Ram Binod Kumar 'Sanatan Bharat'

Romance Classics Inspirational

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Ram Binod Kumar 'Sanatan Bharat'

Romance Classics Inspirational

वह बदला लेने आई है

वह बदला लेने आई है

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अदला- बदली जीवन है,

मिला -दिया इसे जान।

इस हाथ दे उस हाथ ले,

  हे प्रिय ! तुम चतुर सुजान।।

यह गम और खुशी दोनों ही बड़ी अजीब चीज है। अगर अपनों से साझा किया जाए तो , खुशियां तो उत्तरोत्तर बढ़ती जाती है , और गम कम होता जाता है। सभी चाहते भी यही हैं , खुशियां भरे और गम कम हो जाए।

आज शेखर के कॉलेज का पहला दिन है। कुछ नए दोस्तों से आज उसका परिचय हुआ। अब वह अपने कुछ दोस्तों से घुल - मिल गया है। अब उसे एकाकीपन महसूस नहीं होता है। उसका समय वहां अच्छी तरह से गुजर जाता है। यदि अब वह कभी अपनी कॉलेज मिस करता है ,तो उसे उसकी बहुत याद आती है। दूसरे दिन जाने की बड़ी बेसब्री होती है।

 अब दूसरे सेमेस्टर की परीक्षा भी हो चुकी है। एक वर्ष बीत गया। परंतु कुछ मित्रों के संबंधों में अस्थिरता अभी भी बनी हुई है। कुछ दोस्तों के बीच नित्य नए - नए कुछ ताने - बाने चलते ही रहते हैं।

शेखर अपनी पढ़ाई से अधिक और आगे कुछ भी सोच नहीं पाता है।

 परन्तु नेहा और रोमा के सपने अलग-अलग है।शेखर यदि कभी अकेला होता है, तो दोनों में जिसे अवसर मिलता है। उसके सामिप्य का लाभ लेना चाहतीं हैं।

एक दिन नेहा को इस का अवसर मिला, दोनों में ढेर सारी बातें हुई । पर नेहा अपने मन की बात ,कि वह उसे पसंद करती है। नहीं बता सकी ‌।

इसी तरह दोनों की मुलाकातें होती रहती है। बातें भी होती है ,परंतु नेहा को कभी अपनी नीजि बातें रखने की हिम्मत नहीं होती है।

परंतु फिर भी कालेज और स्टडी दोनों के मिलने-जुलने और अपनी बातें रखने का एक अच्छा माध्यम था।

इसी तरह रोमा भी मौका पाकर जब भी शेखर गई थी।

शेखर से मुखातिब होकर बोली-"शेखर तुमने आज तक मेरी बातों का जवाब नहीं दिया। अब अंतिम समय चल रहा है। छुट्टियों के बाद में शायद हम लोग कभी मिल पाएंगे या नहीं ? तुम्हारे बिना हमने जीवन की कोई कल्पना नहीं की है।"

 परंतु शेखर को उसकी बातों में कोई रुचि ना थी। वह उठकर कर जाने को हुआ।

" रोमा अब मैं जा रहा हूं। मुझे कई काम है।"

पर रोमा ने आगे बढ़कर उसका रास्ता रोक लिया।

" थोड़ी देर रुको ।मेरी बातें सुन लो।"

" क्या ?"

" तुम्हें मेरा साथ अवश्य देना होगा।"

" रोमा मुझ पर तरस खाओ। मैंने अभी अपने जीवन के बारे में कुछ नहीं सोचा है। अभी हमारा पूरा ध्यान पढ़ाई पर ही केंद्रित है। जब सोच लूंगा तब तुम्हें बता दूंगा ‌"

 " ठीक है ! मैं तुम्हारा इंतजार कर लूंगी। लेकिन तुम मुझे भरोसा दो। कि मैं तुम्हें पसंद हूं।"

"मैं ऐसे किसी बात का भरोसा तुम्हें नहीं दे सकता। बस इतना समझ लो मेरे रास्ते अलग है।"

