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Vijay Erry

Inspirational Others

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सुख की खोज

सुख की खोज

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सुख की खोज

लेखक: विजय शर्मा एरी

(लगभग १५०० शब्दों की कहानी)

गाँव का नाम था नंदगाँव। पहाड़ों के बीच बसा यह गाँव इतना सुंदर था कि लगता था प्रकृति ने अपनी सारी कलाकारी यहीं उड़ेल दी हो। सुबह-सुबह कोहरे की चादर में लिपटा गाँव जब सूरज की पहली किरण से जगता, तो ऐसा लगता मानो स्वर्ग धरती पर उतर आया हो। लेकिन इस स्वर्ग जैसे गाँव में एक युवक था, जिसका नाम था आरव। आरव को यह स्वर्ग अच्छा नहीं लगता था। उसे लगता था कि सुख कहीं और है। बहुत दूर। बहुत ऊँचा। बहुत चमकदार।

आरव की उम्र पच्चीस साल थी। पढ़ा-लिखा था। शहर में कॉलेज गया था। वहाँ उसने देखा था कि लोग बड़े-बड़े बंगलों में रहते हैं, चमचमाती गाड़ियों में घूमते हैं, महँगे फोन हाथ में लिए हँसते हैं। सोशल मीडिया पर सबके चेहरे चमकते थे। सबके पास सुख था, बस आरव के पास नहीं था। उसे लगता था कि सुख पैसा है, सुख नाम है, सुख वो चमक-दमक है जो शहर में दिखती है।

एक दिन उसने घरवालों से कहा, “मैं शहर जा रहा हूँ। सुख की तलाश में।”

माँ ने आँखों में आँसू भरकर कहा, “बेटा, सुख तो यहीं है। तेरे पिता की मेहनत की खेतों में, मेरे हाथ की रोटी में, तेरी छोटी बहन की हँसी में।”

पर आरव नहीं माना। उसने अपना छोटा-सा बैग उठाया और बस पकड़ ली।

शहर पहुँचा तो पहले-पहल सब कुछ सपने जैसा लगा। ऊँची-ऊँची इमारतें, चमकती सड़कें, रंग-बिरंगे लोग। उसने एक छोटी-सी नौकरी जॉइन की। कॉल सेंटर में। दिन-रात फोन पर विदेशियों से अंग्रेजी में बात करता। पैसे आने लगे। उसने पहले महिना आते ही नया फोन खरीदा। फिर ब्रांडेड कपड़े। फिर बाइक। सोशल मीडिया पर फोटो डालता – “Life is awesome!”

दोस्त बढ़ गए। पार्टी होने लगीं। रात-रात भर क्लब में म्यूजिक, ड्रिंक्स, नाच-गाना। सुबह आँख खुलती तो सिर दर्द करता। फिर भी मुस्कुराकर फोटो डलवाता – “Living my best life!”

लेकिन धीरे-धीरे कुछ अजीब होने लगा। पैसे बढ़ते गए, पर नींद कम होती गई। दोस्त बहुत थे, पर कोई अपना नहीं था। रात को अकेले फ्लैट में लेटता तो छत को ताकता रहता। सुख कहाँ था? वह चमक-दमक तो थी, पर अंदर से कुछ खाली-खाली सा लगता।

एक दिन ऑफिस में उसका बॉस चिल्लाया। क्लाइंट ने शिकायत की थी। आरव ने गलती से एक बड़ा ऑर्डर कैंसल कर दिया था। बॉस ने कहा, “तुम जैसे गँवई लोग यहाँ सिर्फ़ नौकरी खराब करने आते हो।” आरव को बहुत बुरा लगा। उस रात वह क्लब नहीं गया। अकेले बालकनी में बैठा बीयर पीता रहा। सामने बड़ी-बड़ी इमारतों में लाखों लाइटें जल रही थीं। हर लाइट के पीछे कोई न कोई जीवन था। सब सुखी लग रहे थे। सिर्फ़ वही दुखी।

फिर एक दिन उसकी मुलाकात हुई रिया से। रिया उसी ऑफिस में थी। बहुत ख़ूबसूरत। बहुत स्मार्ट। बहुत अमीर घर की। आरव को लगा – यही सुख है। अगर रिया उसकी हो गई, तो सुख पूरा हो जाएगा। उसने पूरी कोशिश की। महँगे गिफ्ट्स। लंबे-लंबे मैसेज। रिया हँसती थी, साथ घूमती थी, पर जब आरव ने प्रपोज़ किया तो उसने मुस्कुरा कर कहा, “सॉरी आरव, तुम बहुत अच्छे हो, पर मैं किसी और को डेट कर रही हूँ। वो मेरा क्लासमेट है। विदेश से MBA किया है।”

