Saroj Verma

Romance

4.5  

Saroj Verma

Romance

स्नेह...!!

स्नेह...!!

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अरी..ओ संयोगिता ...

  कहां मर गई, जरा इधर तो आ...

चारपाई पर स्वेटर बुनते सुनते बसंती ने संयोगिता को आवाज दी।।

आती हूं, मामी... संयोगिता ने रसोईघर से आवाज़ लगाई..

और संयोगिता भागी हुई सी रसोईघर से निकल कर बाहर आंगन में आई...

क्या बात है मामी? आपने मुझे क्यों पुकारा..?

संयोगिता ने डरते डरते मामी से पूछा!!

शाम को तेरे मामा जी के दोस्त का बेटा आ रहा है, जरा ठीक से और अच्छा सा कुछ बना लेना, फौज में है, हमलोगों से मिलने आ रहा है, बहुत सालों के बाद हमारे घर आ रहा है, जब छोटा तब मिली थी उससे और अगर पसंद आ गया तो मेरी चचेरी बहन शीला है ना तो उससे रिश्ते की बात चलवाती हूं, बसंती बोली।।

   ठीक है मामी.. लेकिन शाम के लिए कुछ सब्जी नहीं है, कुछ पैसे दे देती तो मैं बाज़ार से कुछ सब्जियां खरीद लाती, संयोगिता बोली।।

    ठीक है, जा चली जा, हां फिर सूरज ढलने वाला है और फिर तू जब तक लौटेगी, शाम हो ही जाएगी और देख लियो कल सुबह और शाम के लिए कुछ अच्छी सी सब्जियां ले लेना, बसंती बोली।।

   ठीक है मामी... इतना कहकर संयोगिता ने दुपट्टा डाला और थैला लेकर निकल पड़ी बाजार की ओर।।

  संयोगिता अठारह साल की एक अनाथ लड़की है, देखने में बहुत ही खूबसूरत, गोरा रंग, भूरी आंखें, भरा-पूरा बदन, कमर तक के भूरे बाल, मां बाप नहीं है बेचारी के तो अपने मामा-मामी के घर रहती है, बस हमेशा ऐसे ही घर के कामों में लगी रहती है, मां बाप थे जब तक तो स्कूल भी जाती थी लेकिन मां बाप के जाने के बाद पढ़ाई भी छूट गई, जैसे तैसे तो मामा मामी घर में रखने के लिए तैयार हुए और मामी बसंती दिन भर ऐसे ही खटिया पर बैठे बैठे संयोगिता को आदेश देती रहती है, सर्दियों के दिन है और कभी ये भी नहीं कहती कि संयोगिता तू भी दो घड़ी के लिए आंगन में आकर धूप सेंक लें।।

       संयोगिता ना हो तो बसंती के घर में मक्खियां भिनभिनाती रहें, उसने घर के कच्चे आंगन को गोबर से लीप कर सुंदर बना रखा है, किनारे में कुछ गुलाब के पौधे भी लगा रखे हैं, कुछ मिर्ची और टमाटर के पौधे भी लगा रखे हैं, आंगन के बीच में एक तुलसी चौरा है जिसमें शाम सुबह हर रोज दिया जलाती है।।

    बसंती के अपने कोई औलाद नहीं है फिर भी वो संयोगिता की कदर नहीं करती और संयोगिता भी सब सुन लेती है उसे ये लगता है कि दुनिया में मामा मामी के अलावा और कोई भी तो उसका नहीं है।

 संयोगिता बाजार पहुंचीं, उसने कुछ ताजी सब्जियां खरीदी जैसे कि गोभी, गाजर, मटर वगैरह कुछ हरा साग भी खरीदा और घर की ओर निकल पड़ी, थैला कुछ ज्यादा ही भारी हो गया था, अब उसकी चाल थोड़ी धीमी पड़ गई।।

    तभी उसने कुछ महसूस किया कि एक लड़का उसका पीछा कर रहा है, उसने अपनी रफ़्तार थोड़ी बढ़ा दी लेकिन थैले के ज्यादा भार की वजह से वो तेज चाल में नहीं चल पा रही थी।।

    उसने रूक कर एक बार पीछे मुड़कर उस लड़के की ओर गुस्से से देखा तो वो लड़का भी रूक गया और संयोगिता की ओर देखकर मुस्कुरा दिया, संयोगिता ने गुस्से से अपना पैर पटका और आगे की ओर निकल पड़ी।

    घर के दरवाज़े पर पहुंची ही थी कि वो लड़का भी घर की ओर आ रहा था, संयोगिता दरवाजे को खोलकर भीतर गई और उसको देखकर उसके मुंह पर ही दरवाजा बंद कर दिया।।

    वो थैला लेकर तुलसी चौरे तक पहुंची ही थी कि किसी ने दरवाजा खटखटाया, संयोगिता ने दरवाज़ा की दस्तक को अनसुना कर दिया और रसोई की ओर बढ़ गई।।

    तभी बसंती ने जाकर दरवाजा खोला__

और दरवाजा खोलते ही बोल पड़ी ___

अरे..राजदेव तुम..!! कैसे हो बेटा? आओ अंदर आओ..आओ ना.!!

राजदेव ने बसंती के पैर छुए और भीतर प्रवेश किया...

   बसंती ने फौरन संयोगिता को आवाज दी__

अरे, ओ संयोगिता जरा पतीले पानी गर्म होने तो चढ़ा दें, राजदेव आया है, हाथ पैर धुलेगा, ठंड बहुत है...

  जी, मामी चढ़ाती हूं, संयोगिता ने रसोईघर से जवाब दिया।।

और सुन जल्दी से पालक और प्याज के पकोड़े बना और हां चाय भी चढ़ा देना, बसंती बोली..

ठीक है मामी ... और कुछ, संयोगिता ने पूछा।।

नहीं, अभी इतना कर लें और जरा मुझे टमाटर, हरी धनिया मिर्च दे दे, मैं सिलबट्टे पर चटनी पीस देती हूं, तभी तो पकौड़ियां खाने का मजा आएगा, तेरे मामा भी आ रहे होंगे, बसंती बोली।।

     थोड़ी देर में संयोगिता ने स्नानघर में पानी गर्म करके रख दिया और मामी को आवाज दी...

मामी पानी रख दिया है, मेहमान से कहो कि हाथ-पैर धुल ले..

ठीक है.. बसंती बोली।।

तब तक संयोगिता के मामा केशवलाल भी आ गए, उन्होंने भी हाथ पैर धुले, तब तक संयोगिता ने चाय, गरमागरम प्याज और पालक के पकौड़े, टमाटर की चटनी के साथ परोस दिए, सबने बातें करते हुए मूंगफलियां भी खाई।।

   फिर एक दो घंटे के अंदर ही संयोगिता ने रात का खाना भी तैयार कर दिया, टमाटर-आलू की तरी वाली सब्जी, आंवले की चटनी, भरवां मिर्च का अचार और मैथी के गरमागरम परांठे।।

     सब खाने बैठे और संयोगिता परोस रही थीं, देवराज बोला....चाची! खाना तो बहुत ही स्वादिष्ट है,

     और संयोगिता नीचे की ओर सर झुकाकर मंद मंद मुस्कुरा दी,

तभी केशव बोल पड़ा, हां..हमारी संयोगिता बहुत अच्छा खाना बनाती है।।

  दूसरे दिन संयोगिता को सुबह जागने में थोड़ी देर क्या हो गई, बसंती ने संयोगिता की अच्छे से खबर लेनी शुरू कर दी, ये सब देवराज ने भी देखा और संयोगिता रोते हुए रसोईघर में चली गई।।

उसने जल्दी-जल्दी सारे काम निपटा कर नाश्ता भी तैयार कर दिया और बसंती से बोली, मामी नाश्ता तैयार है आप सब खा लीजिए।

बसंती बोली, ठीक है.. ठीक है, आज तो देर कर दी तूने लेकिन कल ये सब नहीं होना चाहिए।।

 तभी केशवलाल बोल पड़े, अरी... भाग्यवान हमेशा क्यों बिटिया के पीछे पड़ी रहती हो, दिन भर तो लगी रहती है बेचारी, एक दिन देर हो भी गई जागने में तो कौन सा आसमान टूट पड़ा।।

    हां... हां...बिगाड़ो, मुझे क्या, पराए घर जाएंगी तो तुम वहां भी पैरवी करने चले जाना।।

नहीं .. मैं तो सिर्फ इतना कह रहा हूं कि छोटी सी जान..सारा दिन घर सम्भालती है, कभी-कभार कोई गलती हो भी गई तो नजरअंदाज कर दिया करो..केशव लाल बोले..

हां... हां ठीक है, लो पहले नाश्ता कर लो , बसंती बोली।।

जब तक संयोगिता सबके लिए आलू के परांठे, रायता, चटनी ले आई और साथ में गाजर का हलवा, सबने नाश्ता किया।।

      फिर आंगन में संयोगिता बर्तन मांजने बैठी, उसने वही आंगन में लगे हैंडपंप से दो बाल्टी पानी भरा और अपना काम करने लगी।।

  वहीं चारपाई पर राजदेव धूप में बैठा अखबार बांच रहा था, अखबार तो एक बहाना था वो तो चुपके-चुपके नज़र बचाकर संयोगिता को देख रहा था।।

    एकाएक संयोगिता ने बर्तन मांजते समय ध्यान दिया कि राजदेव अखबार की आड़ में उसे ही निहार रहा है, उसने जल्दी-जल्दी अपना काम ख़त्म किया और अंदर चली गई।।

           संयोगिता को राजदेव का ऐसे निहारना अच्छा नहीं लगा, लेकिन वो कुछ कहती भी तो किससे, वो जानती थी कि उसको अपना समझने वाला कोई नहीं है, सुबह से लेकर सिर्फ काम में लगी रहती, ना पढ़ाई ना लिखाई, पता नहीं उसकी जिंदगी कौन सा मोड़ लेने वाली थी।

     उसके लिए तो सालों से कुछ भी नया नहीं था, वहीं रोज का काम, सुबह से शाम तक और मामी की झिड़की, बस यही बचा था उसके जीवन में, सुख के दिन तो जैसे कभी देखें ही नहीं थे बेचारी ने, यही सोचते सोचते कब उसकी आंख लग गई, उसे पता ही नहीं चला।।

   शाम होने को आई थी, सर्दियों के दिन थे, दिन भी जल्दी ढलता है, बसंती को शाम की चाय की तलब लगी, उसने फिर संयोगिता को पुकारा...ओ संयोगिता शाम की चाय नसीब होगी या नहीं, महारानी कब तक ऐसे ही सोती रहेगी, अब तो सूर्य नारायण भी विदा हो गए, कुछ लाज शरम है कि नहीं...

     मामी की आवाज सुनकर, संयोगिता चटपटा कर उठी, रजाई से बाहर आने का मन ना होने पर भी उसने जल्दी से आंगन में आकर बसंती से कहा..अभी बनाती हूं मामी चाय, वो जरा आंख लग गई थी।।

   और सुन चाय के साथ कुछ नाश्ता भी बना लेना, मैंने हरे मटर छील कर रखे हैं, जरा उन्हें तल लेना, बसंती बोली।।

 ठीक है, मामी और इतना कहकर संयोगिता रसोई में चली गई।।

राजदेव भी दो दिन से ये सब देख रहा था, उसे ये सब अच्छा नहीं लगा, संयोगिता के प्रति बसंती चाची का जो व्यवहार है वो बहुत ही पीड़ादायक है, इतनी भली लड़की है और उसकी इस घर में ये इज्जत है।।

     शाम की चाय के बाद बसंती पड़ोस में किसी से मिलने चली गई, संयोगिता रसोई में रात के खाने की तैयारी कर रही थी तभी एकाएक राजदेव रसोई घर में पानी मांगने के बहाने जा पहुंचा, रसोई में अचानक से राजदेव के आने से संयोगिता तनिक हड़बड़ा सी गई, राजदेव बोला, आप घबराइए नहीं, मुझे तो बस पीने के लिए पानी चाहिए था, अगर आपको कोई परेशानी ना हो तो___

      संयोगिता बोली, ऐसी कोई बात नहीं है, आप अचानक से आ गए इसलिए मैं जरा चौंक गई, अभी पानी देती हूं, संयोगिता ने लोटे में रखा कुनकुना पानी गिलास में डालकर राजदेव को दे दिया।

      राजदेव ने पानी पिया और बोला, क्या मैं थोड़ी देर आपसे बात कर सकता हूं अगर आपको कोई एतराज़ ना हो।।

 जी कहिए, भला मुझे क्या ऐतराज़ हो सकता है, संयोगिता बोली।।

अच्छा!! आपसे एक बात पूछूं, राजदेव ने सवाल किया।।

हां पूछिए, संयोगिता बोली।।

बसंती चाची आपके साथ ऐसा व्यवहार करतीं हैं, आप कैसे इतना कुछ सह लेती है, मुझे तो उनका बर्ताव बहुत बुरा लगा, राजदेव ने थोड़ा सकुचाते हुए कहा।।

     ऐसी कोई बात नहीं है, वो मेरी मामी हैं और मेरी मां समान है, आपको उन्हें कुछ भी कहने का कोई हक़ नहीं है, संयोगिता गुस्से से बोली।।

   इसी बीच बसंती घर में दाखिल हुई, किवाड़ भी पहले से ही खुले हुए थे, उसने राजदेव और संयोगिता को रसोईघर में आपस में बातें करते हुए देख लिया, फिर क्या था? इतनी खरी खोटी सुनाई संयोगिता को___

  बसंती बोली, मेरे सामने तो बहुत सती-सावित्री बनने का नाटक करती है और पीठ पीछे ये गुल खिलाए जा रहे हैं, बस यही दिन देखना बाकी रह गया था।‌

    राजदेव बोला, चाची !! आप ग़लत समझ रही हैं, ऐसा कुछ भी नहीं है, मैं तो बस पानी पीने आया था।।

लेकिन बसंती कुछ भी सुनने को तैयार नहीं थीं, उसे तो बस अपनी आंखों देखे पर ही भरोसा था।।

    तब तक केशव लाल भी आ गए लेकिन बसंती तो जैसे आज चुप रहने का नाम नहीं ले रही थी, उसे लग रहा था कि इस लड़के को तो उसने अपनी चचेरी बहन के लिए पसंद किया था अगर ऐसा ना हो सका तो मायके वालों को क्या जवाब देंगी।।

       संयोगिता ने तब तक खाना तैयार कर लिया था, उसने बसंती से कहा मामी पहले सब लोग खाना खा लो और जो बुरा भला सुनाना है, बाद में मुझे सुना देना।

    केशव लाल भी बोले, अरी भाग्यवान पराए घर का लड़का हमारे घर में आकर रूका, ये सब मत कर शोभा नहीं देता लेकिन बसंती कहां मानने वाली थी, अब ये सब राजदेव से ना देखा गया और वो अपना समान उठाकर जाने लगा, केशव लाल ने बहुत रोकने की कोशिश की __बेटा!! ऐसे रूठकर मत जाओ, खाना बन चुका है, दो निवाले खाकर जाते, वहां दोस्त के सामने मेरी क्या इज्जत रह जाएगी।।

     राजदेव ने दोनों हाथ जोड़कर केशवलाल से माफी मांगी, बसंती और केशवलाल के चरण स्पर्श किए और एक झलक संयोगिता की ओर देखकर घर से उसी समय निकल गया।।

   केशव लाल ने बसंती से कहा, ये तुमने अच्छा नहीं किया, बच्चे का बहुत दिल दुखाया है तुमने, बिना सोचे-समझे कुछ भी मत बोला करो।।

   हां.. हां.. मैंने ही तो दुनिया -जहान का ठेका ले रखा है दिल ना दुखाने का, मैं ही तो सबसे बुरी हूं, बसंती बोली।।

 इतना सब होने के बाद उस रात किसी ने भी खाना नहीं खाया और उधर संयोगिता ने भी रो रोकर अपना हाल बेहाल कर लिया था, बस अपनी किस्मत को कोसे जा रही थी कि आखिर वो पैदा ही क्यों हुई आज उसकी वजह से एक भले इंसान की इतनी बेइज्जती हो गई, उसे तो जीने का हक़ नहीं है।।

   और यही सोचते सोचते संयोगिता की आंख लग गई।।

दूसरे दिन सब वैसे ही अन्य दिनों की तरह ही चल रहा था तभी सुबह-सुबह दरवाजे पर दस्तक हुई, केशव लाल ने दरवाजा खोला और देखते है कि उनके मित्र सदाशिव लाल खड़े है, केशव लाल ने उनसे तुरंत हाथ जोड़कर माफी मांगी, कल रात को जो उनके बेटे के साथ बसंती ने बर्ताव किया था।

      सदाशिव लाल मुस्कुरा कर बोले, कोई बात नहीं मित्र!! मुझे राजदेव ने सब बता दिया है , मैं तो यहां रिश्ते की बात करने आया था, मैं चाहता हूं कि संयोगिता और राजदेव की शादी हो जाए।

   केशव लाल मुस्कुरा कर बोले, ये तो बहुत अच्छी बात है कि आपने हमारी संयोगिता को अपने घर के काबिल समझा और राजदेव हमारी संयोगिता से ब्याह करने को तैयार है, एक अनाथ लड़की को एक अच्छा ससुराल मिल जाए और मुझे क्या चाहिए।।

    इतने में बसंती भी बाहर आ गई और तुनक कर बोली, ये शादी इस घर से नहीं होगी चाहें जो करो और मैं एक भी फूटी कौड़ी इस शादी में नहीं खर्च करने दूंगी।।

   सदाशिव घबरा कर बोले, ये कैसी बातें कर रही है भाभी जी, संयोगिता भी तो आपकी बेटी के समान है, ऐसी बेटी बड़े भाग्य से मिलती हैं, लक्ष्मी का रूप है संयोगिता, कृपया ऐसी बातें ना करें उसके बारे में।।

     केशव लाल बोले, अरी .. भाग्यवान, कुछ तो भगवान से डर, ऊपर जाकर क्या मुंह दिखाएगी, पाप पुण्य भी तो कुछ होता है तू तो अपने अहम में लगता है सब कुछ भूल गई।।

   रहने दो जी!! ये पाप पुण्य का अंतर मुझको मत समझाओ, मैंने एक बार जो कह दिया तो कह दिया....

