minni mishra

Abstract Classics Inspirational

3.9  

minni mishra

Abstract Classics Inspirational

संस्कृत

संस्कृत

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“पापा, आप दादाजी को क्यों नहीं समझाते ? जब कोई दोस्त मुझसे मिलने आता है, वो अपना पोथी-पतरा लेकर  सोफे पर पालथी मारकर बैठ जाते हैं, उस पर से घुटने तक की धोती...उफ़्फ़ ! मेरा दोस्त क्या सोचेगा , इसका ज़रा भी वो ख्याल नहीं रखते ! ” ऐसा कह कर राहुल अपने पैरों को सेंटर टेबल पर पसारते हुए सोफे में धँस गया।

मुझे समझ नहीं आ रहा था कि पहले बेटे को प्रश्न का जबाब दूँ, या उसके चप्पल की तल्ली से दिख रहे गंदगी को सामने से  हटाने का आदेश दूँ...!

इसी बीच दूसरे कमरे से ठक-ठक की आवाज आयी। हिलते परदे की बीच से टहलते हुए बाबूजी की नजर मुझसे टकराई, मैं साकांक्ष हो गया | तभी कॉलबेल की तेज आवाज 'ट्रींग..... 'से मेरे मन में चल रहे संवाद में अचानक से ब्रेक लग गया। मैंने दरवाजे से बाहर झाँककर देखा , एक व्यक्ति‌ सामने खड़ा था।

“रमेश झा का घर यही है ?” उसने पूछा।

“हाँ..,मैं ही हूँ...।”

“आपके पिता शिवाधर झा हैं ?”उसने फिर से पूछा।

“ जी,हाँ..| क्या बात है?”

“ उनसे कहिए,संस्कृत-विश्वविद्यालय से एक सज्जन मिलने आये हैं।” सड़क पर खड़ी सफेद कार की तरफ हाथ का इशारा करते हुए उसने कहा।

मैं अन्दर जाकर बाबूजी को जानकारी दी। बाबूजी मेरे साथ छड़ी की मूठ पर पकड़ बनाये हुए बाहर आये| कार में बैठा हुआ सूटेड-बूटेड आदमी, हम दोनों को देखते ही बाहर निकल कर बाबूजी के चरण स्पर्श किए। 

आगंतुक और बाबूजी के बीच सौहार्दता को राहुल सोफे पर बैठे-बैठे सब देख रहा था।उन दोनों के बीच वार्तालाप शुरू हो गई .... मैं बाबूजी के बगल में खड़ा सब सुन रहा था।

गुरूदेव , “आप तो बिल्कुल वैसे के वैसे ही हैं,वही खादी की धोती, लाल चंदन का टीका, दस सालों बाद भी कुछ नहीं बदला !”

“पहले यह बताओ,यहाँ कैसे आना हुआ ? अब तो तुम संस्कृत विश्वविद्यालय के रजिस्टार बन गये हो।” बाबूजी ने शिष्य को गले लगाते हुए कहा|

“गुरुदेव, सब आपका आशीर्वाद है। आप से एक विमर्श करने आया हूँ, हरिद्वार में एक महीने की संगोष्ठी होने वाली है और संस्कृत में संभाषण भी। आपकी सहमति मिले तो.. संगोष्ठी की अध्यक्षता के लिए  आपका ही नाम भेज देता हूँ ? संस्कृत में वार्तालाप करने वाला आपसे बढ़िया  दूसरा व्यक्ति मुझे कोई नजर नहीं आ रहा है ! संस्कृत में बोलने की बात तो दू..र लोग संस्कृत पढ़ना ही नहीं चाहते हैं!”

  " हाँ, तुम सही कह रहे हो,आज की शिक्षा मात्र अच्छे पैकेज पाने के मंसूबे तक सिमट कर रह गयी है ! आजकल के युवकों को संस्कृत के प्रति न समर्पण है न‌ ही श्रध्दा ! इसलिए तो हमारी संस्कृति का भी ह्रास हो रहा है।"  राहुल पर नजर पड़ते ही बाबूजी की आवाज लड़खड़ाने लगी। 

 मैंने देखा, राहुल अभी तक सेंटर टेबल पर पैर पसारे ही बैठा था।


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