उस दिन आरव का दिल टूट गया। उसे लगा सुख तो बहुत ऊँचाई पर है। वहाँ तक उसकी पहुँच नहीं।

धीरे-धीरे नौकरी भी छूट गई। बॉस ने निकाल दिया। पैसे खत्म होने लगे। दोस्त गायब। किराया नहीं दे पाया तो मकान मालिक ने सामान सड़क पर रख दिया। आरव रात को पार्क के बेंच पर सोने लगा। भूख लगती तो स्टेशन के बाहर बासी समोसे खा लेता।

एक रात ठंड बहुत थी। आरव काँप रहा था। तभी एक बूढ़ा आदमी उसके पास आया। फटे हुए कंबल में लिपटा। उसने आरव को अपना आधा कंबल ओढ़ाया और कहा, “बेटा, ठंड लग रही है ना?”

आरव ने हैरानी से देखा। उस बूढ़े के पास खुद कुछ नहीं था, फिर भी वह बाँट रहा था।

आरव ने पूछा, “बाबा, आप इतने गरीब होकर भी खुश कैसे हो?”

बूढ़े ने हँस कर कहा, “बेटा, मैं गरीब नहीं हूँ। मेरे पास वो है जो इन ऊँची इमारतों वालों के पास नहीं – सुकून। मैंने भी तेरी तरह सुख ढूँढा था। पचास साल पहले। नौकरी की, पैसा कमाया, शादी की, बच्चे हुए, बंगला बनाया। फिर एक दिन दिल का दौरा पड़ा। डॉक्टर ने कहा – तनाव छोड़ो। सब कुछ छोड़ कर मैं गंगा किनारे आश्रम में चला गया। वहाँ पता चला – सुख बाहर नहीं, भीतर है।”

आरव चुप रहा।

बाबा ने आगे कहा, “सुख तीन चीज़ों में है बेटा –

पहला, जो है उसी में संतोष।

दूसरा, जो दे सको उसे बाँट दो।

तीसरा, जो बीत गया उसे भूल जाओ और जो आने वाला है उसकी चिंता मत करो। बस अभी में जियो।”

उस रात आरव सो नहीं पाया। बाबा की बातें दिमाग में घूमती रहीं।

सुबह हुई तो उसने फैसला किया – वह घर लौटेगा।

बस पकड़ी। रास्ते में खिड़की से बाहर देखता रहा। पहले जहाँ उसे गाँव बेकार लगता था, अब वही खेत, वही पेड़, वही नदी इतनी सुंदर लग रही थी।

घर पहुँचा तो माँ दौड़कर गले लगी। रोते-रोते बोली, “मेरा बेटा लौट आया।”

पिता कुछ नहीं बोले, बस पीठ थपथपाई। छोटी बहन ने दौड़कर गले लगाया और कहा, “भैया, तुम्हारे लिए मैंने अपनी गुल्लक तोड़ दी थी। तुम्हारे आने की खुशी में नई साइकिल खरीदूँगी।”

आरव की आँखों में आँसू आ गए।

अगले दिन से उसने खेत में काम शुरू किया। सुबह उठकर गायों को चारा डाला। माँ के साथ रसोई में रोटियाँ बनाईं। शाम को गाँव के बच्चों को पढ़ाने लगा। जो भी कमाई होती, उसका आधा गाँव के गरीब बच्चों की फीस में लगा देता।

धीरे-धीरे उसका चेहरा चमकने लगा। नींद गहरी आने लगी। रात को सिरहाने कोई खालीपन नहीं रहता था।

एक शाम वह नदी किनारे बैठा सूरज को डूबते देख रहा था। तभी उसे बाबा की बात याद आई। उसने मुस्कुरा कर आसमान की ओर देखा और धीरे से कहा, “मिल गया बाबा… सुख मिल गया। वो न शहर में था, न पैसों में, न रिया में। सुख तो घर में था। माँ की गोद में, पिता के चुप रहकर प्यार करने में, बहन की शरारतों में, इन खेतों की मिट्टी में।”

तभी उसकी बहन दौड़ती आई, “भैया! माँ ने खीर बनाई है! चलो!”

आरव हँसा और दौड़ पड़ा।

उस दिन के बाद से नंदगाँव में एक कहावत मशहूर हो गई –

“जो बाहर सुख ढूँढता फिरता है, वह कभी नहीं पाता।

जो भीतर देखता है, वही सुख का असली पता पाता है।”

और आरव? वह अब गाँव का सबसे खुश इंसान था। क्योंकि उसने सुख की खोज पूरी कर ली थी – घर लौटकर।

(कुल शब्द – १४९२)


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