rekha karri

Thriller Others

3.9  

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समय बदल जाता है यादें रह जाती हैं

समय बदल जाता है यादें रह जाती हैं

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बात उस समय की है जब हमारी ग्यारहवीं की परीक्षा ख़त्म हो गई थी और हमारे माता-पिता मेरी शादी की बात चलाने लगे थे माँ ने कहा कि शादी के फ़िक्स होते तक सिलाई कढ़ाई सीख ले और मेरा वहाँ दाख़िला दिलाया ताकि मैं कुछ काम सीख लूँ। वहाँ मेरी मुलाक़ात बहुत सारी लड़कियों से हुई थी पर एक लड़की जो हमारे ही गाँव से थी और हमारी ही भाषा बोलती थी मेरे क़रीब आ गईं थीं। जिसका नाम हेमा था अपने माता-पिता की अकेली संतान थी माँ के गुजरने के बाद पिता ही उसे पाल रहे थे।

मैं यह सब बातें आपको इसलिए बता रही हूँ क्योंकि हेमा सुबह के कॉलेज में पढ़ती थी जो सुबह सात बजे शुरू होती थी और दोपहर बारह बजे ख़त्म हो जाती थी। जब बातों बातों में मैंने उसे बताया था कि मैंने पढ़ाई छोड़ दिया है तब उसने मुझे मोटिवेट किया और कॉलेज में पढ़ने के लिए प्रोत्साहन भी दिया था। वह उस कॉलेज में राजनीति में एम ए कर रही थी। जब मैंने उसे बताया था कि घर में माता-पिता और दादा दादी भी कॉलेज जाने के खिलाफ हैं तो वह एक दिन सिलाई कक्षा के बाद हमारे घर आकर माता-पिता को समझाया और यह भी कहा कि जब शादी फ़िक्स होगी तब पढ़ाई छुड़वा दीजिए तब तक मेरे साथ जाएगी। किस मूड में थे मालूम नहीं पर घर में सबने हामी भर दी थी। वैसे हमारे यहाँ मेरी बुआ ने उस समय बी ए किया था। घर में सबकी रजामंदी के बाद मैंने कॉलेज में दाख़िला लिया था। उस कॉलेज में लड़कियों को लड़कों से आधा फीस भरना पड़ता था कि जैसे लड़के चौदह रुपये भरते थे तो हम सात रुपए भरते थे। 


घर में सब ने कहा कि कॉलेज जा रही हो वह भी लड़कों के साथ पढ़ना है सिर नीचे करके जाना है साड़ी पहनकर जाना है हेमा के साथ मिलकर रहना है ऐसे बहुत सारी हिदायतों के तहत पिताजी ने एक सौ बीस रुपये एडमिशन फ़ीस दिया था। मैंने किसी तरह कॉलेज में दाख़िला ले लिया था। रोज़ हेमा के साथ जाना और उसी के साथ मिलकर आना यही मेरा रोटीन हो गया था। एक साल में हेमा का एम ए हो गया था और मैं अपनी दूसरी सहेलियों के साथ अपनी पढ़ाई करने लगी थी। 

मेरे पिताजी मुझे दस रुपये देते थे फ़ीस भरने के लिए सात रुपये फ़ीस तीन रुपये मेरी पॉकेट मनी। हम जैसे ही कॉलेज ख़त्म होता था मार्निंग शो पिक्चर देखने भागते थे। उस कॉलेज में पचास प्रतिशत बच्चे नौकरी करने वाले होते थे जैसे ही नौ बजता था ऑफिस के लिए भागते थे। हमारे साथ भी एक लड़की सुधा पढ़ती थी जो किसी प्रेस में काम करती थी। मेरे कॉलेज के तीन साल कैसे बीत गए पता ही नहीं चलता था। आखिरी साल ख़त्म हुआ अभी परीक्षा परिणाम भी घोषित नहीं हुआ था और मेरी शादी हो गई थी। समय तो बीत गया था परंतु यादें तो रह गई जिन्हें भूल नहीं सकते हैं। किसी ने सच ही कहा कि 

"यादें न जाए बीते दिनों की दिन जो पखेरू होते तो पिंजरे में मैं रख लेता पालता इनको जतन से मोती के दाने देता सीने से रखता लगाए। "



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