    और बसंती के आगे केशव लाल की एक भी ना चल सकी।।

             बसंती के मना करने पर केशव लाल और सदाशिव लाल ने आपस में कुछ सलाह-मशवरा किया कि ये शादी तो होगी लेकिन अब ये शादी मंदिर से होगी।।

    लेकिन संयोगिता इस ब्याह के लिए तैयार नहीं थीं, वो मामी का दिल दुखाकर इस प्रकार ब्याह नहीं करना चाहती थी, उसने सदाशिव लाल जी से हाथ जोड़कर विनती की__

  क्षमा करें, चाचाजी लेकिन मैं इस ब्याह के लिए तैयार नहीं हूं, इस तरह तो कभी नहीं, जहां बड़ों का दिल दुखे, वो जैसी भी हैं मेरी मामी हैं, इतने साल से वो मुझे अपने साथ रख रही हैं और मैं उनकी कृतज्ञ होने के बजाय स्वार्थी हो जाऊं, जिस दिन मामी इस ब्याह के लिए राजी हो जाएगी, उस दिन मैं यह ब्याह कर लूंगी।।

    सदाशिव जी बोले, बहुत ही भाग्यशाली थी तुम्हारी मां, जो ऐसी बेटी को जन्म दिया, तेरी जैसी बेटी, भगवान सबको दे, तू हमेशा खुश रहे, तू जो चाहे तुझे मिलें, जब से राजदेव की मां छोड़कर गई है, घर की तो जैसे रौनक ही चली गई है, मुझे लगा था कि तेरे आने से मेरे घर के सूने आंगन में फिर से चहल-पहल हो जाएगी, ख़ैर कोई बात नहीं , जैसी तेरी मरजी, बस राजदेव को समझाने में थोड़ी मुश्किल होगी, लेकिन कोई बात नहीं! मैं समझा लूंगा, वैसे मेरा राजदेव बहुत समझदार है।।

     और सदाशिव लाल हाथ जोड़कर केशवलाल से नमस्ते करके दुखी मन से चले गए।।

     इधर संयोगिता भी उलझन में थीं, उसे समझ नहीं आ रहा था कि उसने ठीक किया या ग़लत, मन के भीतर अन्तर्द्वन्द चल रहा था,

       आखिर !उस भले इंसान का क्या दोष है, मेरी वजह से आज फिर दूसरी बार उसका अपमान हो गया, ब्याह ही तो करना चाहता था वो मुझसे, आखिर मैं करती भी क्या? उस समय मुझे जैसा उचित लगा सो मैंने किया और फिर दो दिन की पहचान से कोई शादी के लिए" हां" थोड़े ही कर देता है, मैं उससे प्यार भी तो नहीं करती, पसंद भी नहीं करती।।

     बसंती भी एक तरफ मुंह फुलाकर बैठी थी, संयोगिता ने नाश्ता बनाया और परोसकर मामा-मामी के पास ले जाकर बोली__

  मामी!! छोड़ो भी..कब तक ऐसे गुस्सा होकर बैठी रहोगी, लो नाश्ता कर लो और हां ये कभी मत सोचना कि मैं तुम्हारी खुशी के खिलाफ जाकर कुछ भी करूंगी, शादी तो बहुत दूर की बात है, इतना कहकर संयोगिता रसोई में चली गई।।

     संयोगिता की बात सुनकर केशव लाल की आंखें नम हो गई, उन्होंने मन में सोचा कितनी भली बिटिया है, कितनी मासूम और दिल की साफ और एक ये बसंती है जो कभी भी इसका मन नहीं बांच पाई, कितनी निष्ठुर और कितनी निर्मोही हैं।

     फिर केशव लाल बसंती से बोले_अरी!! भाग्यवान नाश्ता कर लें, कितनी भली लड़की है, तेरी मर्जी के खिलाफ कोई भी काम नहीं करती, अब तो थोड़ा समझ लें इसे, थोड़ी ममता बरसा दे इस पर, अब तो थोड़ा प्यार दे दें, अब तो आशीष भरा हाथ रख दें इस पर, एक बार तो कह दे कि ..खुश रहो।।

       तभी बसंती बोल पड़ी__ अजी!!अब रहने भी दो ये ज्ञान की बातें, तुम्हारा उपदेश खत्म हो गया हो तो नाश्ता कर लूं।।

    केशव लाल बोले, तुझे समझाना तो पत्थर पर सर फोड़ने के बराबर है तू कभी नहीं समझेगी, चाहे तेरे लिए कोई जान भी दे दे।।

    उधर सदाशिव लाल ने घर पहुंच कर सारी बात, राजदेव से कह दी, राजदेव बोला कोई बात नहीं बाबूजी, मैं संयोगिता से ब्याह तभी करूंगा, जब तक वो हां नहीं करेंगी, इससे पहले मुझे उसका दिल जीतना होगा, उसे भरोसा दिलाना होगा कि मैं जीवन भर उसका साथ निभा सकता हूं।।

      संयोगिता की जिंदगी रोज़मर्रा की तरह फिर से पटरी पर चल पड़ी थी, सुबह-शाम का वही काम और फिर शाम को बाजार जाकर सब्जियां लाना फिर खाना पकाना लेकिन उस रोज़ वो सब्जी लेने पहुंची तो क्या देखती है राजदेव उसका इंतज़ार करता हुआ बाजार में खड़ा है, संयोगिता ने राजदेव को देखा तो जरा सी घबरा गई , सर नीचे की ओर झुकाकर बगल से निकली जा रही थी तभी राजदेव ने आवाज दी...

     संयोगिता जी, मुझे आपसे कुछ जरूरी बात करनी है !! संयोगिता बोली, लेकिन मुझे आपसे कोई बात नहीं करनी, ऐसा कहकर संयोगिता तेज कदमों के साथ जाने लगी, फिर भी राजदेव संयोगिता के पीछे पीछे आने लगा।

    संयोगिता को बहुत गुस्सा आया, उसने राजदेव से कहा__

आप ऐसा क्यों कर रहे हैं? इतना सबकुछ तो हो चुका है और क्या बचा है, क्यो? मेरा पीछा कर रहे हैं, आपको पता है कि मैं आपको पसंद ही नहीं करती फिर भी...

    इतना सुनना था कि राजदेव थोड़ा देर के लिए सहम सा गया और फिर कुछ सोचकर बोला, अच्छा तो ये बात है आप मुझे पसंद ही नहीं करतीं, माफ कीजिए..! आज के बाद मैं कभी भी आपके पीछे नहीं आऊंगा, ये बात मुझे पता ही नहीं थी, मुझे लगा था कि मेरी तरह आप भी मुझे पसंद करतीं हैं और राजदेव मायूस होकर चला गया।

   संयोगिता ने इतना सब राजदेव से कह तो दिया था लेकिन अब उसे बहुत अफ़सोस हो रहा था कि गुस्से मैं इतना भला बुरा नहीं बोलना चाहिए था, कितना बुरा लगा होगा बेचारे को।।

    संयोगिता घर आई और रसोई में जाकर चूल्हा जलाकर उस पर दाल चढ़ा दी, फिर पता नहीं क्यों उसका जी भर आया और अपना सर घुटनों पर झुकाकर फूट फूट कर रो पड़ी, इतने में उसे बाहर केशवलाल की आवाज सुनाई दी, उसने सोचा लगता है मामा जी आ गए और फ़ौरन अपने आंसू पोछ कर अपने काम में लग गई।।

      केशव लाल जी रसोई में आए और संयोगिता से आकर बोले, देवराज मिला था__

  मैंने पूछा, कुछ काम था बेटा, किस लिए आए थे।।

बोला, संयोगिता से कुछ सवालों के जवाब चाहिए थे जो मिल गए, अब मैं कभी भी यहां नहीं आऊंगा।।

फिर मैंने पूछा, ऐसा क्या हो गया बेटा!!

तो बोला, जब संयोगिता मुझे पसंद ही नहीं करती तो फिर कोई सवाल ही नहीं रह जाता, उत्तर पाने के लिए, मैं तो इस आशा से आया था कि जिस तरह मैं उसे पसन्द करता हूं शायद वो भी मुझे पसंद करतीं हैं, लेकिन मुझे आज अपने सवाल का जवाब मिल गया।

   संयोगिता बोली, मामा जी इस विषय में मुझे कोई भी बात नहीं करनी, जो हो नहीं सकता तो क्यों हम उसके पीछे पड़े।।

     केशव लाल जी बोले, जैसी तेरी मरजी बेटा!! लेकिन कोई फैसला लेने से पहले एक बार जरूर सोच लेना, इतना स्नेह रखने वाला बड़ी मुश्किल से मिलता है, इतना कहकर केशव लाल जी रसोई से बाहर आ गए।।

    उधर राजदेव हताश सा अपने घर पहुंचा, उसके चेहरे पर निराशा के भाव साफ़ साफ़ नज़र आ रहें थे, तभी सदाशिव लाल अपने बेटे की चिंता की वजह भांपकर बोले, मना कर दिया ना उसने, मुझे पता था वो ऐसा ही करेंगी, बहुत ही भली लड़की है बेटा , पहले वो सबके बारे में सोचती है फिर अपने बारे में, उसके चेहरे पर जो तेज़ है, वो साफ साफ बयां करता है लेकिन तू हिम्मत मत हार, एक कोशिश और करके देख, तेरे पास यहां रहने के लिए इतना समय भी नहीं है तेरी छुट्टी खत्म होते ही तू फिर ड्यूटी पर चला जाएगा, इससे पहले तू उसे मना लें और मैं तेरी उससे सगाई करवा सकूं।।

   इतना सुनकर राजदेव के चेहरे पर मुस्कराहट लौट आई और खुश होकर बोला...सच!!बाबू जी।।

                 अपने बाबूजी की बात सुनकर राजदेव को ये आशा हो गई थी कि आज ना सही लेकिन एक ना एक दिन संयोगिता इस ब्याह के लिए तैयार हो ही जाएगी और राजदेव इसी उम्मीद में एकाध दिन में संगीता से मिलने की कोशिश करने लगा लेकिन संयोगिता है कि राजदेव की ओर देखती भी ना थीं।।

     ऐसे ही हफ्ते भर बीते थे कि राजदेव ने संयोगिता को फिर बाजार में देखा, संयोगिता बहुत ही जल्दबाजी में थीं, बहुत घबराई हुई थी, राजदेव को देखकर बोली चलिए मेरे साथ जल्दी घर चलिए अच्छा हुआ आप मिल गए, मैं तो डाक्टर साहब को बुलाने आई थी।।

    राजदेव ने घबराकर पूछा _लेकिन किसलिए, क्या हुआ?

मामी छत से उतरते हुए सीढ़ियों से गिर पड़ी है, उन्हें अभी तक होश नहीं आया है इसलिए बस आप इसी वक्त घर चलिए।।

   राजदेव और संयोगिता, डाक्टर के साथ घर की ओर चल पड़े, डाक्टर ने बसंती का मुआयना किया, बसंती को होश तो आ गया था लेकिन उसके सर में बहुत गहरी चोट लगी थी, उसे अब महसूस हो चुका था कि वो अब बचने वाली नहीं है, सारा मुहल्ला इकट्ठा हो चुका था, केशव लाल भी पहुंच चुके थे।।

      उस समय बसंती की आंखों में पाश्चाताप के आंसू थे, उसने संयोगिता और राजदेव को इशारे से अपने पास बुलाकर, एक-दूसरे के हाथों को मिलाते हुए, आंखों के ही इशारों से माफ़ी मांगी और बिना कुछ बोले ही प्राण त्याग दिए।।

    संयोगिता फूट फूट कर रो पड़ी___

केशव लाल जी बोले, चलो अपने अंतिम समय में ही एक भलाई का काम तो करके गई बसंती, शायद भगवान को यही मंजूर था, भगवान उसकी आत्मा को शांति दे और ऐसा कहते हुए, केशव लाल जी के आंखों से दो बूंद आंसू टपक पड़े।।

       बसंती के अंतिम संस्कार के दिन सदाशिव लाल जी भी आए, उन्होंने संयोगिता और केशव लाल जी को ढांढस बंधाया कि भगवान के आगे किसकी चलती है शायद ऊपरवाले को यही मंजूर था।।

अब तक बसंती की तेरहवीं भी हो चुकी थी।।

    एक दिन केशवलाल जी ने सदाशिव लाल जी और राजदेव को खाने पर बुलाया और बोले आज आप लोगों को खाने पर बुलाने का कारण था चूंकि राजदेव की छुट्टियां अब ज्यादा शेष नहीं रह गई हैं तो मैं चाहता हूं कि राजदेव और संयोगिता की सगाई कर दी जाए और फिर बसंती की भी यही इच्छा थी।

     सदाशिव लाल जी बोले, आपने मेरे मुंह की बात छीन ली, मैं भी आपसे यही कहना चाहता था लेकिन संकोचवश कह नहीं पाया क्योंकि भाभी को गए हुए अभी महीने भर भी नहीं हुए, ऐसे में ऐसी बातें कहना मुझे उचित नहीं लगा।।

     केशव लाल जी बोले, मैं कुछ दिन के लिए टाल तो देता लेकिन फिर राजदेव की छुट्टियां भी खत्म होने वाली है और फिर अगली छुट्टी मिलने तक काफी देर हो जाएगी और फिर बसंती की भी यही आखिरी इच्छा थी कि दोनों एक हो जाएं।।

     सदाशिव लाल जी बोले तो फिर ठीक है परसों ही हम इन दोनों की सगाई कर देते हैं और शादी तब करेंगे जब अगली बार राजदेव छुट्टियों में घर आएगा।।

    केशव लाल जी बोले, बहुत बढ़िया मित्र, तो ठीक है परसों सगाई का दिन पक्का हो गया, अब बस सिर्फ कल का ही दिन शेष बचा है, आप लोग ऐसा करें, आज और कल मेरे घर भी रूक जाए, कल आप अपने शहर जाएंगे फिर परसों वापस आएंगे तो बहुत समय बर्बाद होगा।

     सदाशिव लाल जी बोले बहुत अच्छा मित्र, जैसी आपकी इच्छा, हमें क्या परेशानी हो सकती है भला!!

     दूसरे दिन सारा समय खरीदारी और तैयारियों में ही निकल गया, शाम को सब बहुत थक चुके थे, संयोगिता ने जल्दी से शाम की चाय बनाई फिर रात के खाने की तैयारी करने लगी।।

    केशव लाल जी बोले, संयोगिता बेटा!!तू भी तो बहुत थक गई होगी, मैं कुछ मदद करूं तेरी!!