 "क्यों ? रास्ते क्यों अलग है ?भले ही आज हमारे रास्ते अलग है, मगर हम दोनों एक ही मंजिल बनाएंगे।"

 " एक ही बात को अलग -अलग तरह से घुमाने से कोई फायदा नहीं है। बस तुम इतना समझ लो। हम दोनों दिन -रात की तरह है । जो एक जगह नहीं हो सकते हैं । हमारे तुम्हारे रास्ते, रहन -सहन, सोच- विचार ,वेश-भूषा ,सोशल स्टेटस सारे अलग है। हम दोनों चाह कर भी एक नहीं हो सकते ।"

 "मैं तुम्हारे लिए खुद को बदल दूंगी। तुम जैसा कहोगे वैसा ही होगा। मैं अपने पिताजी से बात करूंगी। वह हमारी बात अवश्य मान जाएंगे। वह हमारी एक ही बात को नजरअंदाज नहीं करते हैं।"

‌"फिर भी इन सब बातों का कोई मोल नहीं। मैं अपना निर्णय नहीं बदलूंगा। पहले तुम मेरे लिए नहीं। खुद के लिए अपने आप को बदलो। फिर कभी यदि हम मिले तब इस पर चर्चा करेंगे।"

 " पर शेखर ! शायद तुम्हें मालूम नहीं है ।जो चीज मुझे पसंद होती है ।मैं उसे हासिल करके ही रहती हूं। मैंने अपने जीवन में अभी किसी बात में ना नहीं सुना है।"

परंतु रोमा ! मैं कोई वस्तु नहीं इंसान हूं।तुम क्या समझते हो ? तुम्हारी इन सब बातों को सुनने के बाद क्या मेरा फैसला बदल जाएगा ?"

 "शेखर ! तुम्हेंअपना फैसला बदलना ही होगा ।"

 "तो क्या तुम मुझे अपने जमींदार पिता की तरह एक धमकी दे रही हो?"

"अब तुम्हें या हमारी विनती लगे या धमकी । तुम मेरा हाल समझ सकते हो।"

" रोमा ! अब मान भी जाओ।अब तुम बच्चों जैसी जिद मत करो।"

 " यह  हमारी जिद नहीं जुनून है। और मैं इसके लिए हद तक गुजर जाऊंगी।"

 " ठीक है । तुम्हें जो करना है करो। मैं चलता हूं।"

 शेखर जाना चाहता है ।तो रोमा पुण: उसका रास्ता रोक लेती है।

"तुम इस तरह हमारी बातों को अधूरा छोड़कर बीच में नहीं जा सकते।"

 " हमारी बातें पूरी हो गई। कुछ भी कहने सुनने को शेष नहीं रहा।"

 " कहीं तुम्हारी नजर नेहा पर तो नहीं है ? तुम नेहा के लिए मुझे नहीं छोड़ सकते हो । दोनों की नजदीकियां मैं कुछ दिनों से देख रही हूं। परन्तु याद रखना! अगर मेरे जीवन में खलल हुआ। तो मैं तुम दोनों को चैन से जीने नहीं दूंगी।

  शेखर बिना कुछ उत्तर दिए अपने तेज कदमों से वहां से निकल गया।

सेमेस्टर की परीक्षाएं पूरी हो गई। शेखर भी कुछ दिनों के लिए अपनी मां से मिलने का आ गया।

शेखर के पिता एक साधारण किसान थे। वैसे उनके पास अपनी खेती- बाड़ी के लिए पर्याप्त जमीन थी। कृषि के यंत्र उपकरण भी थे। उसका खुशहाल और संपन्न परिवार था।

 आज रक्षाबंधन का त्यौहार है। शेखर जल्दी उठकर तैयार हो गया है। आज उसके घर में उसकी माताजी पूजा करने और पकवान पकाने में व्यस्त है। शेखर अपने मां के कामों में उनकी सहायता में लगा हुआ है।

