तू ही मैं हूँ
तू ही मैं हूँ
महानगर के बीचों बीच आकाश छूती इमारतों के बीच त्यागी अपने पन्द्रहवें माले के फ्लैट की बालकोनी के बाहर खड़ा हैं। काम वाली बाई सुबह का खाना बनाकर रख गई है। पिछली रात बेटा और बहू भी मुन्नी को लेकर एक दूसरे महानगर में उसे मिलकर चले गए हैं। छोटा बेटा अभी अभी वीज़ा लगवाने के लिए कुछ फॉर्मेलिटीज पूरी करने दफ्तर निकल गया है।
चार पांच दिन से कितनी रौनक थी घर में। थ्री बी एच के का फ्लैट जैसे कई महीनों बाद हरा भरा लग रहा था।
साथ वाले फ्लैट की बालकनी में संधू साहब निकले तो उन्होंने त्यागी को पुकारा,
"औऱ भाई त्यागी,क्या हाल है,सुबह सुबह ताजी हवा खा रहे हैं??"
"अरे नही संधू साहब,हवा का क्या खाना ,अब तो बस गम खाने में उम्र बसर हो रही है।" त्यागी ने मुस्कुराते हुए कहा।
"वाह,आप भी शायराना अंदाज में बहुत बड़ी बात कह देते हैं,और लगता है जैसे किसी ने गहरे कुएं में अचानक कोई ईंट फेंक दी हो। खैर ....और सुनाइये गुड्डू की तैयारी हो गई,कब की फ्लाइट है। "संधू ने बात बदली और अपने कप से चाय की घूंट भर ली।
"जाना ही है,पन्द्रह दिन हो या महीना। अब ये भी चला जाएगा। कमला के बाद सब बिखर सा गया है,लोग कहते है कि सँभल गया है। " त्यागी का दर्द छलका था जैसे।
कमला उनकी पत्नी दो साल पहले ही गुजर चुकी थी। त्यागी की रिटायरमेंट से लगभग एक महीना पहले ही। रिटायरमेंट पार्टी के लिए क्या क्या सोच रखा था सबने। पर वक्त कब क्या दिखायेगा ये किस को पता होता है। आदमी तो बस योजना ही बना पाता है।
कमला के जाने के एक साल बाद ही बड़ा बेटा और बहू भी प्रमोशन के चलते एक बड़ी कम्पनी में शिफ्ट हो गए। छोटे ने बी टेक के बाद एक कम्पनी में काम करते हुए विदेश में जॉब ऑफर ले लिया था।
त्यागी जी ने शायद हर व्यक्ति की तरह सम्पन्नता तो चाही थी ,पर ये अकेलापन उन्हें सम्पन्नता में भी एक टीस दे रहा था। त्यागी जी गांव खेड़े के आदमी थे। संयुक्त परिवार में पले बढ़े। रोजगार और तरक्की ने गांव खेड़ा छुड़वा दिया। रिश्तेदार भी वक्त के साथ अपने अपने घरों में व्यस्त हो गए। महानगरीय व्यस्तता में कौन आता जाता है। एक जमाना था जब लोग पत्र लिखते पढ़ते,उनका इंतजार करते। अब तो फोन आ गया है,वीडियो कॉल आ गई है लेकिन फिर भी वो स्नेह ,प्यार तथा मिलने का इंतजार न रहा। सम्पन्नता ने एक अजीब सी खाई दिलों में भर दी है।
त्यागी जी भी बाल बच्चों की पढ़ाई लिखाई और उनके सपनों को साकार करने में खो गए। इसका अहसास उन्हें तब हुआ जब वे विधुर हुए। कमला थी तो कुछ न कुछ जोड़ तोड़ चलता रहता था। अब तो वे सब कुछ अपनी संतान को संभालकर आजादी से घर मे उनके बीच आराम की जिंदगी जीने की कामना रखते थे। वो अक्सर कमला से कहते,"देखो,सब भगवान की कृपा से सही हो गया है,बच्चे भी काम मे लग गए है। अब हम लोग भी घूमना फिरना जारी रखेंगे। कभी कश्मीर तो कभी कन्याकुमारी। यही परिक्रमा हमे फिर से तरोताजा कर देगी,बहुत मेहनत और त्याग कर लिया जिंदगी में।"
"अच्छा ,अब तुम जवानी के दिन तरोताजा करोगे,देखो मेरे तो घुटने अब जवाब दे रहे हैं,मैं तो यही घर मे रहकर नाती पोतों के साथ सुख भोगुगीं। मैंने तो नौकरी के चक्कर मे अच्छी तरह घर ही नही देखा। ऐसा लगता था मानो घर तो आदमी बस रात गुजारने के लिए रुकता है। इस घर को मैने हम सबका इंतजार करते देखा है। इसलिए मेरी परिक्रमा तो घर मे ही होगी।" कमला ने जैसे अपने दिल की बात कही थी।