    नहीं, मामा जी मैं सब कर लूंगी, बस आप थोड़ी सब्जियां काटने में मदद कर दीजिए, संयोगिता बोली।।

    केशव लाल जी बोले, संयोगिता बिटिया, आज ऐसा करते हैं यहीं आंगन में कच्चा चूल्हा जलाकर, थोड़े बैंगन, कुछ आलू-टमाटर भूनकर भरता बनाते हैं और सर्दियों का मौसम है तो चूल्हे की सिकी रोटी पर ढेर सारा घी डालकर खाने में बहुत मजा आएगा।।

    सब बोले, बिल्कुल ठीक है और ऐसा ही हुआ, आंगन में चूल्हा जलाया गया और संयोगिता अपना काम करने में लग गई।

   चूल्हे से उठ रही आग की सुनहरी लपटों की रोशनी में संयोगिता की खूबसूरती और भी निखर कर आ रही थी, वो कभी अपने गालों पर आ रही लटों को सम्भालती तो कभी आंखों में लग रहे धुएं की जलन से आंखें अपने दुपट्टे से पोछतीं।।

    और राजदेव तो बस संयोगिता को निहारने में लगा था, वो आज बहुत खुश था कि कल संयोगिता के साथ मेरी सगाई हो जाएगी लेकिन अभी तक उसे संयोगिता के दिल की बात पता नहीं चली थी और वो संयोगिता के मन की बात जानना चाह रहा था।।

      रात का खाना खाने के बाद केशव लाल और सदाशिव लाल जी दिन भर के थके थे तो जल्द ही सो गए, संयोगिता बर्तन धोने के लिए हैंडपंप से पानी भरने जा ही रही थी कि राजदेव ने कहा आप छोड़िए, मैं बाल्टी भर देता हूं..!

   संयोगिता बोली, छी...छी..आप काम मत कीजिए, आप मेहमान है..!!

    मेहमान तो आप हैं, हमारे दिल की, पता नहीं हमारे दिल में कब रहने आएगीं?रा जदेव ने संयोगिता को छेड़ते हुए मुस्कुरा कर कहा__

   संयोगिता बस शरमाकर रह गई, कुछ बोल नहीं पाई।।

राजदेव, संयोगिता की खामोशी देखकर बोला, कहिए ना !! आप मुझे पसंद तो करतीं हैं।।

    संयोगिता ने शरमाते हुए, अपनी पलकें झुका लीं।।

राजदेव ने फिर पूछा, इसका मतलब मुझे समझ नहीं आया, हां समझूं या ना।।

    राजदेव ने कहा, कोई बात नहीं, जो भी आपकी मर्जी है वो आप सुबह तक एक चिट्ठी में मुझे लिखकर दे सकतीं हैं और इतना कहकर राजदेव सोने चला गया।।

     सुबह होते ही संयोगिता ने राजदेव को एक चिट्ठी दी जिसमें उसने हां में अपना जवाब दिया था।।

   राजदेव के मन से अब सारी शंकाएं दूर हो गई थीं।।

राजदेव और संयोगिता की सगाई भी हो चुकी थी और राजदेव की छुट्टियां भी खत्म हो चुकीं थीं अब राजदेव को वापस जाना था।।

       बहुत ही दुःखी मन से संयोगिता ने राजदेव को विदा किया, राजदेव के जाने के बाद संयोगिता और राजदेव एक दूसरे को चिट्ठी लिखकर अपने अपने मन का हाल बताने लगे।।

    ऐसे ही समय बीतता गया और राजदेव के दोबारा घर आने का समय हो गया, राजदेव के वापस आने की खबर से संयोगिता बहुत खुश हुई, राजदेव जिस दिन घर आया उसी रोज संयोगिता से मिलने आ पहुंचा।।

  और दो चार दिन के अंदर ही दोनों का ब्याह भी हो गया, दोनों अपनी घर-गृहस्थी में बहुत खुश थे, किस तरह राजदेव की छुट्टियां बीत गई दोनों को पता ही नहीं चला।।

      राजदेव फिर वापस चला गया, इधर संयोगिता उसके आने का फिर से बेसब्री से इंतजार करने लगी।।

   लेकिन होनी को कुछ और ही मंज़ूर था, बाढ़ पीड़ितों के बचाव कार्य में राजदेव की ड्यूटी लगी थी, उसने अपनी हिम्मत और सूझबूझ से बहुत से लोगों की जान बचाई लेकिन एक दिन पानी का बहाव इतना ज्यादा था कि एक बच्चे को बचाते हुए राजदेव खुद को ना सम्भाल सका और डूब गया, दो दिन के बाद बड़ी मुश्किल से उसका मृत शरीर मिला।‌

     संयोगिता पर तो जैसे दुखों का पहाड़ ही टूट पड़ा, वो खुद को सम्भालती या अपने बूढ़े ससुर को दिलासा देती उसकी हिम्मत तो जैसे टूट ही चुकी थी, बस चंद लम्हों की ही खुशियां लिखी थी भगवान ने उसके नसीब में।।

    जैसे तैसे राजदेव का अंतिम संस्कार किया गया, केशव लाल जी और सदाशिव लाल, हरिद्वार गए राजदेव की अस्थियों का विसर्जन करने ।।

     लेकिन कहते हैं ना जब दुखों का पहाड़ टूटता है तो एक साथ टूटता है, लौटते समय उनकी रेलगाड़ी दुर्घटना ग्रस्त हो गई, संयोगिता को ये खबर पता चली।।

   वो बदहवास से अपने मामा और ससुर जी को ढूंढने गई, पूरे दिन पागलों की तरह लगी रही तब जाकर उसे अपने मामा का मृत शरीर मिला और दूसरे दिन ससुर जी का।।

    अब तो संयोगिता के आगे कोई भी रास्ता नहीं रह गया था, किसे अपना कहती, कोई तो नहीं बचा था उसे अपना कहने वाला, उसे अब समझ नहीं आ रहा था कि अब वो क्या करें, कोई भी रास्ता नहीं सूझ रहा था, एक ही पल में उसकी दुनिया उजड़ गई थी, वो अपने दिमाग का संतुलन खो बैठी थी और इसी असमंजस में उसने नदी में छलांग लगा दी....!!

        संयोगिता, बेहोश होकर बेसुध सी नदी किनारे पड़ी हुई थी, तभी एक बच्चा अपने दोस्त शेरू के साथ वहां जा पहुंचा।।

     शेरू, संयोगिता को देखकर भौंकने लगा, बच्चे को थोड़ा समय लगा ये समझने में कि शेरू भौंक क्यो रहा है, उसने शेरू की रस्सी छोड़ दी, बच्चे ने जैसे ही शेरू की रस्सी अपने हाथ से छोड़ी, शेरू भागकर संयोगिता के पास जा पहुंचा।

    शेरू के पीछे-पीछे वो बच्चा भी संयोगिता के पास जा पहुंचा, तभी बच्चा संयोगिता को देखते ही बोला___

    देख!!शेरू लगता है, मेरी मां वापस आ गई, बाबा कह भी रहे कि मां इतवार तक आ जाएगी और आज इतवार ही तो है, शेरू तू ऐसा कर वापस घर जाकर बाबा को ले आ, तब हम मां को घर ले जा सकते हैं, शेरू भागकर घर गया और बच्चे के पिता को ले आया।।

       बच्चे के पिता संयोगिता को देखकर बोले, ना जाने कौन हैं बेचारी!! यहां कैसे पहुंची, जिंदा हैं भी या नहीं, उन्होंने फिर संयोगिता की नब्ज टटोली, संयोगिता की सांसें अब तक चल रहीं थीं, उन्होंने संयोगिता को गोद में उठाया और बच्चे से बोले पहले इन्हें वैद्ध जी के पास ले जाना होगा, इनकी तबियत खराब है, मुन्ना!!

     तुम भी मेरे साथ साथ वैद्य जी के यहां चलो।।

लेकिन बाबा ये मेरी मां ही है ना, आपने कहा था ना कि मां इतवार को आएगी और आज इतवार ही है, मुन्ना बस अपनी बात बोले ही जा रहा था।।

    है ना!बाबा, ये मेरी मां ही है ना!!

बेटे की ऐसी बातें सुनकर, शिवनन्दन सिंह कुछ नहीं सोच पा रहें थे कि बच्चे को क्या जवाब दें, , झूठा दिलासा देना भी ठीक नहीं है, नन्ही सी जान, पहले से ही अपनी मां के आने की झूठी आश में बैठा रहता है और अगर ये कह दिया कि ये तुम्हारी मां ही है और अगर ये  लड़की अपने घर चली गई तो बच्चे का दिल टूट जाएगा।।

     उन्होंने मुन्ना से कहा, बेटा ये बीमार है, पहले इनका इलाज करवाते हैं और जब ये होश में आ जाएगी तो खुद-ब-खुद अपने मुन्ना को पहचान लेगी, इसलिए पहले इन्हें ठीक होने दो।।

      शिवनन्दन सिंह , वैद्य के पास पहुंचे और बोले__

वैद्य जी जल्दी से इस लड़की का इलाज कीजिए, अभी सांसें चल रहीं हैं इसकी, जिंदा है...!!

     वैद्य जी बोले, प्रधान जी!!कौन है लड़की?

इतना बताने का समय नहीं है, पहले आप इसकी जान बचाइए, इसके होश में आने पर पता ही चल जाएगा कि ये कौन हैं?

शिवनन्दन सिंह बोले।।

    वैद्य जी ने फ़ौरन अपनी पत्नी को आवाज लगाई__

अरी भाग्यवान!!सुनती हो, जल्दी इधर आओ, कुछ कपड़े लेकर, बिटिया के गीले कपड़े बदल दो, जल्द ही इलाज शुरू करना है।

     वैद्य जी की पत्नी ने फ़ौरन ही संयोगिता के कपड़े बदले और हथेलियों और तलवे में गरम तेल मलना शुरू किया, फिर वैध जी ने भी इलाज करना शुरू किया।।

  उधर मुन्ना बार बार अपने पिता से बस पूछे ही जा रहा था___

बाबा! मां कब ठीक होगी, मुझे पहचान तो लेगी ना मां...

   और प्रधान शिवनन्दन सिंह कुछ सोच नहीं पा रहे थे कि क्या जवाब दें, मुन्ना को, कैसे झूठा दिलासा दे कि हां तेरी मां तुझे पहचान लेंगी और फिर ये भी तो कहते नहीं बनता कि ये तेरी मां ही नहीं है, बहुत बड़ी दुविधा में थे शिवनन्दन सिंह।।

    थोड़ी देर के इलाज के बाद संयोगिता को होश आ गया, वैध जी ने फ़ौरन शिवनन्दन सिंह को पुकारा___

   अरे ठाकुर साहब, सुनिए!! बिटिया को होश आ गया है__

इतना सुनते ही मुन्ना भीतर की ओर भागा और पीछे पीछे शिवनन्दन भी गए__

    मुन्ना, फ़ौरन जा कर संयोगिता से 'मां' कहकर लिपट गया, संयोगिता को कुछ भी समझ नहीं आया लेकिन मुन्ना के इस तरह से गले लगने से उसके मन में मुन्ना के लिए ममता जाग गई, उसने भी कह दिया हां बेटा।।

    देखा बाबा, आपने देखा ना !!मां ने मुझे पहचान लिया और आज इतवार भी तो है और आपने कहा भी था ना कि मां इतवार को आएगी, मुन्ना खुश होकर बोला।।

    ठीक है मुन्ना!! लेकिन अपनी मां से भी तो एक बार पूछ लो कि वो तुम्हारी मां है कि नहीं, वैध जी बोले।।

   हां... हां..क्यों नहीं , अभी पूछता हूं, मुन्ना बोला।।

क्यों मां तुम ही मेरी मां हो ना!! मुन्ना बेसब्री से जवाब का इंतजार कर रहा था।।

     हां, बेटा !! मैं ही तेरी मां हूं, संयोगिता बोली।।

नन्हे से बच्चे का मन रखने के लिए संयोगिता को ऐसा बोलना ही पड़ा।।

     देखा, वैध जी! ये ही मेरी मां है, अभी कहा ना उन्होंने, मुन्ना फिर से चहक पड़ा।।

    चलिए ना बाबा, मां को जल्दी से घर ले चलते हैं, मैं मां से बहुत सारी बातें करना चाहता हूं, अपना घर दिखाना चाहता हूं, मुन्ना को देखकर ऐसा लग रहा था कि जैसे उसे कोई खोया हुआ खजाना मिल गया हो और वो जल्द से जल्द अपने घर की तिजोरी में कैद करना चाहता हो ताकि मां रूपी अनमोल खजाना उससे फिर से ना कोई छीन सकें।।

    अब शिवनन्दन जी बोले, एक मिनट रूको मुन्ना! तुम बाहर शेरू के साथ मेरा इंतजार करो, मैं तुम्हारी मां को लेकर आता हूं।।

    ठीक है बाबा, मैं बाहर हूं, आप मां को लेकर जल्दी आना, मुन्ना ऐसा कहकर बाहर चला गया।।

   अब शिवनन्दन सिंह ने संयोगिता से पूछा__

आपका नाम क्या है?

जी, मेरा नाम संयोगिता हैं? संयोगिता बोली।।

आप यहां कैसे पहुंची? शिवनन्दन ने फिर पूछा।।

जी, मैं जीना नहीं चाहती थी, मेरा इस दुनिया में कोई नहीं है, मैं अनाथ और बेसहारा हूं, जीवन में इतना दुःख सहा है कि जीने की इच्छा ही मर गई है इसलिए खुद को खत्म करना चाहती थीं लेकिन आप लोगों ने बचा लिया, इस बच्चे को देखा तो मेरा मन पिघल गया, मुझसे ये नहीं कहा गया कि मैं तुम्हारी मां नहीं हूं।।

     चलिए, कोई बात नहीं लेकिन अब आप कहां जाएंगी, शिवनन्दन ने पूछा।।

   जहां ये किस्मत ले जाए, संयोगिता बोली।।

अगर, आपको एतराज़ ना हो तो आप मेरे घर चल सकतीं, वहां आपको कोई भी असुविधा नहीं होगी और मुन्ना भी आपके आने से खुश हो जाएगा, शिवनन्दन जी संयोगिता से बोले।।

     तभी वैध जी की पत्नी बोलीं, क्या सोच रही हो बिटिया!! चली जाओ, वो बच्चा कैसे अपनी मां के लिए दिन-रात तड़पता है, हम सबने देखा है उसे तड़पते हुए, आज तुम्हें देखकर कितना खुश था, हमने पहली बार उसको इतना खुश देखा है और प्रधान जी भी देवता स्वरूप है, रोज ना जाने कितने लोगों का भला करते हैं, कोई परेशानी नहीं होगी, बिटिया तुम्हें।।

     अब संयोगिता थोड़ी उलझन में थीं।।

लेकिन फिर से बाहर से मुन्ना ने आवाज लगाई__

क्या हुआ बाबा? जल्दी आइए ना !मां को लेकर__

   अब संयोगिता खुद को ना रोक सकी और मुन्ना के साथ उसके घर चल पड़ी।।

     मुन्ना, आज बहुत खुश था, जो भी रास्ते में मिलता उससे कहते हुए जाता कि देखो ये मेरी मां है, मैंने कहा था ना कि एक ना एक दिन मेरी मां जरूर आएगी।

      और रास्ते भर संयोगिता के साथ बक बक करते हुए गया, मां आज का खाना तुम बनाना, पता है महाराजिन एक भी अच्छा खाना नहीं बनाती, दाल में घी ही नहीं डालती और दूध में पानी मिलाकर देती है, अब तुम आ गई हो ना तो रोज अच्छा अच्छा खाना बनाकर मुझे खिलाना और उन लोगों को भी डांटना जिन्होंने मुझे बहुत परेशान किया है।।

     अब तो सबकी खैर नहीं, है ना शेरू__

और सब घर पहुंचे....

