Vinita Shukla

Inspirational

4.5  

Vinita Shukla

Inspirational

समाधान

समाधान

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“ओह माँ...परेशान हो गयी हूँ मैं...भानुमती नाम की इस बला से”

“कौन भानुमती? किसकी बात कर रही हो?”

  “अरे वही भानुमती प्रकाश...बताया तो था आपको...मामाजी के बैंक में, जो नये मैनेजर आये हैं ना- प्रकाश राव जी; उनकी बेटी” वर्तिका ने झुंझलाते हुए, शिकायत की. ‘हाँ जानती हूँ...पर उससे तुम्हें समस्या क्या है? !” वर्तिका की माँ सुलोचना ने हैरानी से पूछा. “एक समस्या हो तो बताऊँ...उसने तो मेरा जीना हराम कर दिया है. इतनी चिपकू है कि क्या कहूँ ! हर वक़्त गोंद लगाकर, मुझसे चिपकी रहती है...आई ऍम फीलिंग सफोकेटेड !”

 “तो मैं क्या करूँ...? तुम १५ साल की हो गई हो; समझदार हो. तुमको अपनी दिक्कत का हल, अपनेआप ढूंढना चाहिए.”

“पर ये सब परपंच तो... मामाजी का फैलाया हुआ है; ना वे अपनी एनिवर्सरी की पार्टी में, भानुमती की मुझसे पहचान करवाते और ना ही वह मेरे पीछे लगती !” वर्तिका की उत्तेजना, बढ़ती जा रही थी. “बीनू” सुलोचना ने अधीर होकर, बेटी को उसके नाम से पुकारा, “तुम नई पीढ़ी वालों का, यही तो रोना है...खुद कोई जिम्मेदारी नहीं लेते; हर बात का दोष, दूसरों पर मढ़ देते हो.”

  “यहाँ नई पीढ़ी, पुरानी पीढ़ी, कहाँ से आ गई? मामाजी की पार्टी में, उससे प्रेम से दो बातें क्या कर लीं - शी इज टेकिंग मी फॉर ग्रांटेड ! ...और फिर...तब मुझे क्या पता था कि वह मेरे ही स्कूल में एडमिशन ले लेगी; वह भी मेरी क्लास में ...और मेरे ही सेक्शन में !”

“देखो बीनू...क्लास का माहौल, उसके लिए नया है. वह अभी, हाल में ही तो आयी है...दूसरी सहेलियाँ बनाने में, उसे समय लगेगा...तब तक उसे, थोड़ा- बहुत झेल लो” माँ की, अपनी बेटी को, सलाह थी. “यह तो आपने खूब कहा माँ...पर ऐसा कभी नहीं होगा ! उसकी हिन्दी इतनी बेकार है कि सब उसकी खिल्ली उड़ाते हैं...हिन्दी का, उसका ज्ञान, बॉलीवुड मूवीज और चंद हिन्दी धारावाहिकों तक सीमित है. स्त्रीलिंग और पुल्लिंग का, भेद तक नहीं पता. ‘मैं खाता हूँ...डैडी कहती है’- इस तरह बोलती है.’’ कहते कहते वह माँ को देखने लगी.

उसकी माँ सोच में थी. उसने अपना अंतिम अस्त्र छोड़ा, “ भानुमती के कारण... मेरी अपनी फ्रेंड्स, मुझसे कन्नी काटने लगी हैं. शी इज सो इरीटेटिंग ! टीचर्स उसे, मेरी ‘लायबिलिटी’ मानती हैं. हिन्दी मिस ने तो यहाँ तक कहा कि मैं होमवर्क में, उसकी सहायता कर दिया करूँ... !”

 सुलोचना गंभीर हो गई और बोली, “अभी पिछले महीने ही, तुमने भाषण- प्रतियोगिता में, धुआंधार भाषण दिया था...याद है- अमृत महोत्सव पर. इतना धुआंधार... कि तुम्हें उसके लिए, प्रथम पुरस्कार मिला था !”

“हाँ...पर उसका, इससे क्या सम्बन्ध? !” वर्तिका, माँ की बात में उलझ गई थी. उनकी गहरी दृष्टि, उसे असहज बना रही थी. उसकी आँखों में, एक सहमा हुआ सा, प्रश्न उतर आया. सुलोचना अब मुद्दे पर आ रही थी, “ तुमने कुछ ऐसा कहा था कि हमारे भारत की अखंडता, पूरे विश्व के लिए, एक मिसाल है...अलग अलग भाषा, अलग अलग रहन- सहन और आचार- विचार के बावजूद... हम एक सूत्र में बंधे हैं”

“तो?”