पर वक्त तो वक्त होता है,उसकी अपनी योजनाएं होती है जो कभी प्रकट नही होती। ये योजनाएं बड़ी क्रूर होती हैं और उदार भी। बस आपको इनके साथ ही सफर तय करना पड़ता है।
"अरे त्यागी भाई कहा खो गए दार्शनिकों की तरह।"संधू ने जैसे त्यागी को जगाया।
त्यागी जी दोबारा अपनी सोच के चक्रव्यूह से निकले और कहने लगे।
"यार संधू ,ये घर मैनें बड़ी लग्न और मेहनत से बनाया। इसमें मेरे बुजुर्गों और मेरी अपनी मेहनत की कमाई का पैसा लगा। सोचा था तीन बैडरूम से कम क्या बनाऊंगा। दो बच्चे और मैं न जाने कितने साल किरायेदार बनके रहे। जब मैं यहां शिफ्ट हुआ तो पहली बार लगा जैसे अपने घर लौट आया हूँ। अपनी जमीन पर ,किसी अपने के बीच ,लेकिन देखो कमला धोखा दे गई। सोचा था बच्चे अपनी राह चल देगें तो भी कमला के सहारे दिल लगा रहेगा। अब छोटा लड़का भी विदेश जा रहा है। उसे भी अपने सपने पूरे करने हैं। और मुझे खुशी है कि मेरे बच्चे तरक्की कर रहे हैं। वो अपने आप से ,अपने काम से खुश हैं। मुझे भी अपने साथ ले जाने की बाते करते हैं। पर नही ,पहले गांव छोड़ा तो बहुत कुछ छूट गया। अब इस घर को छोड़कर जाने का मन नही है। इस घर मे कमला, मेरे बच्चों और मेरे अस्तित्व की महक समाई हुई है। उनकी आवाजे मेरे कानों में यदा कदा यहाँ गूंजा करती हैं। "
"हा यार त्यागी,ये तो हैं,इस उम्र में आदमी पिछली यादों के सहारे ही गुनगुनाता मुस्कुराता अपना टाइम पास कर लेता है। कई बार लगता है कि इस बालकनी में या शाम और सुबह को पार्क में हम सब बूढ़े न मिलें ,न दिखें तो दुनिया मे देखने मिलने लायक कुछ है ही नही। मेरे बच्चे खुद अमेरिका सेटल हो गए। बस तुम्हारी भाभी और मैं टाइम पास कर लेते हैं घर मे। वीडियो कॉल आ जाती है बच्चों की,उन्हें खुश देखकर खुश हो लेते हैं। इंतजार करते है साल के उस महीने का जब वो आते हैं। वो कुछ दिन दोबारा ऊर्जा दे देते हैं जीते रहने की। पर सच मानो हम तुम भी एक दूसरे के लिए बड़ी जीवन शक्ति हैं। शाम को जब कभी तुम और बाकी दोस्त क्लब में बैठ कर बाते करते हैं तो सारा खालीपन दूर हो जाता है।"
संधू ने त्यागी को सपोर्ट करते हुए कहा हो जैसे। दुख को घटाने की एक तरकीब यही है कि उस दुख को सार्वजनिक तौर पर देखने की कोशिश की जाए।
नानक दुखिया सब संसार।
"देखो,वो सामने का दृश्य देखो संधू।" त्यागी ने इशारा करके संधू को सामने के एक फ्लैट को ओर देखने को कहा।
वहां एक पत्नी गोद मे बच्चा उठाये अपने ऑफिस जा रहे पति को बाय बाय कर रही थी और बच्चा भी अपने नन्हे हाथों को हिलाकर अपने पिता को बाय कर रहा था।
"देखा ये है जिंदगी का सबसे खूबसूरत दृश्य,इसे हमने जिया है,इस दृश्य में घर की आत्मा बसती है। मैं प्रार्थना करता हूँ ये दृश्य यूंही बना रहे। शाम के वक्त तक देखना संधू साहब ,इस घर को एक इंतजार रहेगा जाने वाले का और एक मुहब्बत सी लिपटी रहेगी इस घर मे रहने वालों के इर्द गिर्द। असल मे ये मुहब्बत और इंतजार का घेरा ही सारी कहानी को जिंदगी देगा।" कहते कहते त्यागी जैसे उस दृश्य में खो सा गया।
संधू साहब भी उस जादुई अनुभव में डूब से गए। एक चुप्पी सी छा गई।