minni mishra

Abstract

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उजाले की ओर

उजाले की ओर

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“कौ...न हो ? अरे, जबरदस्ती क्यों घुस रहे हो ? मेरी आँखें चुंधिया रही हैं।”

 “मैं....प्रकाश।”

 “ कौन ..? मैं तुम्हें नहीं जानता ! यहाँ तुम्हारी जरूरत भी नहीं है। ”

 “ वाह! अजीब आदमी है । उजाले से जीवन चलता है और मुझे अंदर घुसने से मना कर रहा है ! हे भगवान ..यहाँ तो हाथ का हाथ नहीं सूझता! घुप अंधियारा है! ” बिना अनुमति लिए प्रकाश उसके कमरे में प्रवेश कर गया ।

 “मुझे इसी तरह अच्छा लगता है। ऐसे ही रहने की आदत हो गई है। निकलो बाहर। ” अंधेरे ने जोर देकर कहा।

 “अरे...या...र, समझा कर। हमारी आँखें उजाले में ही काम करती हैं ,अंधियारे में नहीं।”

 “मुझे उजाले का काम नहीं पड़ता। हाथों को सब मालूम रहता है, कहाँ क्या है, समझे ? फौरन यहाँ से दफा हो जाओ।” प्रकाश को अपने करीब आते देख, अंधेरा उबल पड़ा । लेकिन प्रकाश बेधड़क आगे बढ़ता गया । कमरे के अंदर का नजारा देख वह भौचक रह गया ! कहीं लूट-खसोट का माल बिखरा पड़ा था तो कहीं शराब की बोतलें ! 

ओह ये क्या?! यहाँ तो कोने में महिलाओं के आबरू की धज्जियाँ उड़ाई जा रही है ! क्रोधाग्नि में जलता हुआ प्रकाश ने अपना विराट रूप उसे दिखाया । अँधेरे को यह बर्दाश्त से बाहर था कि कोई उसीके घर में घुसकर उससे जबरदस्ती करे ! तमतमाते हुए वह प्रकाश को जोर लगाकर पीछे ढकेलने लगा। दोनों में घमासान छिड़ गया।

 आखिरकार अंधेरा लड़खड़ाकर धड़ाम से गिरा। वह जोर से चीखा , " बचाओ ..ओ....."

 “क्या हुआ...दोस्त ?” पुचकारते हुए प्रकाश ने उसे उठाया।

 “ कमरे में बहुत घुटन महसूस हो रही है, मेरा दिल घबरा रहा है ! मुझे इन औरतों के चेहरे पर अभी, अचानक... असहनीय पीड़ा क्यों दिखाई पड़ने लगी है !?”

 वहीं बिखरे पड़े कपड़ों से औरतों के आबरू को ढकता हुआ , अँधेरा कमरे के सभी दरवाजे, खिड़की को खोलकर बेतहाशा बाहर सड़क पर भागने लगा। कमरे में अब अंधियारी का नामोनिशान नहीं था। तभी तालियों की गड़गडाहट के साथ अचानक पिक्चर हॉल की सारी बत्तियां जल उठीं।


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