“तो जब, एक कन्नड़ भाषाभाषी का, साथ मिल रहा है...उस मित्रता से- कर्नाटक जैसे प्रांत की, समृद्ध परम्पराओं को, जानने का मौका मिल रहा है; तुम्हें उससे परहेज क्यों?” बेटी की आँखों में, सीधे देखते हुए, माँ कहती चली गईं, “ सांस्कृतिक आदान- प्रदान के लिए तो विशेष प्रयास भी किये गये हैं. ”

वर्तिका अभी भी भ्रमित थी. माँ ने आगे कहा, “ भानुमती के पिता को ही लो; वे केन्द्र- सरकार के, कर्मचारी हैं. उनका स्थानान्तरण, देश के दूसरे प्रान्तों में, हो सकता है - जहाँ जहाँ, उनके बैंक की शाखाएँ हैं. यह भी एक तरह से, विविध प्रदेश, किन्तु देश एक- वाली अवधारणा को पुष्ट करता है.” सुलोचना ने पाया, बेटी की जिज्ञासा, पूरी तरह शांत नहीं हुई थी. वह थोड़ी देर चुप रही फिर स्नेह से, बेटी के, बाल सहलाते हुए बोली, “आज मैं तुम्हें, राष्ट्रीय- एकता शिविर के बारे में बताऊँगी. जब मैं तुम्हारे बराबर थी- मुझे उसमें, प्रतिभाग करने का, अवसर मिला था”

“हाँ माँ ! ” बीनू उत्साह में, आकर बोली, “तभी तो आपको... ढेर सारे, गाने आते हैं- देशभक्ति वाले !” सुलोचना मुस्कराई. कुछ पलों तक, सन्नाटा पसरा रहा. वर्तिका की उत्सुकता, माँ से, छुप ना सकी. वे कहने लगीं, “३० साल पहले की बात है. तब मैं, नवीं कक्षा में पढ़ती थी. मुझे पता चला कि मेरा चयन, राष्ट्रीय एकता शिविर हेतु, कर लिया गया है. यह एक गौरव की बात रही कि देश भर से, जिन ७५ छात्राओं को, चुना गया...उनमें से पाँच, हमारे विद्यालय की थीं. दो तो मेरी ही क्लास में थीं...और बाकी दो- दसवीं में”

बीनू, सुलोचना को, ध्यान से सुन रही थी. बात आगे बढ़ी, “ शिविर में, कर्नाटक, बिहार, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल और सिक्किम से बालिकाएँ आई थीं. हर एक प्रांत से १५ बालिकाएँ. हम सब मिलकर, खूब मस्ती करते. अहिन्दी भाषी क्षेत्रों- पश्चिम बंगाल, सिक्किम और कर्नाटक की प्रतिभागियों संग, अंग्रेजी में बतियाना पड़ता; किन्तु इससे कोई अंतर नहीं पड़ा. सब लडकियाँ, देर रात तक, हंसती- बोलतीं और चुहल करतीं”

“वाह ! क्या मज़े का अनुभव रहा होगा”

“ हाँ... ! शिविर की तरफ से, हमें पिकनिक भी ले जाया गया और आसपास के महत्वपूर्ण पर्यटक- स्थलों का दौरा भी हमने मिलकर किया. हमारा शिविर, इलाहाबाद के प्रतिष्ठित, क्रॉसवेट गर्ल्स इंटर- कॉलेज में था. हमने नेहरु परिवार के ऐतिहासिक, आनंद- भवन को देखा. वह इमारत, संग्रहालय में तब्दील कर दी गई थी. वहाँ हमें कई ऐतिहासिक - तथ्यों का पता चला...स्वतंत्रता- संग्राम से जुड़ी, जानकारी भी मिली. हम बनारस की तंग गलियों में घूमे. काशी विश्वनाथ मंदिर के, स्वर्णिम स्तूप को देखकर, मुग्ध हुए . सारनाथ जैसे पवित्र स्थल में... प्राकृतिक- सौन्दर्य के घेरे में... आत्मिक शांति का, अनुभव किया”

“कितना अद्भुत...इनक्रेडिबल !”

“इससे भी अधिक अद्भुत था - नई सखियों का साथ, उन्हें जानने- समझने का सुयोग और भारत के विभिन्न अंचलों की, वैभवशाली परम्पराओं का, ज्ञान प्राप्त करना” बेटी ने माँ को, अपने ही भीतर, कहीं गहरे तक, डूबे देखा. उसे रोमांच हो आया...एक झुरझुरी सी हुई !

