सोच
सोच
जनवरी का महीना और दिल्ली की जानलेवा ठंड!!मुझे ठंड सहन नहीं होती सो स्वेटर, शाल, जुराब टोपी से लैस, यानी नख से सिर तक पैक हो मैं पहुँची।जनगणना का कार्य चल रहा था, वहाँ इन्टर कॅालेज के मास्टर जी की भी ड्यूटी थी, उम्र रही होगी कोई ५७ -५८ के आसपास।मतलब नाती पोते वाले।मैंने अभिवादन के लिए हाथ जोड़े।उन्होंने साथ में बैठे एक शिक्षक के साथ खुसुर -फुसुर की और फिर दोनों ने मेरी ओर व्यंग्यात्मक मुस्कान फेंकी।मैंने अनदेखा सा किया।पर थोड़ी देर बाद मास्टर साब खुद बोल पड़े-" मैडम जी एक बात बोलूँ , बुरा तो नहीं मानोगे?"
मैंने बोला -" कैसी बात करते हो मास्टर जी,आप तो पिता तुल्य हो।" तो बोलने लगे -"मैडम जी कपडे तो ढंग के पहन लेते।"
अब सकपकाने की बारी मेरी थी, पर मैं ठहरी बेवाक सो पूछ ही लिया कि मेरे पहनावे में कौन सा नुक्स है?!दरअसल मैंने चूड़ीदार पहन रखा था, अब मुझे प्रवक्ता के पिछड़ी सोच पर दया आ गयी।मैंने बोला " मास्टर जी कमी मेरे पहनावे की नहीं आपकी सोच की है, आपकी नजरों का है । इसलिए हमारी बेटियाँ घर के अंदर ही महफूज नहीं।" उन्हें काटो तो खून नहीं।इधर उधर बंगले झाँकने लगे।
सच,कभी कभी लगता है हम अपनी संस्कृति , सभ्यता और संस्कार की झूठी गाल बजाने से बाज नहीं आते !आखिर कब हम झूठे संस्कारों के आडम्बर को ओढना बंद करेंगे?! विदेशों में शायद ही कोई महिला पूरे कपड़ों में दिखे,लेकिन मजाल है कोई मनचला मनमानी कर जाए! हमारे यहाँ तो ढके तन को भी निगाहें तार तार कर देतीं।
दुनिया बहुत आगे निकल चुकी है मास्टर साब, औरतों के कपड़ों में झाँकती अपनी सोच को बाहर निकालिए !!