        संयोगिता, मुन्ना के साथ घर पहुंची और घर देखकर उसका मन प्रसन्नता से भर गया, वह हमेशा से ऐसा ही घर चाहती थी।।

        घर के सामने इतना बड़ा बाड़ा, बाड़े के एक तरफ एक गाय और उसका बछड़ा एक छप्पर के नीचे बंधे थे और कुछ मुर्गे-मुर्गियां और चूज़े बाड़े में टहल रहे थे, बगल में एक नीम का पेड़ और एक कुआं भी था, बस कमी थी तो कुछ फुलवारी की लेकिन फिर भी संयोगिता खुश थी।

      आओ.. मां..आओ ना!! मुन्ना ने संयोगिता से कहा।।

संयोगिता जैसे ही घर के दरवाज़े के पास आई, तभी बर्तन धोने वाली कहारिन बाहर निकल पड़ी और संयोगिता को गौर से देखकर बोली__

    छोटे प्रधान जी, ये किसे ले आए?

पता है रधिया काकी, ये मेरी मां है, आज ही तो मिली हैं, नदी के किनारे पड़ी थी बेचारी, मैंने जल्दी से बाबा को बुलवाया, मैं और बाबा वैध जी के पास लेकर गए, अब ठीक हो गई तो मैं इन्हें घर ले आया, अच्छी है ना मेरी मां!!

    बोलो ना रधिया काकी, अच्छी है ना मेरी मां!!

रधिया का कोई उत्तर ना पाकर मुन्ना ने फिर पूछा__

  हां... हां... छोटे प्रधान तुम्हारी मां बहुत सुंदर है, रधिया बोली।।

रधिया जाते हुए बोली, मैंने बर्तन मांज दिए हैं और सफाई भी कर दी है, कल सुबह आऊंगी।।

    मुन्ना बोला, ठीक है।।

मुन्ना, संयोगिता को अंदर ले जाकर बोला, मां , इस कमरे में मैं और तुम रहेंगे और वो वाला कमरा बाबा का है, वो वहां पर अपना कागजी काम करते हैं, पता है मां बाबा हारमोनियम भी बजाते हैं और मैं भी उनके साथ गाना गाता हूं।।

       और यहां रसोईघर हैं, आज के बाद तुम ही मेरे लिए खाना पकाओगी और अपने हाथों से खिलाओगी भी, ये रहा आंगन और साथ में स्नानघर भी है, घर के पीछे भी काफी जगह , जहां मैं खेलता हूं।।

    संयोगिता, मुन्ना के मुंह से इतनी सारी बातें सुनकर भाव-विभोर हो गई और प्यार से गले लगाते हुए बोली, बस करो मेरे मुन्ने, मैंने सब सुन लिया, ज्यादा मत बोलो नहीं तो नज़र लग जाएगी मेरी!!

    शाम हो आई थीं, थोड़ा अंधेरा भी होने लगा था, प्रधान जी शिवनन्दन सिंह जी ने देखा कि बाड़े में सारे मुर्गे-मुर्गियां टहल रहे हैं, उन्होंने सारे मुर्गे-मुर्गियो को पकड़ कर उनके कोटर में पहुंचा दिया फिर शेरू से भी कहा चलो अपने घर में जाओ और कुएं से दो बाल्टी पानी खींचकर गाय के पास रखा फिर जैसे ही गाय की सानी  बनाने जा रहे थे तभी दीनू आ पहुंचा और उसने प्रधान जी को आवाज दी__

    अरे, मालिक ये क्या कर रहे हैं, माफ कीजिए आने में थोड़ी देर हो गई, खेतों में आज काम कुछ ज्यादा था और मैं दोपहर में रधिया से बोलकर गया था कि शाम को अगर मुझे देर हो जाए तो जानवरों को सम्भाल लेना और दाना-पानी भी डाल देना लेकिन रधिया भी पता नहीं किस धुन में रहतीं हैं, हमेशा कामचोरी करती है।।

     कोई बात नहीं, दीनू काका, अपना ही तो घर है और अपने घर का काम करने में कैसा हर्ज ? शिवनन्दन सिंह ने दीनू काका से कहा।।

   मालिक!वो तो आपका बड़प्पन है, आप जैसे देवता पुरुष ही ऐसी बातें कर सकते हैं, दीनू बोला।।

    और दीनू अपने काम में लग गया।।

अंदर से ये सब बातें संयोगिता ने सुनी और शिवनन्दन जी का दयालु रूप देखकर अंदर ही अंदर उनकी कृतज्ञ हो गई।।

     अंधेरा हो चला, शिवनन्दन जी ने सब जगह दिए जला दिए तभी दीनू बोला, मालिक लगता है आज भी महाराजिन खाना बनाने नहीं आएंगी, इसका तो रोज रोज का है, इसे आप निकाल क्यो नही देते, जब देखो तब ज्यादा खाना बना लेती है और बांधकर भी ले जाती है और खाना भी इतना बेढंगा बनाती है, बिन मां के बच्चे पर भी रहम नहीं है।।

     अब मैं भी क्या करूं, उसे निकाल भी नहीं सकता, हमारे घर की बहुत पुरानी महाराजिन हैं, अब बूढ़ी भी तो हो चली है इसलिए ज्यादा काम भी नहीं कर पातीं, शिवनन्दन जी बोले।।

    बूढ़ी तो है, लेकिन मालिक मुंह कितना चलाती है, एक रोटी भी ज्यादा मांग लो तो खिसिया उठती है, दीनू गुस्से से बोला।।

   शिवनन्दन जी बोले, लगता है दीनू काका, अब महाराजिन नहीं आएंगी, मैं ही रसोई सम्भालता हूं, ऐसा ना हो मुन्ना भूखा ही सो जाएं और वो मेहमान भी तो भूखी होगी।।

     कौन मेहमान, घर में कोई आया है, आपने मुझे बताया नहीं, आपकी कोई रिश्तेदार आईं हैं, दीनू ने हैरत से पूछा।।

   नहीं!दीनू काका ऐसी कोई बात नहीं है, आज नदी के किनारे बेहोशी की हालत में मुन्ना को एक लड़की मिली और वो उसे अपनी मां समझ बैठा और उसे वो घर ले आया, अब नन्हे से बच्चे का दिल मैं नहीं दुखा सका, मना भी नहीं कर सका।।

    दीनू बोला, कुछ पता किया उसके बारें में कि ऐसे ही किसी अनजान को घर में घुसा लिया।।

    पूछा था उससे मैंने, अनाथ है बेचारी, शिवनन्दन सिंह बोले।।

उसने कहा और आपने मान भी लिया, मालिक! आजकल की दुनिया में किसी पर भी भरोसा नहीं किया जा सकता, दीनू बोला।।

    अब क्या करूं , बच्चे की ज़िद के आगे मेरी नहीं चली और मुझे लड़की भी भली लगी, शायद वो सच बोल रही थी, शिवनन्दन सिंह बोले।।

       ठीक है, मालिक आप जैसा ठीक समझें, दीनू बोला।।

अच्छा, दीनू काका, ये बातें हम बाद में करते हैं, बोलिए क्या खाएंगे आज, मैं ही लगता हूं रसोई में, शिवनन्दन सिंह बोले।।

     मालिक आप जो भी प्यार से पकाएंगे, मैं खा लूंगा, आपने काम दिया, अपने घर में आसरा दिया, बेटे बहु ने तो घर से निकाल दिया था, आप ना होते तो ना जाने मेरा क्या होता? दीनू बोला।।

     अच्छा चलो, अब रसोई में जाकर देखता हूं कि क्या क्या सब्जी हैं और ऐसा कहकर शिवनन्दन सिंह रसोई की ओर चल पड़े।।

      तभी मुन्ना बोला, बाबा आपको रसोई में जाने की जरूरत नहीं है, मैंने और मां ने सुना कि आप बाहर दीनू काका से कह रहे थे कि आज महाराजिन नहीं आएंगी इसलिए, मां ने पहले ही चूल्हा बालकर बटलोई में दाल चढ़ा दी हैं और घर में सिर्फ़ बैंगन पड़े थे तो मां बोली कि बैंगन का भरता बना देंगी, इतना ठीक है ना कि और कुछ।।

     शिवनन्दन जी बोले, तेरी मां को कष्ट होगा, मैं ही खाना बना देता हूं!!

   तभी संयोगिता आकर बोली, तकलीफ़ किस बात की, वैसे भी मुझे खाना बनाना बहुत पसंद हैं, मैं सब कर लूंगी, आप जब तक मुन्ना के साथ खेलिए।।

     तभी मुन्ना बाहर दीनू काका के पास जाकर बोला__

पता है काका! आज का खाना मेरी मां बना रही है, अब मैं मां के पास जाता हूं, क्या पता उन्हें किसी चीज़ की ज़रूरत पड़ जाए, इतना कहकर मुन्ना अंदर चला गया।।

     मुन्ना को पहली बार इतना खुश देखकर, दीनू काका को बहुत अच्छा लगा।।

    थोड़ी देर के बाद संयोगिता ने खाना तैयार कर लिया, लहसुन के तड़के वाली अरहर की दाल, बैंगन का भरता, प्याज का सलाद और गरमागरम चूल्हे की रोटियां ढ़ेर सारे घी के साथ।।

      संयोगिता ने मुन्ना को आवाज दी__

बेटा , अपने बाबा और दीनू काका से बोलो कि खाना तैयार है।।

     शिवनन्दन जी ने सुना तो मुन्ना से बोले, देख तेरी मां खाने के लिए बुला रही है, पहले मैं दीनू काका की थाली लगवा कर दे आता हूं, दिनभर से काम कर रहे हैं, बेचारे भूखे हों गए होंगे।।

          शिवनन्दन सिंह सकुचाते से रसोई में पहुंचे, देखा तो तीन थालियां लगी हुई थी___

      उन्होंनेे संयोगिता से कहा माफ कीजिए, तकलीफ़ हुई आपको!!

      संयोगिता बोली, तकलीफ़ किस बात की, मुझे रसोई के काम करना अच्छा लगता है और फिर बच्चा भूखा ही सो जाता तो ना आपको अच्छा लगता और ना मुझे।।

       शिवनन्दन जी बोले, ठीक कहा आपने।।

मैं एक थाली दीनू काका को देकर आता हूं और दीनू काका को थाली देकर शिवनन्दन खुद खाने बैठे साथ में मुन्ना भी।।

     बाहर से दीनू काका की आवाज आई__

खाना बहुत अच्छा बना है, बिटिया!!

    शिवनन्दन सिंह ने दीनू काका की आवाज सुनी तो बोले__

खाना वाकई में बहुत अच्छा बना है।।

     मुन्ना बोला, खाना क्यो अच्छा नहीं होगा, मेरी मां ने जो बनाया है।।

   सब खुश होकर खाना खा रहे थे तभी दीनू काका बोले__

बिटिया दाल और मिलेगी__

और संयोगिता बाहर दीनू काका को और दाल परोसने गई साथ में पूछा भी कि रोटी भी चाहिए।।

    दीनू काका बोले, बिटिया अब पूछ ही रही हो तो दो रोटी लेते आना, जीती रहो बिटिया!! तुम्हारे हाथों में अन्नपूर्णा का वास है, आत्मा तृप्त हो गई आज का खाना खाकर।

     और उस दिन इसी तरह सारा दिन ब्यतीत हो गया...

       

               सुबह हुई___

संयोगिता को तो आदत थी जल्दी उठने की, ऊपर से मुर्गे ने भी बांग दे दीं, संयोगिता की आंख तो खुल गई थी लेकिन अभी भी वो बिस्तर पर लेटी हुई थी, पराए घर में कौन सा काम कब होता है इसका उसे पता भी तो नहीं था, इसलिए खुद से काम भी शुरू नहीं कर सकती थी।।

    जैसे ही उसने करवट लेनी चाही, उसने देखा कि मुन्ना ने उसका पल्लू अपने हाथ में बांध रखा था, मुन्ना का अपने प्रति प्यार देखकर उसका मन ममता से भर उठा और उसने उसके माथे को चूम लिया और फिर मुन्ना का सिर सहलाने लगी।।

      मुन्ना नींद में बड़बड़ाते हुए बोला__

अब तुम मुझे छोड़कर कहीं मत जाना, हमेशा मेरे पास रहना, बोलो मां अब छोड़कर तो नहीं जाओगी!!

     संयोगिता ने मुन्ना को प्यार से गले लगाते हुए कहा, नहीं जाऊंगी, मेरे मुन्ने !! कभी नहीं जाऊंगी।।

     तभी उसे बाड़े में से कुछ शोर सुना, शायद दीनू काका जाग गए थे और कुएं से पानी निकाल रहे थे, उन्होंने सारे जानवरों को दाना पानी डाला, गाय का गोबर उठाया, गौशाला की सफाई की, गाय का दूध दौहकर, बछड़े को मां के पास खड़ा कर दिया फिर कुंए से पानी निकाल कर स्नान किया फिर उन्होंने आवाज दी__

  मालिक!! मंदिर होकर आता हूं।।

ठीक है दीनू काका! शिवनन्दन सिंह बोले।।

  शिवनन्दन सिंह जल्दी से उठे और चूल्हा बालकर, दूध चढ़ाया , दूध गर्म होने के बाद उन्होंने चूल्हे पर कढ़ाई चढ़ाई और उसमें आटे का हलवा बनाने लगे।।

    तब तक रधिया भी आ पहुंची थी और उसने सारे घर में झाड़ू लगाई फिर बर्तन मांजने बैठी।।

   तभी संयोगिता भी उठकर आई और शिवनन्दन से बोली___

बोली, ये आप क्या कर रहे हैं?

    हलवा बना रहा हूं, दीनू काका मंदिर से आ ही रहे होंगे फिर खेतों में निकल जाएंगे और अभी तक महाराजिन भी नहीं आई है तो मैं उन्हें ऐसे खाली पेट कैसे जाने दे सकता हूं, शिवनन्दन बोले।।

         तो आपने मुझसे कह दिया होता, संयोगिता बोली।।

कोई बात नहीं, हलवा बस बन ही गया है, आप जाकर स्नान करके नाश्ता कर लीजिए, शिवनन्दन सिंह बोले।

    जी, ठीक है, संयोगिता बोली।।

और सुनिए, ये लीजिए संदूक की चाबी!! शिवनन्दन बोले।।

किस संदूक की चाबी? संयोगिता ने पूछा।।

अरे, मुन्ना की मां की साड़ियां और गहने सब उसी संदूक में हैं, जो भी साड़ी आपको चाहिए, निकाल लीजिए और हां इस संदूक की चाबी अब आप अपने पास ही रखिए, शिवनन्दन बोले।।

    और संयोगिता ने संदूक की चाबी ले ली फिर एक साड़ी खुद के लिए निकाल कर स्नान करने चली गई।।

       स्नान करने के बाद उसने सूर्य देवता को जल चढ़ाया फिर घर के मंदिर में दिया जलाकर आरती की फिर सबको प्रसाद बांटा।।

     रधिया ये सब देखकर बोली__

मालिक आज घर में रौनक लग रही है, घरनी से ही तो घर होता है, बिना औरत के घर में रौनक नहीं रहतीं।।

      संयोगिता फिर सिलबट्टे पर चने की दाल पीसने बैठी जो उसने रात को भिगोकर रखी थीं।।

    तभी रधिया बोली, नाही बिटिया, तुम इ सब ना करो, ये काम हमारा है, हम करें देते है, वैसे इसका क्या बनाओगी बिटिया?