  तभी उसके पिताजी ने घर पर आकर उसको बताया -

"बगल के गांव से एक जमींदार साहब अपनी बेटी उनके साथ आएं हैं। दोनों को मैंने बैठक पर बिठाया है। शेखर की मां अगर तुम बोलो तो मैं उन्हें घर पर ले आऊं। क्योंकि दोनों शेखर से ही मिलने आएं हैं।"

यह सुनकर शेखर कुछ समझ नहीं पाया। उसके मन में कई तरह की बातें चलने लगी। फिर उसने यह सोचा संभव है रोमा ही होगी। हो सकता है यह उसकी कोई नई चाल हो। अपने पिता के साथ आकर मुझ पर दबाव बनाना चाहती है। और जल्दी से बैठक की ओर भागा।

  वहां पहुंचकर उसने जमींदार साहब के पैर छुए ,और रोमा को हेलो बोला। जमींदार साहब उससे मिलकर बहुत खुश हुए।

 शेखर वही बैठकर उन दोनों से बहुत सारी बातें किया। जब शेखर चुप था ,तब जमींदार साहब ने अपनी चुप्पी तोड़ी-

"बेटा शेखर! रोमा तुम्हारी शिकायत लेकर मुझे अपने साथ यहां लाई है। बोली कि चलिए पिताजी ! शेखर से बदला लेने चलना है। पूछने पर और कुछ नहीं बताई।

 तुम मुझे कुछ बता सकते हो ? आखिर बात क्या है ?"

शेखर पर कुछ बोल ना सका। बाप बेटी के बातों का मतलब सोच रहा था। उसकी कुछ देर की चुप्पी के बाद रोमा ने अपने बैग से राखी ,दीपक ,मिठाईयां ,थाली आदि अन्य सामग्रियां निकाली। फिर थाली को कुमकुम ,अक्षत, पुष्प आदि से सजाया दीपक प्रज्वलित की उसमें राखियां रखी

शेखर कुछ समझ नहीं पा रहा था। कि आखिर यह सब क्या हो रहा है ?

 अब रोमा शेखर को राखी बांधने के लिए उसके पास पहुंच गई। और बोली -"पिताजी आप पूछ रहे थे ? ना यही है हमारा बदला ।"

" शेखर ! मैं तुमसे आखरी बार पूछती हूं ? मेरे साथ -साथ चलना स्वीकार कर लो । या फिर जो तोहफा मैं तुम्हारे लिए लाई हूं । उसे स्वीकार कर लो।"

परन्तु शेखर के मुंह से कोई आवाज नहीं निकला। वह कुछ सोच रहा था कि आखिर क्या किया जाए ?

" चुप क्यों हो शेखर ? अपनी बात बताओ ? आखिर तुम क्या चाहते हो?"

 शेखर सोचते हुए चुप रहा ।परंतु उसके हाथ रोमा के आगे ऐसे बढ़ गए जैसे वह अदृश्य शक्ति से प्रेरित हो।

इसी तरह कई पल गुजर गए। रोमा हाथ में राखी लिए , शेखर अपना हाथ बढ़ाएं। अब ना तो कोई कुछ बोल रहा था ।

और ना ही किसी के हाथों में कोई हलचल भी।

 ऐसा देखते - देखते जब जमींदार साहब से नहीं रहा गया। तो उन्हें बोलना पड़ा।

"  बेट रोमा ! क्या सोच रहे हो जल्दी करो देखो ! शेखर कैसे हाथ बढ़ाएं तुम्हारा इंतजार कर रहा है।

  परंतु इन बातों से भी रोमा के हाथों में कोई हलचल नहीं हुई। अब वह अपनी मुंह फूलती हुई, थाली को मेज पर पटक कर, धम्म से सोफे पर बैठ गई। और गहरी सांसो के साथ सिसकारियां और सुबकियां भरने लगी। जमींदार साहब भी कुछ समझ न सके। वह अब उत्तर के लिए शेखर को देख रहे थे।


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