सवाल कुछ जहन में
सवाल कुछ जहन में
बार बार तेरा यह कहना प्रतीत होता है कि थक गयी हो तुम मुझे झेलते झेलते। तभी कहती होगी नहीं हूं तेरे काबिल मैं।
क्या ख़ता हो गयी है जिसे ले कर पशोपेश हो तुम।
कुछ यही सवाल मन में गूंज रहे थे । आज परिवार से बहुत दूर ढलते सूरज की रोशनी में चेहरे पर आती जाती उम्र की झुर्रियों और मन में उमड़ती हुई सवालो की लड़ी ने आघात कर दिया ।
क्या सच में तुम मेरे काबिल नहीं, ऐसे में तो साथ रहने साथ जाने का वादा लिए जो पल एक साथ गुजारे वो सब न जाने कहाँ खो गए इन सूरज की रोशनी के साथ।
बहुत बुरी हूँ पत्थर हूँ का उलाहना दे कर मुझ से हाथ छुड़ाने से पहले कभी सोचा कि किस तरह जियेगा यह तेरा सिंदूर जो अभी तक चमक रहा होगा मांग में।
इस बार तो तुमने वो नाम दे दिया मुझे जिसे लेकर न तो मैं जी पा रहा और ना ही मर पाऊंगा...
हां मरने की कोशिश जरूर तेज हो गई है, कुछ जख्म अब भरते नी जल्दी और थकान हद से ज्यादा।
हाँ मर्द हूँ खुल कर रो नहीं सकता पर जब कभी तुम्हारी आंख से छलक जाऊंगा तो संभाल लेना मुझे, क्योंकि हर पल बहता रहता हूँ, तेरे इंतज़ार में कि कोई तो शाम वो भी होगी जब मेरा हाथ थामने आओगे तुम ढलते सूरज की किरणों में ढलती उम्र के इस पड़ाव पर।
सच में नहीं हो तुम मेरे काबिल क्योंकि मुझ से काबिल है आपके पास जिनको अभी आपका हाथ थामा है आपने।
इसलिए थाम कर रखना , सहेज कर रखना, मिलूंगा मैं उस वादे के साथ ढलते सूरज के साथ, संध्या वेला पर।
बस यही विश्वास लिए अपनी आंखों और अपने शरीर को जलाने लग गया हूं। अब के शायद बहुत देर हो जानी... बहुत देर.......