     मुन्ना बोल रहा था कि उसे चने के दाल के परांठे बहुत पसंद हैं, सोच रही थी कि उसके लिए बना दूं, संयोगिता बोली।।

     अच्छी बात है बिटिया!! मुन्ना को पहली बार इतना खुश देख रहे हैं, रधिया बोली।।

    तब तक मुन्ना भी जाग चुका था।।

संयोगिता बोली, जाओ बेटा जल्दी से स्नान कर लो आज तुम्हारी पसंद का नाश्ता बना है।।

    अच्छा मां, बस थोड़ी देर में आया और मुन्ना तैयार होने चला गया।।

  संयोगिता ने जल्दी से पीसे चने का मसाला तैयार किया और परांठे बनाने शुरू कर दिए तभी दीनू काका भी मंदिर से लौट आए।।

    दीनू काका, आज मंदिर में बहुत देर लगा दी, शिवनन्दन सिंह ने पूछा।।

     हां, मालिक आज पंडित जी चौपाइयां सुनाने लग गए तो मन किया कि पूरा सुनकर ही जाऊं इसलिए देर हो गई,

   और हां आते समय ये दो पके हुए कैथ दे दिए किसी ने, बोला चटनी बना लेना, दीनू काका बोले।।

    रधिया बोली, ये भी खूब रही लाओ इधर कैथ मुझे दो, मैं बनाएं देती हूं चटनी, इसकी चटनी चने के दाल परांठे के साथ अच्छी लगेगी, बिटिया ने छाछ में तड़का लगा दिया है और मालिक ने हलवा बना दिया, आज तो नाश्ते का मजा ही आ जाएगा।।

      इतना कहकर रधिया ने दोनों कैथ(wood apple) फोड़े, आठ-दस लहसुन की कलियां छीली, तीन चार लाल मिर्च, थोड़ी साबुत धनिया और खड़े नमक के साथ अच्छी सी तीखी और खट्टी चटनी बना दी।।

    तब तक मुन्ना और शिवनन्दन भी स्नान करके आ चुके थे।

इधर संयोगिता गरम गरम परांठे सेंक रहीं थीं और उधर सब आनंद उठा रहे थे।।

  बस सब खा ही चुके थे और संयोगिता ने अपने परोसने के लिए थाली उठाई ही थी कि__:

    तभी इतने में बूढ़ी महाराजिन सुखमती आ पहुंची।।

अंदर आते ही सबको खाते हुए देखकर बोली___

   ये क्या मालिक? दूसरी महाराजिन रख ली और इतना कहकर दनदनाते हुए अंदर पहुंची।।

     कौन है री तू? और तेरी इतनी हिम्मत कि मेरी गैरहाजिरी में तू मीठी-मीठी बातें करके इस घर में घुस गई, तूने क्या समझा , सीधे सादे मालिक को बेवकूफ बना लेगी, तू मुझे जानती नहीं, तेरा जीना मुश्किल कर दूंगी, मेरा काम छीनेगी, मेरे पेट पर लात मारेगी, करमजली! जहां से आई है वहीं लौट जा, नहीं तो मुझसे बुरा और कोई नहीं होगा।।

     संयोगिता ने इतना सुना तो सकपका गई और बस उसकी आंखों से झर झर आंसू बहने लगे।।

     मुन्ना ने इतना सुना और गुस्से से बोल पड़ा__

ओ सुखमती दादी, ये मेरी मां है और तुम इनसे ऐसे बात नहीं कर सकती, तुम तो मुझे दूध में पानी मिलाकर देती थी और सारा दूध खुद पी जाती थी और मेरी दाल में घी भी नहीं डालती थी।।

      रधिया बोली, सुखमती काकी तुम्हारी उम्र का लिहाज़ कर रहे हैं नहीं तो ये जो तुम्हारी काली जुबान है और काला दिल है ना, तुम्हारे विनाश का वही कारण है।।

     तभी सुखमती गुस्से से रधिया से बोली___

मैं तेरे जैसी नहीं हूं, रधिया, कि पति मर गया तो देवर से ब्याह रचा लिया, तुझे कोई लिहाज है कि नहीं।।

      तभी दीनू काका बोल पड़े___

अरी! सुखमती , काहे लोगों की खुशियों में नजर लगा रही हैं, अगर कोई किसी के मिल जाने से खुश हैं तो तुझे क्यो परेशानी हो रही है, सबकी अपनी-अपनी जिंदगी है, सब को अपने हिसाब से रहने दें।‌

      कैसी बातें कर रहे हो ?दीनू!!

कोई मेरे पेट पर लात मारे, कोई मेरी नौकरी छीने और मैं कुछ ना कहूं, सुखमती गुस्से से चीख पड़ी।।

     तभी दीनू काका फिर से बोले __

इस बिटिया ने कोई तेरा काम नहीं छीना हैं, ये इस बच्चे को बेहोशी की हालत में मिली थी, ये मासूम इसे अपनी मां समझ बैठा।।

    ये भली चलाई, किसी भी अंजान को ठाकुर साहब अपने घर में बीवी बनाकर ले आए और गांव वालों को पता ही नहीं, सुखमती इतराकर हाथ मटकाते हुए बोली।।

        अब शिवनन्दन सिंह से ना रहा, संयोगिता पर घटिया इल्जाम लगते ही बोल पड़े___

     काकी, अभी तक मैं सब बर्दाश्त कर रहा था लेकिन तुम अब किसी पर बेवजह लांछन लगाओगी तो बर्दाश्त नहीं कर पाऊंगा, अभी, इसी समय निकल जाओ, मेरे घर से और आज के बाद अपनी मनहूस शक्ल मत दिखाना, तुम्हारा जितना भी पैसा बनता है, तुम्हारे घर पहुंचा दिया जाएगा।।

       सुखमती काकी बोली__

हां.. हां..जाती हूं..जाती हूं, धौंस किसको दिखा रहे हो, प्रधान जी!!सारे गांव को तुम्हारी करतूतें बताऊंगी कि पता नहीं किस औरत को तुमने अपने घर में रख रखा है।।

    तभी मुन्ना बोल पड़ा__

वो मेरी मां है!! मेरी मां के बारे में कुछ मत कहो, दादी।।

   बड़ा आया, मां वाला।। ना जाने, किसे उठा कर ले आया है, अभी गांव वालों को बताती हूं और इतना कहकर सुखमती वहां से चली गई।।

     इधर संयोगिता की आंखों से आंसू रूक नहीं रहें थे, वो सोच रही थी कि कैसी फूटी किस्मत लेकर पैदा हुई है।।

    उसने नाश्ता भी नहीं किया और कमरे में जाकर फूट फूटकर रो पड़ी।।

    तभी रधिया, शिवनन्दन सिंह से बोली__

  मालिक, मुन्ना के हाथों खाना भेजिए तो बिटिया खा लेंगी।।

शिवनन्दन ने थाली लगाकर मुन्ना के हाथों भिजवा दी और मुन्ना से बोले, जाओ मां को खाना खिला दो।।

      मुन्ना थाली लेकर पहुंचा और संयोगिता से बोला__

मां!! खाना खा लो।।

   संयोगिता बोली, भूख नहीं है।।

मुझे पता है मां! तुम्हें भूख तो है लेकिन तुम खाना नहीं चाहती, तुम्हें सुखमती दादी की बात का बुरा लगा है लेकिन पता है मां, वो बहुत बुरी है, वो तो सबको ऐसे ही कुछ भी बोलती रहती है।।

    लो मेरे हाथों से खाना खा लो।।

मुझे भूख नहीं है, संयोगिता ने फिर से कहा__

लेकिन इस बार मुन्ना ने निवाला संयोगिता के मुंह में डाल दिया

और बोला, चुपचाप खा लो, नहीं तो मैं रूठ जाऊंगा।।

और संयोगिता ने नाश्ता खाना शुरू कर दिया___

                     मुन्ने के हाथ से संयोगिता ने नाश्ता खा लिया, ये सब शिवनन्दन सिंह परदे के पीछे से देख रहें थे, मुन्ना का संयोगिता के प्रति इतना गहरा प्रेम देखकर शिवनन्दन सिंह की आंखें भर आईं और उन्होंने सोचा, ये तो इसकी सगी मां भी नहीं है फिर भी इन दोनों के बीच अटूट प्रेम है, काश ये मां-बेटे एक-दूसरे से कभी अलग ना हो।

     लेकिन ये कैसे हो सकता है, संयोगिता को तो कभी ना कभी इस घर से जाना पड़ेगा, ये तो हमारे घर की सदस्य भी नहीं है, पता नहीं कौन है? और अगर कभी कोई इसको ढूंढते हुए यहां आ गया तो संयोगिता को तो वापस जाना ही पड़ेगा, फिर मुन्ने का क्या होगा? वो बेचारा तो मां के लिए पहले से ही तरस रहा है और अगर संयोगिता भी चली गई तो बेचारे का ना जाने क्या हाल होगा।।

       लेकिन अभी तो दोनों एक-दूसरे को पाकर खुश हैं, बाद में बाद का देखा जाएगा, शिवनन्दन सिंह खुद को दिलासा देकर बाहर आ गए।।

      तभी मीठी दौड़ते हुए आई___

मुन्ना.. मुन्ना... कहां हो तुम?

   देखो, मैं अपनी नानी के घर से वापस आ गई।।

मुन्ना भी मीठी की आवाज सुनकर बाहर आकर बोला__

   तुम आ गई मीठी!!

चलो, मेरे साथ अंदर चलो, तुम्हें कुछ दिखाता हूं।।

क्या हुआ, मुन्ना ऐसा क्या दिखाना चाहते हो मुझे।।

मीठी ने पूछा__

    बस, तुम अपनी आंखें बंद कर लो।।

मुन्ना बोला__

    अच्छा, बाबा!!लो कर ली आंखें बंद, मीठी बोली।।

मुन्ना, मीठी को संयोगिता के पास ले जाकर बोला__

   मीठी, अब आंखें खोलो।।

मीठी ने जैसे ही आंखें खोलीं, संयोगिता को सामने देखकर हैरानी से पूछा__

   मुन्ना!!ये कौन हैं?

पहचानो तो भला, ये कौन हैं?

मुन्ना बोला__

   नहीं, पहचाना मुन्ना, अब बताओ भी कि ये कौन हैं? मीठी बोली।

  अरे, पगली, ये मेरी मां है, पता है नदी के किनारे पड़ी थी बेचारी, फिर वैध जी ने इलाज किया और ठीक होने पर मैं इन्हें अपने घर ले आया, है ना सुंदर मेरी मां और खाना भी बहुत अच्छा बनाती है।।

      अच्छा, तो ये है तेरी मां।।

    सच, में बहुत सुंदर है, मीठी बोली।।

  फिर मीठी बोली, मैं अपनी मां को बताकर आती हूं कि मुन्ना की मां वापस आ गई है भगवान के घर से__

  और इतना कहकर मीठी वापस अपने घर चली गई__

तभी शिवनन्दन सिंह ने मुन्ना से कहा__

   बेटा, मीठी से क्यो कहा कि ये तुम्हारी मां है अब वह अपनी मां से बता देंगी और महाराजिन काकी का उसकी मां के साथ उठना बैठना है, पता नहीं क्या लगाई बुझाई करें, क्या क्या बोले, तेरी मां के बारे में।।

     मुन्ना बोला, महाराजिन दादी, सच में मेरी को बुरी कहेंगी।।

शिवनन्दन सिंह बोले, पता नहीं बेटा।।

    लेकिन सुखमती काकी हमसे गुस्सा होकर गई है इसलिए कुछ ठिकाना नहीं है।।

   मुन्ना बोला, लेकिन बाबा अब क्या करेंगे।।

चिंता मत करो, बेटा ।।जो होगा देखा जायगा, शिवनन्दन सिंह बोले।।

    मीठी अपने साथ अपनी मां को संयोगिता से मिलाने ले आई__

  देखो मां!!देखो...देखो..ये रही मुन्ना की मां, मुन्ना कह रहा था नदी के किनारे बेहोश पड़ी थी, मुन्ना ने वैध जी से उनका इलाज कराया फिर अपने घर ले आया।।

    मीठी अपनी मां सुमित्रा से सब एक ही सांस में कह गई।।

  अब सुमित्रा और मीठी, संयोगिता के सामने थे।।

    सुमित्रा बोली, सच में तुम मुन्ना की मां हो !!

  संयोगिता बोली, नहीं बहन!! मैं तो एक अनाथ, बेसहारा हूं, मेरे मां बाप तो बचपन में गुजर गए थे, मामा मामी ने सहारा दिया फिर शादी हुई, पति फौज में थे, वो शहीद हो गए और अब ना मामा मामी रहे और ना ससुराल में कोई है इसलिए नदी में कूदकर जान देना चाहती थी लेकिन मुझे क्या पता था कि मेरा भाग्य यहां मुझे मुन्ना से मिला देगा।।

    वर्षों से ममता के लिए तरस रहा है, अगर मैं उसको वो ममता दे सकूं तो इसमें क्या बुराई है, इतने कम समय में ही इससे इतना लगाव हो गया कि ऐसा लगता है कि ये मेरा सगा बेटा है।।

      अच्छा हुआ बहन, मैं बहुत खुश हूं, मुन्ना के लिए, अनाथ को मां मिल गई, इससे अच्छा और क्या हो सकता है, अभी मैं जाती हूं बाद में फुर्सत से बात करती हूं, अभी मां के घर से आई हूं तो बहुत सा काम पड़ा है और इतना कहकर सुमित्रा चली गई।।

     मुन्ना और मीठी आपस में खेलने लगे।।

   तभी गांव के दो चार बुजुर्ग लोग शिवनन्दन सिंह के घर पहुंचे और उनमें से एक ने आवाज लगाई__

     प्रधान जी..प्रधान जी...जरा बाहर तो आइए!!

 आवाज़ सुनकर शिवनन्दन सिंह ने बाहर आकर पूछा__

अरे!!आप लोग ।। कहिए क्या बात है?

   उनमें से एक ने कहा कि बात तो है लेकिन वो आप से सम्बंधित है, समझ नहीं आ रहा, कहां से शुरू करूं और कैसे कहूं, आप हमारे गांव के शरीफ़ इंसानों में गिने जाते हैं, आप से ऐसी उम्मीद नहीं थी ‌।।

   शिवनन्दन सिंह बोले, ऐसा क्या हुआ, मैंने ऐसी कौन-सी गलती कर दी जो आप लोग ऐसा कह रहे हैं।।

      उनमें से फिर एक ने कहा कि आपकी महाराजिन सुखमती ने गांव भर में ख़बर फैला दी हैं कि पता नहीं आपके घर कौन लड़की रह रही हैं और आप उसे मुन्ना की मां कह रहे हैं।।

     बिना ब्याह के किसी भी लड़की को अपने घर में रखना उचित नहीं है और आप जैसे सम्मानीय व्यक्ति को ये सब शोभा भी नहीं देता, हम सब गांव वाले तो आपसे कब से कह रहे थे कि आप मुन्ना के लिए दूसरा ब्याह कर लीजिए लेकिन आप राजी ही नहीं हुए, आप बोले की सौतेली मां ना जाने कैसा व्यवहार करें मुन्ना के साथ लेकिन अब इस लड़की का आपके घर में रहना सबको अखर रहा है और फिर सबके घरों में बहु-बेटियां है, आप ऐसा करेंगे तो समाज पर क्या असर पड़ेगा।।

     शिवनन्दन सिंह बोले, अच्छा तो आपकी ये समस्या है, मैं जल्द ही इसका कुछ समाधान करता हूं, आप लोग अभी निश्चिंत होकर जाइए।।

    आप लोग तब तक कुछ जलपान गृहण कीजिए, मैं अभी लेकर आता हूं।।

       लेकिन उनमें से एक ने कहा___

नहीं ठाकुर साहब, जब तक आपकी समस्या का समाधान नहीं हो जाता, हम आपके घर का जल भी गृहण नहीं कर सकते।।

     अब शिवनन्दन सिंह का मन ग्लानि से भर गया, बहुत ही कष्ट हुआ उनके मन को , वो उस समय खुद को बहुत ही असहाय महसूस कर रहे थे लेकिन कुछ कर भी नहीं सकते थे।।

     शिवनन्दन सिंह ने सबको हाथ जोड़कर राम राम की और क्षमा मांगकर विदा कर दिया।।

    शिवनन्दन सिंह लेकिन बहुत ही विकट समस्या से सूझ रहे थे, उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि वे संयोगिता से जाने के लिए कैसे कहें और अगर कह भी दे तो मुन्ना का क्या होगा, उन्हें अब संतान मोह सता रहा था जो कि बहुत ही कष्टदायक होता है।।

       और अब वो उसका समाधान ढूंढने लगे।।

                  शिवनन्दन सिंह गहरी सोच में थे कि इस समस्या का समाधान कैसे हो, तभी दीनू काका दोपहर के खाने के लिए खेतों से लौटे, उन्होंने शिवनन्दन सिंह को ऐसी चिंतित अवस्था में देखकर पूछा____

     क्या हुआ मालिक? आप ऐसे उदास क्यों बैठे हैं, किस सोच में है आप !!ऐसी कौन-सी चिंता आपको सता रही है, इससे पहले तो आपको मैंने कभी इस तरह नहीं देखा।।

       क्या बताऊं ?दीनू काका।। बहुत बड़ी समस्या आ खड़ी हुई है, शिवनन्दन सिंह ने जवाब दिया।।

     ऐसा क्या हुआ मालिक, ऐसी क्या समस्या हो गई, कहीं ऐसा तो नहीं सुखमती महाराजिन ने कोई लगाई बुझाई की है, दीनू काका बोले।।

      हां, दीनू काका अभी थोड़ी देर पहले गांव के कुछ बुजुर्ग लोग आए थे, उन लोगों ने कहा कि वो मेरे घर का जल भी गृहण नहीं करना चाहते, जब तक कि संयोगिता मेरे घर से चली नहीं जाती, शिवनन्दन सिंह दुखी होकर बोले।।

        दुनिया का क्या हैं? मालिक!! अपने स्वार्थ के लिए लोग कुछ भी बोलते हैं, आप चिंता मत कीजिए, बस ये बताइए उन लोगों की बातें कहीं संयोगिता बिटिया ने तो नहीं सुनी, दीनू काका ने शिवनन्दन सिंह से पूछा।।

      नहीं काका, संयोगिता बिटिया को मुन्ना, शेरू और मीठी नदी किनारे लेकर गए थे, इस विषय में संयोगिता को कुछ भी नहीं पता चला, शिवनन्दन सिंह बोले।।

     बहुत ही अच्छा हुआ मालिक, संयोगिता बिटिया ये सब सुनती तो ना जाने उसके दिल पर क्या गुजरती, दीनू काका बोले।।

       तभी संयोगिता के साथ मुन्ना, शेरू और मीठी नदी किनारे से वापस आ गए, घर में फिर से चहल-पहल मच गई।।

      तभी दीनू काका बोले___

बिटिया !! खाना बन गया क्या?

