तेरे बाद भी...
तेरे बाद भी...
"भाभी-भाभी" कह जैसे ही मृदुला ने आवाज़ लगाई सुलोचना जी अपनी उम्र भूल ऐसे दौड़ी जैसे अभी कल ही कि बात हो जब वो बहू बन कर आई थीं।
दरवाजा खोलते ही देखा तो मोटी सी कद-काठी की हँसमुख व्यक्तित्व की धनी मृदुला उनके गले लग गई।
"कैसी हो भाभी।मुझे कभी याद करती हो या नहीं?मम्मी कह रहीं थीं आपके पाँव में दर्द है।अब उनसे भी आपका मिलना न के बराबर होता है...अरे वाह!आज भी पेड़-पौधों की रौनक।"और भी न जाने क्या-क्या...पूछती चली गई.।
मृदुला ऐसे प्रश्न करती गई जैसे आए दिन का आना-जाना हो और वो हर चीज़ से परिचित।जता रही थी जैसे दूर हो जाने के बावजूद भी दिलों में दूरियाँ नहीं आई हैं।
"सांस तो ले ले मृदुला।आ बैठ,तेरे सारे प्रश्नों के जवाब दूँगी,पहले सांस ले।"
"कब आई?"
"कल ही आई भाभी,तीन -साल बाद आना हुआ है।"
"बहुत मोटी हो गई है।"
"हाँ भाभी ऑफिस में सिटिंग के कारण।अब मोटापा इतना बढ़ गया है कि घटता ही नहीं।"
"रहने दे खाने की आज भी शौकीन होगी।"
मृदुला आँखों में आँसू भर मुस्कुरा दी,"आपको याद है!वहाँ आप थोड़ी थीं भाभी जो रोज शाम की चाय पर इंतजार कर मेरे लिए नित-नए पकवान बनाती।"
"मम्मी कह रहीं थी बीच में बहुत परेशान रहे आप।"
"हाँ पाँव में दर्द कुछ ज्यादा ही था पर आज तेरी आवाज़ सुनते ही गायब हो गया।वैसे तो उम्र की दस्तक है।सिक्सटी प्लस हो गई हूँ।कुछ तो परेशानी होगी ही।सच बताऊँ आज सालों बाद किसी ने भाभी आवाज़ मारी।वरना दादी,नानी,आंटी सुन-सुनकर बड़प्पन का एहसास होने लगा था।"
"भैया के विषय में पता चला....हिम्मत ही नहीं हुई आपसे बात करने की...."
"कोई बात नहीं मृदुला।जहाँ प्रेम हो वहाँ दिखावे की जरूरत नहीं पड़ती।आज तुम्हारे आने से मानो ये घर फिर गुलज़ार हो उठा।तुम्हारी आवाज़ सुनते ही स्फूर्ति सी जाग गई।"
"अकेलापन लगता होगा भाभी?अपर्णा कहाँ है ?आप उसके साथ...."
"नहीं-नहीं कैसा अकेलापन।मेरा घर है जिसे सालों से संजोती आई हूँ,यहाँ की हर चीज़ तुम्हारे भैया ने मेरी पसंद से ली थी।याद है वो कठपुतली!अपर्णा छोटी सी थी तो कठपुतली का नाच देख ,लेने की जिद्द कर बैठी थी और ये कूलर!मेरे मना करने के बाद भी तुम्हारे भैया उठा लाए थे,"गार्डन में जब अकेली बैठोगी ना तब इसकी हवा खाना।"किसे पता था ये वक्त इतनी जल्दी आ जाएगा।मृदुला,इस घर की हर एक-एक चीज़ में मेरी अनगिनत यादें बसी हैं।इतना बड़ा आशियाना उन्होंने मेरी खुशी के लिए ही तो बसाया था।कैसे तपती धूप में मजदूरों के साथ लगे रहते और आज वही सब छोड़ चली जाऊंँ!नहीं मैं इतनी कमजोर नहीं।"
"भाभी फिर सारा दिन....।"
"अपने पेड़ों को सहेजती हूँ।पहले तुम लोगों के साथ समय व्यतीत हो जाता था।फिर अपर्णा आ गई और अब अपना सारा समय इनके लगाए पेड़ों की देखभाल में बिता देती हूँ।"
"आपको तो लिखने का भी बहुत शौक था भाभी,वो सब क्यों नहीं शुरू कर देतीं!"
"हा..हा..हा" जोर से हँस पड़ीं।देखा तो नेत्र सजल थे।
"इंसान हर चीज़ पर फतह पा लेता है पर 'उम्र का दौर' बस वहीं हताश हो जाता है।याद है लिखने का शौक चढ़ा था तो अपर्णा कैसे नाराज हो जाती थी।"
"मम्मा हर समय फ़ोन में लगी रहती हो।आपके पास तो हमारे लिए समय ही नहीं।"
पापा भी बिटिया के सुर में सुर मिलाते,"हाँ,आंँखें कमजोर हो जाएंँगी तुम्हारी।"
"ऐसा कौनसा काम है जो आप लोगों को समय पर पूरा नहीं मिलता थोड़ी देर अपने हिसाब से जीना चाहती हूंँ तो वो भी परेशानी।"
आए दिन का झगड़ा था सब छोड़ दिया और आज देखो!वक्त भी है और फ़ोन भी हाथ में पर ना इच्छा होती है और ना ये आँखें अब साथ देती हैं।अब अपर्णा दूर बैठी यही लड़ती है "माँ लिखती क्यों नहीं हो?"
"समय कैसे बीत जाता है मृदुला।याद है कैसे भागी आती थी तुम्हारे घर।पड़ोस में एक तुम लोग थे जिनसे दिल मिला था।अपनी माँ के जाने को तरसती थी।आज भाई लाख मन्नतें कर हार गया पर इस घर का मोह नहीं छूटता।अकेली हूँ तो क्या! यहाँ यादें हैं, मेरे उन लम्हों की जिन्हें पाने के लिए मैंने लाखों जतन किये।उनके साथ मिल मैंने ये आशियाना सजाया था तो क्या उनके जाने के बाद सारी यादों को यहीं दफना,चली जाऊंँ।"
मृदुला उनके ज़ज़्बे को देख बहुत खुश थी।"आप कितनी भी दूर हो जाओ मेरे लिए हमेशा प्रेरणास्त्रोत ही रहोगी।सही है परेशानियों से घिरी अपना
आशियाना छोड़ भागा तो नहीं जा सकता अपितु नए सिरे से जीने के अंदाज़ बदलने से ज़िन्दगी आसान हो जाती है।",