 कहानी चलती रही, “हम मंच पर, अपने लोकगीतों और लोकनृत्यों को पेश करते...नाट्य- प्रस्तुतियाँ भी रहतीं...अहिन्दी भाषी कन्याएँ, अपने गाने और बोलचाल के कुछ वाक्य, अनुवाद करके बतातीं...मंच से बाहर, खेलकूद - प्रतियोगिताएँ भी होतीं”

“तब तो आपने बहुत कुछ सीखा होगा?” सुलोचना का वाक्य, पूरा होने के पहले ही वर्तिका के मुख से निकला.

बिटिया का अधैर्य भांपकर, एक दबी- दबी सी मुस्कान, उसकी माँ के चेहरे पर खिल उठी और वे बोल पडीं, “कितने ही अनमोल पल जिए- हमने उस मंच पर...और उस क्रीड़ास्थल पर ! हमारी अभिरुचियाँ, मानों एकरूप हो गई थीं... ज्यों देश की आत्मा, हमारे मनप्राण में, समा गई हो...जब हम, देशप्रेम के गीतों का, समवेत, सस्वर वाचन करते- तो भावनाओं का समन्दर, हिलोर मारने लगता...”

मंत्रमुग्ध सी बीनू को, निहारते हुए, वे पुनः बोलने लगीं, “सिक्किमी कन्याओं के साथ आई शिक्षिका ने, एक मिठास भरा, प्रेमगीत सुनाया- ‘मुसि मुसि हांसि दे, नलई लई...’. जब उनसे, इसका मतलब पूछा गया तो वे शर्म से लाल हो गईं... उन लोगों का, एक दूसरा गाना भी था- ‘चंग्वा हे चंग्वा, सुनि सुनि हे चंग्वा, डम्पुलिआज़ा क्या बन्छा, ज़म कता ज़म... मायचंग हे मायचंग, सुनि सुनि हे मायचंग...’..."

"क्या था इस गाने में?"

"घर के सबसे छोटे लड़के- चंग्वा और घर की सबसे छोटी लड़की- मायचंग, के बीच का, सम्वाद था”

"सुनने में दिलचस्प लग रहा है...नाइस रिदम...और कर्नाटक की लडकियाँ?” कौतुहल बढ़ने लगा था.

“एक कन्नड़ लड़की, जो मैसूर से थी, मेरी अच्छी दोस्त बन गई. उसने मुझे कन्नड़ भाषा की, वर्णमाला सिखाई...अपनी लिपि में, मेरा नाम, लिखना सिखाया और अपने हस्ताक्षर भी- करके, मुझे दिखाए”

 “क्या बात है...बहुत खूब !” बिटिया के उत्साह से, माँ भी उत्साहित हो गईं थीं, “मेरी उस सहेली का नाम अभिरा था. दिखने में कुछ कुछ, तुम्हारी भानुमती जैसी ही थी” सुलोचना के यह बताने पर, वर्तिका थोड़ा झेंप गई. माँ उसकी खिसियाहट, देख ना पाईं और कहती चली गईं, “उसने भोलेपन से, सुझाव दिया था- ‘जब बड़ी होकर, तुम शादी करना तो अपने पति के साथ...ऊटी जरूर जाना...बड़ी ही सुंदर जगह है. मेरे शहर से, काफी पास है- यह जगह’...”

इस पर, हंसी का सोता, बह निकला...थोड़ी देर तक, सुलोचना और वर्तिका, ठहाके लगाती रहीं; फिर माँ ने, बिटिया को बताया, “सच्ची कहूँ बेटा...जब पहली बार, तुम्हारे डैड के साथ, ऊटी गई थी...तो अभिरा बहुत याद आई थी !”

“पश्चिम बंगाल की छात्राएँ?” बीनू एक बार में- सब कुछ, जान लेना चाहती थी !

“वे तो बहुत होशियार थीं. कर्नाटक वाली लड़कियों की तरह, अंग्रेजी अच्छी बोल लेती थीं. सिक्किमी और कन्नड़ -सखियों की भाँति, खेलकूद में भी निपुण...और रवीन्द्र- संगीत तो जैसे...उनके अंतस में, बसा था ! ‘जोदि तोर डाक शुने केउ ना आशे, तौबे एकला चौलो रे’...उन स्वरलहरियों में, गूंजने वाला जीवन- दर्शन... हौले से, मर्म को छू लेता ! ‘आमारो बानो, तुमारो दानो, तुमि धोन्नो धोन्नो रे...’.... गाने में, तरंगित होने वाली भक्ति- भावना, मन भिगो देती थी !”