   हां, काका, मैं सब तैयार करके गई थी, अभी सबके लिए खाना परोसती हूं, संयोगिता बोली।।

     तभी संयोगिता ने कहा चलो बच्चों हाथ मुंह धोकर आ जाओ, खाना खाते हैं।।

    मीठी बोली, लेकिन मुन्ना की मां मैं अब घर जाऊंगी, बहुत देर हो गई, मां इंतज़ार कर रही होंगी।।

   तभी मीठी की मां सुमित्रा भी मीठी को बुलाने आ गई।।

   संयोगिता बोली__

चलो सुमित्रा बहन, तुम भी खाना खा लो।।

   नहीं बहन फिर कभी, अभी तो मैं मीठी को लेने आईं थीं, सुमित्रा बोली।।

     लेकिन बहन कल शाम को तुमने बातों ही बातों में बताया था कि तुम्हें दही वाली तली मिर्च बहुत पसंद हैं लेकिन तुम्हें बनाना नहीं आता, आज बनाई है जरा चख लेती तो मुझे अच्छा लगता, संयोगिता बोली।।

      और क्या क्या बनाया है तुमने, सुमित्रा ने पूछा।।

बस, ज्यादा नहीं, काली दाल, हरी धनिया की चटनी, आलू का भरता, तली मिर्च और बाजरे की रोटी, साथ में छाछ, संयोगिता ने जवाब दिया।।

   क्या?बहन! इतना कुछ बना लिया और कह रही हो, कुछ ज़्यादा नहीं, ऐसा करो मुझे दही वाली तली मिर्च देदो, बाद में फिर कभी तुम्हारे हाथों का खाना चखूंगी, सुमित्रा बोली।।

    ठीक है, अभी लाई इतना कहकर संयोगिता ने अंदर से तली मिर्च लाकर सुमित्रा को दी और सुमित्रा तली मिर्च लेकर मीठी के साथ घर चली गई।।

    सबने दोपहर का खाना खाया और फिर सब अपने अपने काम में लग गए।।

     शाम होने को थी, रधिया शाम के बर्तन मांजने आ चुकी थीं, दीनू काका जानवरों को दाना पानी डाल रहे थे तभी सामने सुमित्रा के घर में सुखमती महाराजिन आई।।

     और आते ही सुमित्रा से बोली__

   कैसी हो सुमित्रा बहु? कब लौटी पीहर से?!!

   सुमित्रा बोली, ठीक हूं, काकी अभी कल सुबह ही तो लौटी हूं।।

  आ तो गई हो लेकिन कुछ पता है, अपने पड़ोसियों के बारें में, सुखमती बोली।।

   क्या हुआ काकी!!सब ठीक ही तो है, बेचारे मुन्ना को मां मिल गई, कब से ममता के लिए तरस रहा था बेचारा, अब देखो तो कितना खुश हैं और संयोगिता भी तो इसपे अपनी जान न्यौछावर करती है, किसी की नजर ना लगे, मां-बेटे के प्यार को, सुमित्रा बोली।।

       काहे का मां-बेटे का प्यार, प्रधान जी की नजरों में खोट आ गया है, तुमने देखा नहीं ठाकुर साहब से उम्र में कितनी छोटी है संयोगिता, दस साल का फ़र्क होगा दोनों की उम्र में, जवान लड़की देखी नहीं कि अपनी सारी मान-मर्यादा भूल गए, तुम्हारी भी तो बेटी है, उस घर में जाती है, कल को उसके ऊपर इन सब बातों का क्या फ़र्क पड़ेगा, अभी तुम्हें जिंदगी का तजुर्बा नहीं है इसलिए तुम इन बातों को हल्के में ले रही हो, तुम ही सोचकर देखो भला, कोई भी अंजानी पराई लड़की ठाकुर साहब के घर में आ जाती है और उसे मुन्ना की मां की पद्ववी दे दी जाती है।

      ऐसा कहीं होता है भला!! समाज कुछ भी नहीं होता, समाज की रजामंदी कुछ भी मायने नहीं रखती और उस लड़की को क्या है उसके ना आगे कोई ना पीछे, उसकी प्रतिष्ठा पर नहीं ठाकुर साहब की प्रतिष्ठा पर असर पड़ रहा, बिन ब्याह के कोई भी लड़की किसी गैर मर्द के यहां कैसे रह सकती है, समाज थू थू कर रहा ठाकुर साहब की, सुखमती इतना सब एक साथ बोल गई।।

      लेकिन काकी लड़की तो भली है, सुमित्रा बोली।।

किसने देखा है, ऐसे भोले लोग दुनिया में बहुत मिलते हैं और मतलब पूरा होने पर चलते बनते हैं, सुखमती बोली।।

  नहीं काकी संयोगिता तो ऐसी नहीं दिखती, सुमित्रा बोली।।

शुरू में सब सीधे ही दिखते हैं, सुमित्रा बहु!! अब मुझे क्या लेना-देना तुम्हारे पड़ोसी हैं, तुम्हारा व्यवहार तुम जानो, मैं तो चली अपने घर और इतना कहकर सुखमती आग में घी डालकर चली गई।।

     तभी मीठी बोली__

 मां! मैं मुन्ना के घर खेलने जा रही हूं।।

 नहीं! अभी तू कहीं किसी के घर खेलने नहीं जाएंगी, सुमित्रा बोली।।

    लेकिन क्यो मां? मीठी बोली।।

मैंने कहा ना कि तू मुन्ना के घर नहीं जाएगी तो बस नहीं जाएगी, सुमित्रा गुस्से से बोली।।

     और फिर मीठी का हाथ पकड़कर सुमित्रा घर के अंदर ले गई।।

    ये सब रधिया ने सब देख लिया और अंदर जाकर शिवनन्दन से कह सुनाया।।

   शिवनन्दन सिंह पहले से ही परेशान थे अब और भी परेशान हो गए, शिवनन्दन सिंह ने रात्रि का भोजन भी ठीक से नहीं किया और रात भर चिंता से सो भी ना सकें।।

      दूसरे दिन जैसे ही संयोगिता बाहर निकली, सुमित्रा दरवाजे बंद करके फ़ौरन अंदर चली गई, संयोगिता को सुमित्रा का ऐसा व्यवहार अच्छा नहीं लगा और वो मन मसोस कर रह गई।।

    संयोगिता का मन किसी काम में नहीं लग रहा था।।

     दोपहर होने को थी__

      तभी सुखमती गांव की कुछ बुजुर्ग महिलाओं और पुरुषों के साथ शिवनन्दन के घर के बाहर जा पहुंची।।

    उनमें से एक बुजुर्ग बोले तो प्रधान जी आपने क्या फैसला किया।।

    शिवनन्दन जी बोले__

  मुन्ना बहुत ही स्नेह रखता है उस लड़की से उसे मां मानता है और वो भी पूरी की पूरी ममता उस पर लुटाती है, मुझे कुछ भी नहीं सूझ रहा, कोई भी रास्ता दिखाई नहीं दे रहा।।

    लेकिन ठाकुर साहब बिना ब्याह के कोई भी लड़की ऐसे कैसे आपके घर रह सकती है, समाज में रहकर आप ऐसा कैसे कर सकते हैं, उनमें से दूसरे बुजुर्ग ने कहा।।

      तभी सुखमती बोली, बुलाइए उसे बाहर हम लोग बात करते हैं।।

   तभी दीनू काका भी खेतों से आ पहुंचे और रधिया पहले से मौजूद थीं।।

  दीनू काका बोले, मैं बुलाता हूं, संयोगिता बिटिया को।।

    दीनू काका ने संयोगिता को आवाज दी, संयोगिता बिटिया जरा बाहर तो आना।।

   डरी सहमी सी संयोगिता सर पर पल्लू किए हुए बाहर आई।।

    दीनू काका ने सबके सामने पूछा__

   क्या तुम बच्चे से सचमुच प्यार करती हो?

   संयोगिता ने अपनी गर्दन नीचे किए हुए हां में अपना सर हिलाया।‌।

     तभी सुखमती बोल पड़ी___

तो क्या किसी भी राह चलती औरत को मुन्ना की मां बनाकर इस घर में ले आओगे।।

     पता नहीं कहां से आई है, कौन है? ऐसी बहुत सी बाजारू औरतें ऐसी ही घूमती रहती है अपना मतलब पूरा होने पर पता नहीं कब बच्चे और ठाकुर साहब का गला काटकर चलती बने।।

       अब शिवनन्दन सिंह के बर्दाश्त से बाहर हो गया था___

  वो सबके सामने चीखकर बोले__

   बस!!बस भी करिए, आप सब !!एक मासूम विधवा पर कोई भी झूठे लांक्षन लगाए दे रहा है, वो मेरे बच्चे की मां है, अरे सालों बाद तो मैंने अपने बेटे को इतना खुश देखा है, आप लोगों को रिश्ते से ही मतलब है तो ठीक है...!!

    और इतना कहकर शिवनन्दन सिंह अंदर गए और फिर गुस्से से तमतमाते हुए बाहर आकर मुट्ठी पर सिंदूर संयोगिता की मांग में भर दिया और बोले लो अब आज से ये मेरी ब्याहता, अब तो आपलोगों को कोई कष्ट नहीं होगा।

     अब हो गई सबको तसल्ली, यही चाहते थे ना आपलोग, अब कृपा करके, आप लोग यहां से प्रस्थान कर जाएं, अभी मैं ना तो कुछ सुनने और ना ही कुछ कहने के लायक नहीं हूं, खुद को ब्यवस्थित करना चाहता हूं।।

     और इतना सुनकर सब लोग वहां से चले गए...!!

         

             सबके जाने के बाद पता नहीं संयोगिता को क्या हुआ, ऐसे ही खड़े खड़े गिरकर बेहोश हो गई__

    रधिया भागकर आई, संयोगिता को उठाने के लिए शिवनन्दन सिंह भागकर अंदर से ठंडा पानी लेकर आए।।

    रधिया ने पानी संयोगिता के चेहरे पर छिड़का, पानी पड़ते ही संयोगिता को होश आ गया।।

  होश आते ही संयोगिता , रधिया से लिपटकर फूट-फूटकर रोने लगी और बोली।।

    ये सब क्या हो गया? इसकी आशा नहीं थी मुझे, मैं तो बस बच्चे के साथ रहना चाहती थीं, उसके साथ रहकर मैं अपने सारे दुःख भूल गई थी लेकिन ये सब जो हुआ..... पता नहीं क्या लिखा है? मेरी किस्मत में!!

     रधिया बोली, चुप हो जाओ बिटिया!! अब रोने से कुछ होने वाला ना हैं, ये समाज है बिटिया, यहां लोग चैन से जीने नहीं देते, अगर ठाकुर साहब तुम्हारी मांग नहीं भरते तो ये लोग और ना जाने कौन-कौन से लांक्षन लगाते तुम पर, शायद यही नियति थी और यही उस ऊपर वाले की मर्जी थी।।

         लेकिन इन सब में मेरा क्या दोष, मैं तो सिर्फ मुन्ना की मां बनना चाहती थी लेकिन मुझे तो जबरदस्ती किसी की पत्नी बना दिया गया, ये कैसी नियति?ये नियति है या मेरा फूटा भाग्य, संयोगिता गुस्से से चीख पड़ी।।

           संयोगिता गुस्से से उठी और कुएं से एक बाल्टी निकालकर अपने ऊपर उड़ेलकर बोली__

   काकी!! नहीं बनना मुझे किसी की पत्नी, लो धुल गया सिंदूर, मैं किसी की ब्याहता नहीं हूं और अब मैं इस घर में भी नहीं रहूंगी, कल ही अपने घर लौट जाऊंगी, क्या हुआ जो कोई सदस्य नहीं है मेरे घर में, कम से कम घर तो है, वहां कम से कम कोई मुझ पर लांक्षन नहीं लगाएगा।।

      काकी बोली__

   चलो बिटिया पहले तुम अंदर चलकर अपने कपड़े बदल लो, अभी तुम्हारा मन अच्छा नहीं है, अभी तुम गुस्से में हो इसलिए ऐसा कह रही हो, बाद में ठंडे दिमाग से सोचना।।

      

        शाम का समय है, धीरे धीरे अंधेरा भी गहरा रहा है लेकिन शिवनन्दन सिंह के घर में रोज की तरह चहल-पहल नहीं है, आज तो ना अभी तक घर में रोशनी हुई है और ना रसोई में चूल्हा बाला गया है।।

     दीनू काका भी अपना काम कर रहे हैं, उधर मुन्ना बार बार संयोगिता से कह रहा है__

  क्या हुआ मां? आज तुम बोल क्यों नहीं रही हो और इस तरह से अंधेरे में क्यों बैठी हो? चलो ना ।। मुझे भूख लगी है, खाना बना दो ना।।

     मुन्ने की बात सुनकर शिवनन्दन जी बोले__

 बेटा!! मुन्ना इधर तो आना..

