श्रीराम बटोही की पथिकथा
श्रीराम बटोही की पथिकथा
दशरथनन्दन श्रीराम जन जीवन में समाए हैं। चार सौ वर्षों से ऊपर तुलसीदास की रामायण को रचे हुए हो गए पर इसकी लोकप्रियता में कमी नहीं आयी।यह कालजयी रचना है। कोई भी प्रसंग रामचरितमानस का ले लें, सब में तुलसीदास की रससिद्ध लेखनी से निकली रामकथा अद्भुत है।
राम की पंथ कथा तो इतनी सरल एवं सुंदर है कि उसे पढ़ने से पता चलता है कि राम इतने जन- जन प्रिय क्यों हैं। अयोध्या का नाजों और लाड़ों से पला राजकुमार बिना किसी अपराध के विमाता के कहने पर राजमहल से, राजधानी से और नगर जीवन से निष्कासित कर दिया जाता है और वह जटाजूट बॉंधे मुनि वेश में पैदल ही बिना पदत्राण के भारत के उत्तर में स्थित अयोध्या से दक्षिण की ओर प्रयाण करते हैं।
शृंगवेरपुर में गंगापार करते समय निषाद से भेंट होती है, केवट गंगापार कराता है, निषाद प्रेमवश उन्हें पहुँचाने साथ में जाता है। प्रयाग में भरद्वाज ऋषि से श्रीराम मिलते हैं। वहॉं रात का विश्राम करते हैं, प्रातःकाल गंगास्नान कर चल पड़ते हैं। आगे किस रास्ते से जायें इसके बारे में मुनिवर भरद्वाज जी से श्रीराम पूछते हैं। रास्ता बताने के लिये मुनिवर अपने चार शिष्य उनके साथ करते हैं।
यमुना नदी के निकट पहुँचने पर श्रीराम उन चारों शिष्य ब्रह्मचारियों को विनती करके लौटा देते हैं और यमुना जी के जल में स्नान करते हैं। यमुना जी के जल का रंग श्रीराम के अंग की तरह ही श्याम है। श्याम वर्ण जल में श्याम वर्ण राम स्नान कर रहे हैं, चित्र ऑंखों के आगे खिंच सा जाता है। श्रीराम का सुन्दर श्याम शरीर सद्य जलबिन्दुओं से सुहाया हुआ अनुपम सौंदर्य की सृष्टि कर रहा है। यमुना के तीर पर रहने वाले नर- नारी इस अद्भुत सौंदर्य के आकर्षण से खिंचे चले आते हैं और श्यामवर्ण राम और दामिनी की दमक वाली गौर वर्ण सीता की सुंदरता को देखकर अपने भाग्य के बड़ाई करते हैं।
उस ज़माने में न समाचार पत्र थे, न टेलिविज़न, न कंप्यूटर, न ई-मेल, न फ़ोन। एक जगह से दूसरी जगह समाचार भेजने का कोई शीघ्रगामी साधन नहीं था। या तो एक कान से दूसरे कान ख़बर फैलती थी, या फिर पैदल या सवार के द्वारा समाचार मिलता था।राम वन ही वन में घूम रहे थे। न नगर में जाते हैं न ग्राम में।वे ग्राम के बाहर ही बाहर से निकल जाते हैं। लेकिन राम लक्ष्मण एवं सीता के पैदल भ्रमण की कथा सब और पहुँच जाती है। साधारण लोगों के मन में उनका परिचय जानने की उत्सुकता होती है। ग्राम के वयोवृद्ध बुद्धिमान् आदमी, जिन तक राम के वन गमन की कथा पहुँच चुकी है, वे अनुमान लगा लेते हैं कि रामचंद्र कौन है और लोगों का बताते हैं कि पिता के आज्ञा से वन में श्रीराम चले आए हैं।सुनकर लोग दुखी होते हैं और कहते हैं कि-" राजा और रानी ने अच्छा नहीं किया, वे पिता व माता कैसे हैं जिन्होंने ऐसे सुकुमार बच्चों को जंगल में भेज दिया।"