  लगातार बोलते हुए, माँ का गला, सूखने लगा था. बिटिया ने फौरन उठकर, गिलास में पानी भरा और उन्हें थमा दिया. गला तर करते हुए, वे कुछ सोचने लगीं... कुछ लम्हों के लिए, वक्त थम सा गया. बीनू को, प्रतीक्षा करती हुई पाकर, माँ सचेत हुईं और चर्चा का, छूटा हुआ सिरा, पकड़ लिया, “समय की तिजोरी में, क्रॉसवेट गर्ल्स इंटर कॉलेज की...कितनी ही कीमती यादें हैं...इलाहाबाद के बुद्धिजीवी, प्रशासनिक अधिकारी और विद्वान, हमसे वार्ता करने आते थे. मेरी प्रिय कवियत्री, श्रीमती महादेवी वर्मा जी को भी आना था...किन्तु अस्वस्थता के कारण, उनका आना न हो सका ...प्रतिष्ठित साहित्यकार, डॉक्टर रामकुमार वर्मा जी के, दर्शन का सौभाग्य, हमें अवश्य मिला... ! “

  सुधियाँ उमग रही थीं, “ हमने अपनी क्राफ्ट- टीचर द्वारा बनवाये गये, हस्तशिल्प के नमूनों को, प्रदर्शनी- हॉल में रखा. क्राफ्ट- मिस, हमारे साथ ही आयी थीं. उन्होंने वहाँ एक दीवार पर... साड़ी से, मोर बनाकर टांक दिया...लोककला और शिल्प की, अनोखी झांकी थी वहाँ...हर प्रदेश का, अपना कला- वैभव... !”

“सुंदर आयोजन... !” बीनू कहे बिना, रह न सकी.

“आमंत्रित विद्वजनों का सान्निद्य, हमें उल्लसित करता. उनके वचन, हमें जीवन का पाठ पढ़ाते...उनके समक्ष, सांस्कृतिक कार्यक्रमों को, प्रस्तुत करके... हम भी उनका अभिनंदन करते...”

 “तब तो आप सब, बड़ी तैयारी से गई होंगी...बहुत सराहना पाई होगी आपने !” बिटिया को, माँ पर, गर्व होने लगा था. “तुमने सही कहा बेटा ! परन्तु एक बार...”

“एक बार...??” त्वरित प्रश्न उभरा.

“ प्नतिभाग करने आयी, किसी शिक्षिका ने...हम कुछ लड़कियों को, बिना पूर्वाभ्यास के ही; गाने भेज दिया... हमारी खूब भद्द पिटी”

“फिर आपने क्या किया? !” वर्तिका उद्विग्न हो उठी

“मैं लगभग रुआंसी होकर, अपनी क्राफ्ट- मिस के पास गयी और उनसे फरियाद की. वे एक परिपक्व इंसान थीं. उन्होंने मुझे सलाह दी, ‘ बेटी ! जो हुआ, बहुत गलत था...लेकिन हम यहाँ सहअस्तित्व और सहिष्णुता का पाठ, पढ़ने आये हैं...अतः बड़प्पन दिखाते हुए, हमें दूसरों की भूल, नज़रअंदाज़ करनी चाहिए’ मैंने उनकी बात रख ली...इसके चलते, उनका विशेष स्नेह, मुझ पर बरसने लगा...”

  सुलोचना ने बेटी पर, भरपूर दृष्टि डालते हुए, कहा, “ तुम जान ही गई होगी कि उदारता, किसी न किसी रूप में फलीभूत होती है” माँ का अभिप्राय समझकर, बीनू लज्जित और संकुचित हुई; परन्तु बिटिया की, मनोदशा से अनजान, वे बोले जा रही थीं, “कुढ़ते रहने से भला क्या फायदा? ! एक प्रतिभागी ने तो... मेरे लेख को देखकर, यहाँ तक पूछ डाला- ‘कहाँ से टीपा है?’ क्रोध तो आया पर साथ ही... क्राफ्ट- मिस की सीख भी, स्मरण हो आयी...इसी से मैंने, वह बेतुका सवाल भी, सुना- अनसुना कर दिया”

  “ममा यू आर ग्रेट...आप महान हो...”

