तपस्या -8
तपस्या -8
निर्मला के पति की कमाई अच्छी थी, लेकिन खर्चें इतने ज्यादा थे कि हमेशा पैसे की तंगी बनी रहती थी। सारे सामाजिक व्यवहार निर्मला और उसके पति को ही निभाने होते थे। रिश्तेदारी में होने वाले शादी -विवाह, जन्मोत्सव आदि सभी में लेन -देन निर्मला और उसके पति को ही करना होता था।
निर्मला भी एक समझदार पत्नी की तरह बिना उफ्फ किये, अपने सारे फ़र्ज़ निभा रही थी। घर पर सिलाई करके, पति की आर्थिक मदद करने की कोशिश भी करती थी। अपनी बच्चियों को अपने हाथों से बने हुए कपड़े पहनाती थी। चादर अगर फट जाती थी तो उनसे पिलो कवर बना लेती थी। फटे हुए कपड़ों से गुदड़ी, पायदान आदि बना लेती थी। निर्मला के हाथों में बरकत थी।
निर्मला तीसरी बार गर्भवती हुई। निर्मला के ससुराल वालों को पोता जो चाहिए था। निर्मला की बड़ी देवरानी के भी एक बेटी हो गयी थी। निर्मला खुद भी बेटा चाहती थी ताकि दोनों देवरानियों के सामने उसे नीचा न देखना पड़े। बेटे को जनने वाली स्त्री का मान -सम्मान थोड़ा बढ़ जाता है।
निर्मला डिलीवरी के लिए अपने ससुराल ही आ गयी थी। निर्मला को मरी हुई बेटी हुई। निर्मला ने अपनी सास और दादी सास से अनुनय किया कि उसकी सफ़ाई करवा दें। लेकिन उन्होंने पैसे बचाने के चक्कर में निर्मला की एक न सुनी। महिलाओं के स्वास्थ्य को अंतिम पायदान पर जो रखा जाता था।
निर्मला अपनी बच्चियों को लेकर पति के पास लौट गयी थी। निर्मला की बड़ी बेटी स्नेहा स्कूल जाने लग गयी थी। उसे स्कूल जाते हुए ६ महीने होने को आये थे, लेकिन वह क से कबूतर, हिंदी वर्णमाला का पहला अक्षर भी लिखना नहीं सीख पायी थी। निर्मला ने उसे सिखाने के सभी तरीके अपना लिए थे, लेकिन सब व्यर्थ।
एक दिन निर्मला को हल्का सा बुखार चढ़ा, निर्मला ने दवा ले ली। दवा के कारण निर्मला के सारे शरीर में चकते हो गए थे। निर्मला को उसके पति सीधे हॉस्पिटल लेकर गए। निर्मला की हालत बिगड़ने लगी, निर्मला को साँस लेने में भी तकलीफ होने लगी। यह छोटा शहर था, डॉक्टर ने राजधानी के हॉस्पिटल में ले जाने की सलाह दी। ऑक्सीजन सिलिंडर के साथ एम्बुलेंस में निर्मला को राजधानी के सबसे अच्छे हॉस्पिटल में एडमिट कर दिया गया। निर्मला की बच्चेदानी में मरी हुई बच्ची के कुछ टुकड़े रह गए थे और उन्हीं से पूरे शरीर में ज़हर फ़ैल गया था।
निर्मला लगभग २ महीने तक हॉस्पिटल में एडमिट रही। निर्मला के बचने की उम्मीद कम ही थी। डॉक्टर ने भी दवा के साथ -साथ दुआओं पर भरोसा करने के लिए कहा था।
निर्मला की दोनों बेटियां गांव में दादी के साथ थी, निर्मला की चाची सास निर्मला के साथ थी। दोनों छोटी बच्चियाँ रोज़ घर के पास ही मंदिर में जाती थी और भगवान से अपनी मम्मी को जल्दी से सही करने की प्रार्थना करती थी। निर्मला की अम्मा भी अपनी बेटी की सलामती के लिए हर मंदिर और देवरे में चक्कर लगा रही थी।
कहते भी हैं कि एक औरत के मरने से बच्चों की माँ और माँ की बेटी मरती है। पति की तो दूसरी पत्नी आ जाती है।
गांव में ही स्नेहा को पढ़ाने के लिए एक सर को लगाया था। निर्मला की अटूट इच्छा थी या स्नेहा का अपनी माँ को खोने का डर या सर के पढ़ाने का तरीका, स्नेहा को क से कबूतर ही नहीं पूरी वर्णमाला आ गयी और उसने पढ़ना शुरू कर दिया।
निर्मला के जीने की इच्छा और उसके हौसले ने बीमारी को हरा दिया और निर्मला सही होकर अपनी बच्चियों के पास लौट आयी। निर्मला को तब डॉक्टर में ही असली भगवान नज़र आये थे, उस दिन निर्मला ने सोच लिया था कि वह अपनी एक बेटी को डॉक्टर बनाएगी। आज निर्मला की छोटी बेटी डॉक्टर बन भी गयी थी।