वेलेंटाइन डे
वेलेंटाइन डे
बसंत में अब कहाँ बासंती बयार! शीतलहर चल रही है। समीर ने जैकेट की चेन ऊपर खींच ली.
‘इस बार तो सर्दी पीछे ही पड़ गई है लगातार तीसरे महीने भी अपना तेवर दिखा रही है।’
‘पीछे सर्दी नहीं, तुम पड़ गए हो.’ अनीता ने हलके मुस्कराते हुए शातिराना अंदाज से कहा.
‘मैं पड़ा हूँ तेरे पीछे ?’ उसने एक हाथ से उसे अपने करीब खींचते हुए कहा।
‘और नहीं तो क्या? तुमसे कितनी बार कहा कि...’
‘कहने से क्या होता है! तुम्हारा मन मान लेगा?’
‘मन का क्या है, हम लड़कियों को तो मन मारना ही पड़ता है, जिस माता–पिता ने बाईस वर्ष तक पूरा ख़याल रखा उनकी बात कैसे टाल दूँ?’ ‘यह बात क्या मेरे पर लागू नहीं होती है?’
‘होती है, इसीलिए तो कहती हूँ जो रास्ता वो लोग दिखाएँ उस पर ही चलना...’
‘हमारे अपने जीवन का क्या?’
‘यह जीवन भी उनका दिया है।’
‘तो उन पर कुर्बान कर दें ?’
‘मैंने यह कब कहा? जीओ उसके साथ जिनसे वे हमारी शादी कर दें।’
‘लेकिन जीना तो हमें है। प्रेम के बिना कैसा जीना? हमने जो जीने-मरने की कसमें खायी थी उसका क्या?’
‘हम प्रेम से जी नहीं सकते तो उसके लिए मर तो सकते हैं।’
‘यानी अपने माँ बाप की इज्जत के लिए अपनी बलि दे दें यही चाहती हो।’
‘हाँ बलि नहीं दोगे तो वे बलि ले लेंगे। उनकी तैयारी पूरी है।’