    क्या हुआ ? बाबा! आपने मुझे क्यों बुलाया? मुन्ने ने पूछा।।

 कुछ नहीं बेटा!!आज तुम मेरे पास रहो, आज तुम्हारी मां की तबीयत ठीक नहीं है ना तो उसे आराम करने दो खाना मैं बनाएं देता हूं, शिवनन्दन सिंह बोले।।

   ठीक है बाबा!! मुझे पता नहीं था कि आज मां की तबीयत ठीक नहीं है, अब मैं उसे परेशान नहीं करूंगा।। मुन्ना बोला।।

      ठीक है, मेरा प्यारा मुन्ना, अच्छा बोल तो क्या खाना बनाऊँ तेरे लिए, शिवनन्दन सिंह ने मुन्ना से पूछा।‌

   कुछ भी बना लो बाबा! मैं सब खा लूंगा, मुन्ना बोला।।

  ठीक है, तू अब यही बैठ या बाहर दीनू काका के पास खेल लेकिन मां के पास मत जाना, शिवनन्दन बोले।।

     ठीक है बाबा, मैं बाहर शेरू के साथ हूं और मुन्ना बाहर जाकर बाड़े में खेलने लगा।।

   शिवनन्दन जी ने खाना बनाकर दीनू काका को परोस दिया और मुन्ना को भी दे दिया।।

    मुन्ना के खाना खा लेने के बाद बोले लो मुन्ना अपनी मां को भी खाना खिला आ।।

     ठीक है बाबा और इतना कहकर मुन्ना थाली लेकर संयोगिता के पास पहुंचा।।

   लो मां खाना खा लो, मुन्ना बोला।।

 नहीं बेटा, मुझे भूख नहीं है तू थाली ले जा, संयोगिता बोली।।

   ठीक है और इतना कहकर मुन्ना थाली लेकर शिवनन्दन के पास चला आया।।

     शिवनन्दन बोले, मुन्ना तू दीनू काका के पास जा, मैं तेरी मां को खाना खिलाकर आता हूं।।

   और शिवनन्दन थाली लेकर संयोगिता के पास पहुंचे।।

  माफ़ कीजिए, जो आज हुआ, वो होना नहीं चाहिए था, वो सब क्रोध वश हुआ, मुझे पता है कि आज आपको मेरी वजह से बहुत कष्ट हुआ लेकिन कृपा करके उसका गुस्सा आप खाने पर ना उतारे, शिवनन्दन बोले।।

    क्रोधवश!! संयोगिता गुस्से में तमतमाते हुए बोली।।

ये आपने जानबूझकर किया है, आपके मन में बात आई भी कैसे कि मैं आपसे ब्याह कर सकती हूं, मैं किसी की विधवा हूं तो इसका मतलब ये नहीं कि कोई भी मुझ पर हक़ जताकर अपनी ब्याहता बना लेगा, मैं अपने पति से अब भी बहुत प्यार करती हूं और हमेशा उन्हीं से करती रहूंगी और मैं कल ही आपका घर छोड़ कर चली जाऊंगी, नहीं चाहिए आपकी खैरात, आपके घर में सर छुपाने की इतनी बड़ी क़ीमत मांग ली आपने।।

   लज्जा नहीं आपको किसी विधवा की मजबूरी का फ़ायदा उठाते हुए, कुछ तो रहम किया होता यूं ही सबके सामने मेरी मांग में सिंदूर भर दिया, क्या जवाब दूंगी मैं अपनी अंतरात्मा को, मुझे खुद से घृणा हो रही है और ये खाना लेकर आप कौन सी सांत्वना देने आए हैं मुझे, जो आपको करना था वो तो आपने कर ही लिया, अभी इसी वक़्त मेरे सामने से चले जाइए, मैं अभी अपने आपे में नहीं हूं।।

      और शिवनन्दन सिंह थाली लेकर वापस आ गए, उनकी आंखें भी भर आईं थीं शायद दो बूंद आंसू भी टपक गए जो उन्होंने फौरन पोंछ लिए ताकि कोई देख ना ले।।

     उस रात शिवनन्दन सिंह भी बिना खाना खाए ही सो गए।।

दूसरे दिन सुबह का माहौल भी एकदम सुस्त सा था।।

    रधिया ने अपना काम कर दिया और बोली बिटिया हम जा रहे हैं।।

    संयोगिता बोली_काकी मैं भी आज यहां से चली जाऊंगी।।

 रधिया बोली__ बिटिया! एक बात कहें, अब तुम्हारा इस बच्चे के सिवा कोई नहीं है, वहां जाकर भी तुम का करोगी, पता है अकेली औरत को ये समाज जीने नहीं देता, पता है बिटिया, हमने अपनी जिंदगी अकेले कैसे गुजारी है, ये हम ही जानते हैं, एक विधवा का कोई नहीं होता और फिर तुम दिल से चाहे ना मानो लेकिन समाज के सामने तो तुम ठाकुर साहब की ब्याहता हो।।

     चांद सा बेटा मिल गया है तुम्हें और ठाकुर साहब भी दिल के बहुत अच्छे हैं, पूरा गांव उनकी इज्जत करता है, बस हमारे मन में जो बात थी वो हमने कह दी, आगे तुम्हारी मर्ज़ी, अब तुम्हें का करना है, ये तुम जानो, चली जाओगी तो ठीक और अगर नहीं जाओगी तो किसी अनाथ बच्चे की जिंदगी संवर जाएगी।।

      अच्छा अब हम जाते हैं और इतना कहकर रधिया चली गई।।

    रधिया की बातें सुनकर संयोगिता सोच में पड़ गई कि क्या फैसला ले ।।

              संयोगिता सोच विचार मे थी कि वो यहां से जाए या नहीं तभी मुन्ना भागते हुए आया और बोला__

  मां!!क्या तुम मुझे छोड़कर जा रही हो।।

नहीं!! मेरे मुन्ने, मैं तुम्हें छोड़कर भला कैसे जा सकती हूं और तुमसे ऐसा किसने कहा, संयोगिता ने मुन्ने से पूछा।।

  वो ना रधिया काकी कह रही थी, मुन्ना बोला।।

रधिया काकी तो कुछ भी कहती हैं चल मैं स्नान करके आती हूं फिर नाश्ता भी तो बनाना है और ऐसा कहकर संयोगिता चली गई।।

   स्नान करके उसने सूर्य भगवान को जल चढ़ाया और तुलसी चौरे की पूजा की तभी उसे रसोई से कुछ आवाज आती सुनाई दी उसने जाकर देखा तो शिवनन्दन सिंह नाश्ते की तैयारी कर रहे थे।।

     संयोगिता ने कहा, चलिए आप सब छोड़िए, नाश्ता मैं बनाती हूं।।

    आज बनाकर खिला देंगी आप लेकिन कल से तो मुझे ही बनाना है इसलिए आदत डाल रहा हूं क्योंकि आज तो आप चलीं जाएंगी, शिवनन्दन सिंह बोले।।

   मैं कहीं नहीं जा रही अपने मुन्ना को छोड़कर, चलिए आप छोड़िए, संयोगिता बोली।।

    और शिवनन्दन सिंह सब कुछ छोड़कर चेहरे पर हल्की सी मुस्कान लेकर बाहर चले गए।।

     आज घर में थोड़ी रौनक थी क्योंकि सबके चेहरों पर मुस्कान थी।।

    दोपहर होने को थी, तभी सुमित्रा कुछ सामान लेकर संयोगिता के पास आई।।

    संयोगिता बहन!! मैं तुमसे कुछ कहने आई थी और कुछ देने।।

 हां बहन!! बोलो, क्या बात है? संयोगिता ने सुमित्रा से पूछा।।

     सुबह माता के मंदिर गई थी, वहां से ये लाल चूड़ियां, सिंदूर लाई हूं, लाओ तुम्हारी मांग में डाल दूं और ये लाल चूड़ियां तुम्हारी कलाइयों में पहना देती हूं, ताकि अब से कोई तुम पर उंगली ना उठा पाए, सुमित्रा ने संयोगिता से कहा।।

   लेकिन बहन ये सब, मेरे लिए क्यों? अभी कल के सदमे से मैं उबर नहीं पाई हूं और आज तुम ये सब लेकर आ गई, संयोगिता दुःखी होकर सुमित्रा से बोली।‌

    लेकिन बहन ये सब करने से अगर तुम पर लोग उंगली उठाना बंद कर देते हैं तो क्या बुराई है, ये सब करने से समाज का मुंह बंद होता है तो क्या बुरा है, सुमित्रा बोली।।

     और सुमित्रा , संयोगिता की मांग में सिंदूर भरकर, कलाइयों में लाल चूड़ियां पहनाकर चली गई।।

    संयोगिता फ़ौरन भागकर अंदर गई और आइने में खुद को देखने लगी, उसे आज फिर से अपनी मांग में सिन्दूर भरा देखकर, कलाइयों में चूड़ियां देखकर अच्छा लगा।।

    तभी दोपहर का खाना खाने दीनू काका आ पहुंचे उन्होंने संयोगिता को इस रूप में देखकर कहा___

    अच्छी लग रही हो बिटिया, भगवान!! तुम्हें हमेशा खुश रखे।।

और संयोगिता अपनी पलकें नीचे करके लजाते हुए बोली__

   काका अभी खाना लेकर आती हूं।।

दीनू काका भी मन ही मन मुस्कुराते हुए बोले, बिटिया तुम्हारे लिए यही सही है, यहां तुम हमेशा खुश रहोगी, काश! तुम्हारे मन में मालिक के लिए भी प्रेम पनप जाए।।

       संयोगिता ने सबके लिए खाना परोसकर, सबको बुलाया।।

शिवनन्दन सिंह खाना खाने रसोई में पहुंचे और संयोगिता का ऐसा रूप देखकर अंदर ही अंदर प्रसन्न हो गए।।

     शाम को रधिया, बर्तन मांजने आई और संयोगिता से पूछ बैठी__

   बिटिया!तुम गई नहीं।।

   ना जा पाई, काकी!! मुन्ने का मुंह देखकर रह गई, संयोगिता ने जवाब दिया।‌

    हम तो कहेंगे कि बिटिया तुम्हारे लिए यहीं सही है और आज मांग में सिंदूर भर अच्छी लग रही हो, हमेशा इसी तरह श्रृंगार में दिखो, हमारा आशीर्वाद है, रधिया काकी बोली।।

     

      संयोगिता ने सुहागन की तरह रहना तो शुरू कर दिया था लेकिन शिवनन्दन सिंह को वो अभी भी माफ़ नहीं कर पाई थी अब संयोगिता को शिवनन्दन के घर में रहते दो महीने बीत गए थे, उसने बाड़े को हरा भरा बना दिया था, कई जगह फूलों के पौधे लगा दिए थे, कहीं पर गुलाब और गुड़हल के पौधे , कुछ मिर्च, बैंगन और धनिया भी लगा रखा था जो भी आता घर की शोभा देखकर मंत्रमुग्ध हो जाता और कहता, ठाकुर साहब सही कहा गया घर में बिना औरत के शोभा नहीं रहती।।

      शिवनन्दन इतना सुनते और खुश हो जाते लेकिन अपने लिए अब भी संयोगिता की नाराज़गी देखकर उनका मन खिन्न हो जाता।।

    वो जब कभी संयोगिता को दूर से निहारते रहते लेकिन जैसे ही संयोगिता उनकी तरफ देखती तो नज़रें दूसरी ओर फेर लेते, दीनू काका और रधिया की पारखी नजरों से ये सब छुपा नहीं था और दोनों ही चाहते थे कि संयोगिता और शिवनन्दन एक हो जाएं, उनके बीच की दूरियां मिट जाएं, अगर भगवान ने दोनों को जोड़ा हैं तो बीच में गांठ क्यो रह जाएं।।

       ऐसे ही दिन बीतते जा रहे थे__

शिवनन्दन, संयोगिता को पसंद करने लगे थे और करें भी क्यो ना पसंद, संयोगिता जैसी सुघड़ गृहिणी ने उनके बच्चे और बिखरे हुए घर को जो संवार दिया था, संयोगिता के आने से अब उनका घर, घर जैसा लगने लगा था, उनके घर में संयोगिता का आना कुछ इस तरह से था जैसे कि मृत शरीर में प्राण आ गये हो।।

    लेकिन संयोगिता शिवनन्दन सिंह के मन के भावों को समझकर भी अनदेखा कर रही थी, वो शिवनन्दन सिंह को मन से क्षमा नहीं कर पा रही थी, लेकिन कभी कभी सोचती भी थी कि प्रधान साहब ने इतना बड़ा भी अपराध नहीं किया है जो क्षमा ना किया जा सके, उस समय उनके पास भी तो इसके सिवा और कोई चारा नहीं था, ऐसा तो नहीं कि मैं उनसे बेवजह नाराज हूं।।

        बस ऐसे दोनों के मन में उलझनों भरे भाव थे लेकिन एक-दूसरे से दोनों व्यक्त करने में असमर्थ थे।।

    तभी एक रोज शिवनन्दन सिंह के एक दोस्त के घर से शादी का न्यौता आया, शिवनन्दन सिंह के दोस्त की भतीजी की शादी थी, दोनों दोस्त बचपन से दोस्त थे और साथ में पढ़ें भी थे।।

        न्यौता मिलते ही शिवनन्दन सिंह ने संयोगिता से कहा कि__

 सुनिए___

    संयोगिता थोड़ा ऐंठ कर बोली__

 जी कहिए, मेरे पास ज्यादा समय नहीं है__

 वो मैं ये कह रहा था कि मेरे दोस्त की भतीजी की शादी है और हमें उसे अवश्य ही आशीर्वाद देने जाना पड़ेगा तो आप जरा तैयारी कर लेती और जो भी आपको खरीदना है तो सुमित्रा भाभी के साथ बाजार जाकर ले आइए।।

       ये रहें रूपए और बिटिया के लिए ब्याह में देने के लिए कोई तोहफा भी खरीद लिजिएगा और हो सके तो आज और कल मे सारी तैयारी हो जाए क्योंकि परसों हमें निकलना होगा, शिवनन्दन ने संयोगिता से कहा।।

     संयोगिता फिर तुनक कर बोली__

  ठीक है.. ठीक है.. मैं सब कर लूंगी लेकिन दीनू काका का क्या होगा, उनके लिए खाना कौन बनाएगा।।

     आप चिंता ना करो करें, मैं उनका कुछ ना कुछ इंतजाम कर दूंगा , शिवनन्दन सिंह बोले।।

       और संयोगिता ने सुमित्रा को बुलवा लिया__

  सुमित्रा बहन, हमलोगों को एक शादी में जाना है तो क्या आप मेरे साथ खरीदारी के लिए चल सकती है, संयोगिता बोली।।

    हां.. हां..क्यो नही, ये भी कोई पूछने वाली बात है, सुमित्रा बोली।‌

   लेकिन बहन एक समस्या है, अगर मैं शादी में चली गई तो दीनू काका के खाने क्या होगा, संयोगिता बोली।।

  बस इतनी सी बात, वो मैं सब देख लूंगी, तुम चिंता मत करो, जाने की तैयारी करो, सुमित्रा बोली।।

        सुमित्रा और संयोगिता ने साथ मिलकर खरीदारी पूरी कर ली।।

      जिस रोज संयोगिता को जाना था तो रधिया बोली__

ठहरो!! बिटिया, हम सुमित्रा बिटिया को बुला कर लाते हैं, वो ही तुम्हें ठीक से तैयार करेंगी।।

     और सुमित्रा आ पहुंची संयोगिता को तैयार करने___

   

              सुमित्रा को आते हुए देखकर शिवनन्दन सिंह बोले__

   सुमित्रा भाभी!! उनसे कहिए कि जो संदूक में गहने रखें हैं, वो भी पहन लें, मैं कहूंगा तो नहीं पहनेंगी लेकिन आप कहेंगी तो आप की बात मान लेंगी।।

    ठीक है भाईसाहब!! आप चिंता ना करें, मैं मना लूंगी और कुछ भी कहना है तो कह दूं उनसे कि आपने कहा है।।

     सुमित्रा ने शिवनन्दन से ठिठोली करते हुए मुस्कुरा कर कहा।।

शिवनन्दन सिंह अपने सर पर हाथ फेरते हुए शरमाते हुए बोले__

कैसी बातें कर रही है? भाभी!!

   और इतना कहकर बाहर चले गए।।

सुमित्रा ने संयोगिता को तैयार किया और खुद ही देखकर बोली__

 लाओ तो जरा काजल का टीका लगा दूं, कहीं नजर ना लगे जाए।।

   तभी मुन्ना और मीठी भी आ पहुंचे__

 मां!!आज तुम कितनी सुंदर लग रही हो, मुन्ना बोला।।

रधिया बोली__

   कसम से बिटिया बहुतई ज्यादा खूबसूरत लग रही हो, भगवान करें तुम्हारा श्रृंगार ऐसे ही बना रहे।।

       वाकई में संयोगिता का रूप-लावण्य आज देखने लायक था, बीच से मांग निकालकर बड़ा सा जूड़ा, माथे पर मांग टीका, कानों में झुमके, गले में पांच लड़ियों का सीतारामी हार, गहरे बैंगनी रंग की बनारसी भारी सी साड़ी, हाथों में चूड़ियां के साथ सोने के कंगन, कमर में कमरबंद और पैरों में पायल, आज संयोगिता किसी महारानी से कम नहीं लग रही थी।

    तभी मुन्ना बाहर से शिवनन्दन सिंह का हाथ पकड़कर अंदर लाकर बोला__

    देखो ना बाबा!!आज मां कितनी सुंदर लग रही है।।

शिवनन्दन सिंह ने जैसे ही संयोगिता को देखा तो कुछ बोल ही नहीं पाए और बस एकटक संयोगिता को निहारते रह गए।।

    मुन्ना फिर बोला__

बोलो ना बाबा मां सुंदर लग रही है ना!!