  “नहीं बिटिया ! मुझे भी, धीरे- धीरे... यही दंभ रहने लगा था लेकिन एक दिन...मेरा सुंदर भरम, टूट गया !” ममा की बात सुनकर, बीनू चौंक पड़ी थी. वे अपनी रौ में, कहती गईं, “ उत्तर प्रदेश के, तीन विद्यालयों से, छात्राएँ, वहाँ पहुँची थीं. मेरे स्कूल की, पाँच कन्याएँ- कानपुर से...पाँच कन्याएँ, नैनीताल से और शेष पाँच- गढ़वाल के, किसी ग्रामीण इलाके से. हम कानपुर वाली लडकियाँ और हमारी नैनीताल की सखियाँ, कान्वेंट स्कूलों से थीं और शहरी संस्कृति, हमारे सर, चढ़कर बोलती थी...”

  “और गढ़वाल की छात्राएँ...” वर्तिका को अपना ही स्वर, डूबता हुआ सा लगा !

  “ गंवार और पिछड़ा हुआ जानकर...हम पीठ पीछे... उनका मजाक उड़ाने से, बाज न आते. वे अपनी एकमात्र परफॉरमेंस- अपने लोकनृत्य ‘ओ बिना कसके जानु दर हटा’ के बारे में भी, कुछ बतला नहीं सकी थीं...हिकारत की एक दूसरी वजह, यह भी थी कि जब, उत्तर प्रदेश का, प्रतिनिधित्व करने वाली, प्रस्तुतियाँ देनी होतीं - तो उन सबका योगदान, शून्य होता...इस कारण, हमारी अध्यापिकाएं भी; उन्हें और उनकी शिक्षिका को- ख़ास पसंद नहीं करती थीं”

 बीनू को जान पड़ा- कहानी का चरम- बिंदु, आने ही वाला था.

माँ का बोलना जारी रहा, “ हर प्रांत की कन्याओं को, बारी- बारी से, अपने प्रदेश के; सुस्वादु व्यंजन बनाकर, सबको खिलाने होते. जब हमारी बारी आयी तो...” सुलोचना ने उसांस लेकर कहा, “तो...हम कुछ भी पका नहीं सकीं...यद्यपि इस हेतु, सहायिका भी मौजूद थी; किन्तु...कानपुर और नैनीताल की, प्रतिनिधि बनी, हम १० कन्याएँ - मिलकर भी, यह साहस, ना कर सकीं”

  “ पर क्यों?” वर्तिका, यह पूछते हुए, थोड़ा हिचक रही थी. “क्योंकि हम, सुविधाभोगी जीवन की आदी थीं...७५ सदस्यों के लिए, भोजन बनाने का, सोच भी कैसे सकती थीं? ! हमें पछतावा हो रहा था कि हमने पहले ही, इस बाबत, कुछ क्यों न सीखा...सिक्किम की प्रतिभागियों के ‘डंपलिंग्स’, बिहार का बाटी- चोखा और कर्नाटक का बीसी बेले भात, खाने के बाद...हम खुद को छोटा, महसूस कर रही थीं...अपनी किरकिरी होने से, रोकने का, कोई उपाय, हमें सूझता न था !”

“ओह नो !” कहानी का यह अप्रिय मोड़, बीनू को जरा नहीं सुहाया.

  “जानती हो बेटा...हमें उस स्थिति से, उन गढ़वाली बालिकाओं ने ही निकाला- जिन्हें हम बैकवर्ड और गंवार, समझती रहीं...उन पाँच ने मिलकर, इतना स्वादिष्ट खाना बनाया... कि सब उँगली चाटते रह गये ! बड़ी बात यह कि उन्होंने अपने काम का श्रेय, हमारे साथ भी बांटा- जबकि हम उन्हें...कुछ भी सहयोग, नहीं दे पाई थीं...सही अर्थों में, उन्होंने ही, शिविर की मूल भावना को, पहचाना था”

 कथा का समापन करते हुए, माँ ने बेटी से, सवाल किया, “अब बताओ, तुम्हें इससे, क्या सीख मिली?”

“यही कि हमें, किसी को भी छोटा नहीं समझना चाहिए...सबको साथ लेकर चलना चाहिए” “सही कहा ! अनेकता में एकता के लिए, हमें बहुत कुछ सहने और त्याग करने की आवश्यकता है...पता है- कैंप के समापन पर... विदाई के समय, हम सब सखियाँ, गले मिलकर ऐसे रोयीं - जैसे सगी बहनों से, बिछड़ रही हों ! ”

 “ममा मैं...भानुमती से दोस्ती नहीं तोडूंगी- कोई चाहे जो कहे !”

  माँ मुस्करा रही थीं !


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