर ताली बजाना शुरू कर देते हैं, इनकी चुभती हुई शब्दों को झेल पाना मुश्किल हो जाता है।
मोटरसाइकिल पर बैठे जोड़ों की तो शामत ही आ जाती है -- - -- उन पर मिठाई में मख्खी की तरह भिनभिनाने लगते हैं- ---।
जब तक हरी बत्ती नहीं हो जाती और कार आगे नहीं बढ़ जाती, इनसे पीछा छुड़ाना मुश्किल हो जाता है।
एक बार रास्ते में लाल बत्ती पर मेरी कार रूकी हुई थी।" मैडम जी कार का शीशा बंद कर दिजिए।" ड्राइवर मोहन सिंह ने कहा, भिखारी बच्चें पैसे माँग रहे हैं।
"शीशा बंद कर करने से मुझे घुटन होती है।"
माँगने से कुछ पैसे दे दूंगी।
मैडम जी आप इन पर भरोसा मत करो ! ये बड़े शातिर होते हैं, सुबह भीख माँगते हैं, शाम को अच्छे कपड़े पहन कर राबड़ी जिलेबी ------ -खाते हैं। कुछ तो भीख माँग कर अपना मकान तक बना लिया है।
ये बच्चे भिखारी आँख बचाकर मोबाइल फोन, पर्स वगैरह चुरा लेते हैं।
आप सावधान होकर बैठना !
"चिन्ता मत करो" मैंने उसकी लम्बी -चौड़ी बातों का संक्षिप्त सा उत्तर दिया।
पता नहीं क्यों मुझे इन बच्चों पर बहुत दया आती है, ये बेचारे स्कूल जाने की उम्र में अनेक मजबूरियों से ग्रस्त होकर भीख माँगते फिरते हैं।
इतने में एक छोटा सा लड़का कार के दरवाजे से सट कर खड़ा हो गया और मेरे सामने हाथ फैलाने लगा ----। मैंने हमेशा की भाँति एक पाँच का सिक्का उसके हथेली पर रख दिया।
सिक्का लेकर वह गया नहीं, वहीं खड़ा रहा, अचानक जोर से रोने लगा- ----- क्यों रो रहें हो ?
मैंने अवाक होकर पूछा ! "आंटी" रात भर नींद नहीं आती है ! फुटपाथ पर होता हूँ, रात को बहुत ठंड लगती है -------- कुछ कंबल खरीदने के लिए पैसे दोगी ? कहकर आशा भरी निगाहों से वह मुझे देखने लगा।
मैं असमंजस में पड़ गयी ! ड्राइवर मोहन सिंह ने कहा, मैडम जी इन नौटंकीबाजो के चक्कर में मत पड़ना !
मैंने उसकी बातों को अनसूना करते हुए बच्चे से पूछा,
"तुम्हारा नाम क्या है ?
ऐ मैडम जी ! हम फुटपाथ पर रहने वालो का कोई नाम नहीं होता, हमारा कोई नाम, कोई जात, कोई धर्म नहीं है, लोग मुझे "ऐ छोकरा", "ऐ भिखारी," "अबे साला" यही सब नामों से बुलाते हैं।
मगर मेरी एक आपा है "रूबिना " ,वह मुझे "अली" पुकारती है।
अब उस की आँखों में आंसू नहीं थे। मैं हैरान होकर उस की बातें सुन रही थी।
तभी वह चिल्लाया--ए रूबिना इधर आ ! पता नहीं कहाँ से एक लड़की कार के पास आ खड़ी हुई, मैला सा सलवार कमीज पहने हुए, सर सफेद दूपट्टे से ढकी हुई, बड़ी- बड़ी उदास आखें---''। एक बार मेरी तरफ देखकर सर।
झुकाकर खड़ी हो गई।
"मेम साहब "मुझ पर विश्वास करो" रात भर मैं और मेरी "आपा" ठंड में ठिठुरते हैं, कहते हुए उसकी आँखों में फिर आंसू आ गए- ---।
तब तक हरी बत्ती नजर आने लगी थी, मैं तो बच्चे की बातों से पहले ही प्रभावित थी और ज्यादा न सोचते हुए पर्स से एक 500 का नोट निकाल कर उसके हाथों में थमा दिया।
कार झटके से आगे बढ़ गई। मोहन सिंह कुछ न बोला, शायद मुझे "सनकी" समझ रहा होगा- -----।
इस घटना के करीब एक महीना और गुजर गया, ठंड और बढ़ गई थी। एक रात मैं दफ्तर से लौट रही थी कि अचानक मेरी नजर उस आधे बने हुए बहुमंजिली इमारत के नीचे दीवारों पर पड़ी, जहाँ फुटपाथ पर दो बच्चे अलाव जलाकर बैठे थे। लड़की का चेहरा मैं ठीक से देख न पायी क्योंकि वह सफेद दूपट्टे से आधा ढका हुआ था। लड़का "अली" ही था।
मैंने मोहन सिंह से कार रोकने के लिए कहा। मैं कार से उतरकर उनके नजदीक गई। जलती हुई आग की रोशनी में अली का चेहरा चमक रहा था।
उसने भी मुझे पहचान लिया था। मैंने पूछा रुपये का क्या किया ?
अपनी गठरी से एक मैला सा कम्बल निकाल कर दिखाते हुए कहा, "एक पुराना कंबल खरीद लिया है काम चल जाएगा।"
बाकी बचे हुए रुपयों से हम दोनों ईद में रीलिज होने वाली " भाईजान " की नई फिल्म देखेंगे !
मैं हतप्रभ होकर उनकी ओर देखते रह गई, दोनों बच्चे खिलखिलाकर हंस पड़े।