    शिवनन्दन ने सर हिला कर हां मे जवाब दिया।।

 मुन्ना बोला__

   ऐसे नहीं बाबा!! मुंह से बोलो कि सुंदर लग रही है।।

अरे हां, आज तेरी मां बहुत सुंदर लग रही है और इतना कहकर शिवनन्दन सिंह बाहर चले गए।।

    रधिया और सुमित्रा ने शिवनन्दन के भावों को बहुत अच्छे से पढ़ लिया था।।

     तांगे पर सामान चढ़ाया जा चुका था, बस सब निकलने ही वाले थे।।

    बाहर आकर संयोगिता ने सुमित्रा से कहा__

अच्छा बहन चलती हूं, दीनू काका का ख्याल रखना और इतना कहकर संयोगिता तांगे पर बैठ गई।।

      तांगा चल पड़ा अपनी मंजिल की ओर, तीस-चालीस किलोमीटर का सफर था, रास्ता भी बहुत सुहावना था, कहीं तो पानी से भरे हुए पोखर मिलते और उन पर गहरे गुलाबी बेसरम के फूल तैरते हुए नजर आ जाते , तो कहीं खेतों में काम करते हुए लोग नजर आ जाते, कहीं पेड़ों की घनी छाया मिलती थी तो कहीं झाड़ियों का बिर्रापन, रास्ता भी इतना अच्छा नहीं था कहीं कहीं तो बहुत ही ऊबड़-खाबड़ था, तांगा भी अपना संतुलन खो बैठता था तो तब शिवनन्दन सिंह तांगे से उतर जाते, इसी के चलते संयोगिता का पल्लू भी बार बार गिर रहा था, ऊपर से उसे इतनी भारी साड़ी पहनने की आदत नहीं थी और जब भी संयोगिता का पल्लू गिरता शिवनन्दन सिंह कनखियों से संयोगिता को निहार लेते ।।

      ये सब संयोगिता भी महसूस कर रही थी लेकिन साथ में नजरंदाज भी कर देती।।

     तभी तांगेवाला बोला___

  ठाकुर साहब अब थोड़ी देर सुस्ता लेते हैं, देखते हैं अगर कोई कुंआ दिखता है तो किसी पेड़ के नीचे तांगा खड़ा कर देते हैं।।

       शिवनन्दन सिंह बोले__

जी बिल्कुल और कुछ जलपान भी गृहण कर लेंगे, सबको भूख भी लग आई होंगी और अभी वहां पहुंचने में ना जाने कितना समय लगे।।

     तभी एक जगह एक कुआं दिखा और वहां पेड़ों की घनी छाया भी दिखाई दी, तांगे वाला बोला, ये जगह ठीक दिख रही यहां तांगा रोक दे और शायद वहां पहले से ही एक तांगा और भी खड़ा है।।

     हां.. हां क्यो नही, मुझसे पूछने की क्या जरूरत है, आप को अगर जगह ठीक लग रही है तो तांगा रोक दीजिए, शिवनन्दन सिंह बोले।।

   तभी तांगेवाले ने तांगा रोक दिया लेकिन परिचय हुआ तो वो दूसरे तांगे वाले तो गांव के ही निकले और वो परिवार भी उसी शादी में जा रहा था लेकिन उनको यहां रूके हुए बहुत देर हो गई थी तो उन्होंने शिवनन्दन सिंह कहा कि हम अब चलेंगे, आप लोग विश्राम कीजिए।।

      और इतना कहकर वो लोग चले गए।।

  तांगेवाले ने अपने तांगे में रखी बाल्टी उठाकर पानी निकाला, सबने हाथ पैर धुले।

      फिर संयोगिता ने आलू की सब्जी और पूडियां निकाली साथ में आम का आचार भी जो वो घर से बना कर लाई थी, सबने साथ में भोजन किया और थोड़ी देर विश्राम करने के बाद तांगा फिर अपने गंतव्य की ओर चल पड़ा।।

   गहरी दोपहरी चढ़ आई थी, सूरज भी गर्मी फेंक रहा था।।

     अब मुन्ना, संयोगिता की गोदी पर सर रखकर सो गया था और अब संयोगिता की भी बार बार आंख झपक रही थीं और सब शिवनन्दन सिंह देख रहे थे।।

      फिर से एक बार संयोगिता की आंख झपकी लेकिन इस बार शिवनन्दन सिंह ने अपने कंधे का सहारा देकर संयोगिता के सर को टिका लिया कि संयोगिता ठीक से सो पाए।।

    और ऐसे ही सफ़र जारी रहा।।

     थोड़ी देर बाद संयोगिता की आंख खुली, उसने देखा कि वो शिवनन्दन सिंह के कांधे से टिकी हैं तो झटपट अपना सर उनके कांधे से हटाकर शिवनन्दन को घूर कर देखा।।

     शिवनन्दन सिंह भी मुस्करा कर दूसरी ओर देखने लगे।।

 अब शाम भी होने वाली थी और रास्ता भी पार हो चुका था, मुश्किल से दो तीन कोस बचा होगा।।

        तभी संयोगिता ने कहा___

रोको.. रोको तांगा रोको।।

     शिवनन्दन सिंह ने पूछा__

क्या हुआ?

     संयोगिता बोली__

मैंने मोर देखा अभी , मुझे उसे करीब से देखना है।।

   शिवनन्दन सिंह, संयोगिता की इस तरह की बचकानी हरकत देखकर हंस पड़े।।

     शिवनन्दन सिंह का अपने ऊपर ऐसा हंसना देखकर संयोगिता चिढ़कर बोली__

    बढ़ाइए तांगा, अब मुझे कुछ नहीं देखना।।

 शिवनन्दन बोले, नहीं.. नहीं..अब हम मोर देखकर ही जाएंगे।।

    अरे, चलिए उतरिए तांगे से।।

 और सब उतर कर मोरो के झुंड को देखने लगे।।

          अंधेरा गहराने तक तांगा शादी वाले घर मेहमानों को लेकर जा पहुंचा, दरवाजे पर पहुंचते ही संयोगिता ने अपना घूंघट थोड़ा लम्बा कर लिया।।

     शिवनन्दन सिंह अपने दोस्त धरमवीर से गले मिले और बड़े बुजुर्गो के चरणस्पर्श किए और संयोगिता ने भी बड़ों के चरणस्पर्श किए।।

     अरे मित्र!!ये सब कब हुआ और हमें बताया भी नहीं, धरमवीर सिंह बोले।।

  बहुत लम्बी कहानी है मित्र, आराम से बैठकर सुनाता हूं, शिवनन्दन सिंह बोले।।

    और कुछ महिलाएं संयोगिता को अपने साथ अंदर लेकर चली गई और शिवनन्दन अपने मित्र धरम के साथ जा बैठे।।

    शिवनन्दन सिंह ने जलपान गृहण करते करते सारी कहानी कह डाली,

    धरम सिंह बोले, अच्छा तो ये सब अचानक ही हो गया, लेकिन ये बताओ अब तो सब ठीक है ना!!भाभी ने तुम्हें स्वीकार कर लिया या नहीं, तुझसे प्रेम करने लगी है या नहीं!!

   पता नहीं, शिवनन्दन सिंह ने उत्तर दिया।।

पता नहीं!!इसका क्या मतलब, हां या ना, धरम सिंह ने पूछा।।

   हां, मित्र!! कुछ पता नहीं, शिवनन्दन सिंह ने उत्तर दिया।।

          और तुम्हारी तरफ से, धरम ने फिर पूछा।।

वो भी पता नहीं अभी पूरी तरह से, उन पर निर्भर है सबकुछ, बस जिस दिन उन्होंने मुझे स्वीकार कर लिया तो मैं भी ना नहीं करूंगा, शिवनन्दन सिंह बोले।।

   मतलब आपको कोई एतराज़ नहीं, आप शायद भाभी को पसंद करने लगे, धरम सिंह बोले।।

      और इसी दोनों का वार्तालाप जारी रहा।।

 संयोगिता को महिलाएं भीतर ले गई__

धरम सिंह जी की पत्नी बोली___,

आओ बहन !!संकोच मत करो, भाईसाहब ने दूसरा ब्याह भी कर लिया और हमें बुलाया भी नहीं, धरम सिंह की पत्नी रूक्मणी ने संयोगिता को उलाहना दिया।।

    वो क्या है जीजी, सब इतनी जल्दबाजी में हुआ कि किसी को बुलाने का मौका नहीं मिला, संयोगिता अपनी सफाई में बोली।।

    तभी शिवनन्दन सिंह जी के गांव से आने वाले मेहमान जिनका तांगा रास्ते में मिला था उनकी पत्नी जानकी बोली____

    क्यो झूठ बोलती हो बहन!! अचानक से सब कैसे हो गया, मैं आप सब को सच्चाई बताती हूं।।

   हुआ यूं कि ये नदी किनारे बेहोशी में मुन्ना को मिली थी और मुन्ना इन्हें अपनी मां समझकर घर ले आया, जब गांव के बड़े बुजुर्गो ने प्रधान जी पर उंगली उठाना शुरु कर दिया तो एक दिन प्रधान जी ने गुस्से में आकर इनकी मांग भर दी।।

     मर्दो का क्या है और फिर अपने से आठ दस साल छोटी पत्नी मिले तो कोई भी मर्द शादी करने को राजी हो जाएगा।।

    तभी रूक्मणी बोली__

कैसी बातें कर रही हो बहन!! बिना बात के किसी के बारे में ऐसे नहीं बोलते, जो भी हो अब तो ये भाईसाहब की ब्याहता हैं।।

    जानकी बोली___

कोई किसी को मजबूरी में ब्याहता बनाता है और कोई मजबूरी में ब्याहता बनता है अब ये तो वो ही जाने भला मैं कैसे किसी के मन की जान सकती हूं।।

     रहने दीजिए!!जानकी बहन, यहां सब बिटिया को आशीर्वाद देने आए हैं, शादी अच्छे से निपट जाएं बस, रूक्मणी बोली।।

      अरे, भाई!! मुझे क्या लेना-देना दुनिया दारी से, वो तो मैं ग़लत को ग़लत और सही को सही कह रही थी और इतना कहकर जानकी वहां से चली गई।‌

    खड़े खड़े संयोगिता की बड़ी बड़ी आंखों से टप टप आंसू गिरने लगे।।

    रूक्मणी बोली, चलो हटाओ बहन!! तुम भी क्या? अपना मन खराब कर रही हो, लोग तो कुछ भी कहते रहते हैं, चलो हाथ मुंह धोकर कपड़े बदल लो, बहुत भारी साड़ी पहन रखी है, इसमें काम भी नहीं करते बनेगा, जब कल बारात का समय हो तब फिर से पहनकर अच्छे से तैयार हो जाना और इतना सुन्दर चेहरा उदास अच्छा नहीं लगता जरा मुस्कुराओ तो...

     और रूक्मणी की बात सुनकर संयोगिता मुस्करा दी, कपड़े बदल कर काम काज में लग गई।।

     उस दिन सारे नेगचार निपटने के बाद रात्रि का भोजन शुरू हुआ, खाने में चने की दाल, कढ़ी पकौड़ी, चने का साग, कद्दू की सब्जी, भरी हुई मिर्च का आचार, बूंदी का लड्डू, चावल और रोटी थी, पहले पुरुष और फिर महिलाएं की पंगत लगी।।

     खाने के बाद सब फुर्सत थे तभी रूक्मणी, संयोगिता से बोली__

  चलो बहन, बन्नी के मेंहदी तो लगा दो।।

संयोगिता खुश होकर बोलीं__

  हां.. हां..क्यो नही!!

  तभी रूक्मणी की जेठानी वहां आकर बोली__

कैसी बातें कर रही हो?रूक्मणी!!, पता है ये पहले विधवा थी और दूसरी शादी में ना पंडित था और ना फेरे हुए तो कैसी शादी और कैसी ब्याहता, इसके हाथों से मेरे बेटी को मेंहदी लगवाओगी, मुझे इनके गांव की जानकी ने सब बता दिया है।।

      रूक्मणी बोली, ये सब बीती बातें हैं, जीजी!!

नहीं ये सब मैं मानती हूं, रूक्मणी की जेठानी बोली।।

   ये सब सुनकर तब तक मुन्ना शिवनन्दन सिंह को अंदर लाकर बोला___

    बाबा!! इन काकी ने मां के बारे में कुछ कहा और मां की आंखों से आंसू निकल पड़े ‌‌।।

    तभी रूक्मणी की जेठानी बोली__

क्या ग़लत कहा मैंने, ना पंडित, ना फेरे और ना बाराती तो फिर कैसी शादी?

     तब तक धरम सिंह भी वहां आ पहुंचे।।

क्षमा करना मित्र!! मैं यहां अब एक क्षण भी नहीं रुक सकता, शिवनन्दन सिंह बोले।‌

   लेकिन क्यो मित्र? धरम सिंह ने शिवनन्दन से पूछा।।

जहां मेरी पत्नी का अपमान हो, वहां मैं कैसे रूक सकता हूं, मैं अभी इसी समय अपने परिवार सहित यहां से जा रहा हूं, क्षमा करना मित्र!!आप जब भी कहेंगे, मैं आपके हर कार्य के लिए हमेशा तत्पर रहूंगा लेकिन अभी आज्ञा दीजिए।।

    उन्होंने संयोगिता से अंदर से सामान लाने को कहा और उसी समय धरम सिंह से हाथ जोड़ क्षमा मांगी और तांगे पर परिवार सहित जा बैठे।।

     ये सब देखकर, संयोगिता के मन में शिवनन्दन के प्रति प्रेम के बीज ने अंकुर का रूप ले लिया था।।

      धरम सिंह का घर गुस्से में छोड़ तो दिया लेकिन रात का समय और इतना लम्बा सफ़र, ज्यो ज्यो तांगा गांव छोड़ता था रहा था तो डर भी बढ़ता चला जा रहा था, डर सभी रहे थे लेकिन एक-दूसरे से व्यक्त नहीं कर रहे थे।।

       भगवान का शुक्र था कि उस दिन उजियारी रात थी मतलब चांद की रोशनी पूर्णतः धरती पर पड़ रही थी लेकिन चाहे जो हो रात तो रात होती है, कहीं उल्लू की आवाज डरा जाती तो झाड़ियों में सांप-गोहेरो के सरसराने की आवाज सुनाई दे जाती फिर भी सफर जारी था क्योंकि रूकने का भी कोई फ़ायदा नहींछ था।।

       तभी अचानक ना जाने कहां से दो तीन डाकू झाड़ियों से बड़ी बड़ी कटारों के साथ निकले और तांगा रूकवाकर तांगेवाले और शिवनन्दन को पकड़ लिया और बोले क्या क्या सामान है निकालो।।

     शिवनन्दन सिंह ने अपनी घड़ी, अंगूठी, चेन और बटुआ निकाल कर दे दिया।।

   उनमें से एक बोला, तांगे में जो भी महिला हो उससे कहो अपने सब गहने दे-दे नही तो अभी तुम्हारा गला रेंत दूंगा।।

    ये सुनकर संयोगिता तांगे से उतरकर आई और बोली ऐसा ना कहें भाई जी, ये रहे मेरे सारे गहने और कृपा करके इन्हें छोड़ दीजिए।।

      डाकू बोला तुमने हमें भाई कहा है बहन! बिना गाली के हमसे कोई बात नहीं करता, तुम चिंता मत करो, हमें तुम्हारा कुछ नहीं चाहिए, हम तुम्हें कोई भी नुकसान नहीं पहुंचाएंगे और हम में से कोई एक तुम लोगों को तुम्हारे गांव तक छोड़ कर आएगा क्योंकि आगे और भी डाकू मिल सकते हैं।।

     और ऐसा ही हुआ, आधी रात तक सब घर पहुंच गए।।

संयोगिता ने शिवनन्दन सिंह से पूछा, ऐसा भी क्या गुस्सा कि आधी रात को शादी का घर छोड़ दिया।।

     था कुछ कारण किसी का दिल जीतना था जो अभी तक नहीं जीत पाया, किसी को मुन्ने की मां कहने का हक़ पाना है, शिवनन्दन सिंह बोले।।

   ये सुनकर संयोगिता शरमा गई।।

 फिर शिवनन्दन सिंह ने पूछा, आप भी तो अपनी जान जोखिम में डालकर तांगे से उतर पड़ी।।

    हां, मुझे भी तो किसी का दिल जीतना था ताकि मैं भी किसी को मुन्ने के बाबा कह सकूं, संयोगिता बोली।।

   तो बनोगी मेरे मुन्ने की मां, करोगी एक बार सबके सामने मुझसे ब्याह..., शिवनन्दन सिंह ने संयोगिता से पूछा।।

    और संयोगिता शरमाते हुए शिवनन्दन सिंह के गले लग गई, आज दोनों दिल से एक-दूसरे के हो गए थे।।

    और मुन्ना को सदा के लिए मां का स्नेह मिल गया था।।



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