यहॉं यमुना के पास में राम बहुत प्रकार से समझाकर निषाद को विदा करते हैं जो राम की आज्ञा पाकर लौट जाता है। यमुना जी को प्रणाम करके और उनकी बहुत प्रकार से बड़ाई करते हुए श्रीराम वन में आगे प्रसन्नतापूर्वक चलते जाते हैं।
श्री राम ,लक्ष्मण ,सीता अदभुत रूप सौंदर्य एवं राजलक्षणों के धनी नंगे पैर ही कठिन कंकरीली भूमि पर वर्षा हिम आतप सहते वन में आगे चले जा रहे हैं।
उनकी पंथ कथा और रास्ते में मिलते बटोहियों एवं नर- नारियों की राम को इस तरह वन-वन भटकते हुए देखने के विषाद का वर्णन बड़ी सुंदरता से राम चरित मानस में तुलसीदास जी ने किया है। राम जन-मन-रंजन कैसे बने इसका भी रहस्य पता चल जाता है। साधारण लोगों से मिलते हुए, साधारण लोगों में अपने प्रीति स्नेह बाँटते हुए राम चले जाते हैं और बेरोकटोक उनका दर्शन पाकर लोग अपने भाग्य की सराहना करते हैं।
पुरुष तो घरों से निकल आते हैं, स्त्रियॉं भी आती हैं क्योंकि राम अकेले नहीं है, साथ में आई हैं सिया सुकुमारी भी, जो काननजोगु नहीं है; फिर भी पति निष्ठा, कर्तव्यपरायणता एवं राम के प्रति प्रेम के कारण सब भोगों को तजकर राम के साथ पैदल ही वन- वन घूमते प्रियतम का साथ निबाहे जा रही हैं ;न थकित होती हैं, न क्षुभित होती हैं। राम साथ हैं, वही उनका परम सुख है।
रास्ते में जाते हुए उन्हें अनेक पथिक मिलते हैं, जो दोनों भाईयों को देखकर कहते हैं कि-"तुम्हारे सब अंगों में राजचिह्न देखकर हमारे हृदय में बड़ा सोच होता है। ऐसे राजचिह्नों के होते हुए भी तुमलोग पैदल चल रहे हो तो हमारी समझ में ज्योतिषशास्त्र झूठा है। भारी जंगल और बड़े-बड़े पहाड़ों का दुर्गम रास्ता है, तिस पर साथ में सुकुमारी स्त्री है।हाथी और सिंहों से भरा भयानक रास्ता है। यदि आज्ञापालन तो हम भी साथ चलें और जहॉं तक आप जायेंगे, वहॉं तक पहुँचाकर लौट आयेंगे।"
वे यात्री प्रेमवश पुलकित शरीर और नेत्रों में जल भरकर पूछते हैं, किन्तु कृपासिन्धु श्रीरामचन्द्रजी उन्हें विनययुक्त मृदुवचन कहकर लौटा देते हैं। जहॉं जहॉं श्रीरामचंद्र जी के चरण चले जाते हैं, देवता भी उस जगह की सराहना करते हैं। जिस वृक्ष के नीचे प्रभु राम बैठते हैं, कल्पवृक्ष भी उसकी बड़ाई करते हैं। पृथ्वी श्रीराम के चरणकमलों की रज का स्पर्श कर अपना बड़ा सौभाग्य मानती है।
रास्ते में बादल छाया करते हैं। पर्वत, वन और पशु- पक्षियों को देखते हुए राम चले जा रहे हैं। सीताजी और लक्ष्मीजी सहित श्रीराम जब किसी गॉंव के पास से निकलते हैं, तो उनका आना सुनते ही गॉंव के बालक- वृद्ध स्त्री- पुरुष अपने घर और काम- काज को भूलकर उन्हें देखने के लिये चल पड़ते हैं और उनका रूप देखकर सुखी होते हैं। मानों दरिद्र ने चिन्तामणि पा ली हो। कोई उनके साथ चलने लगते हैं। कोई बड़ की सुन्दर छाया देखकर वहॉं नरम घास और पत्ते बिछाकर कहते हैं-" थोड़ी देर यहॉं बैठकर थकावट मिटा लीजिये।"
कोई घड़ा भरकर पानी ले आते हैं और कहते है -"आचमन कर लीजिये"।
उनके प्रिय वचन सुनकर और सीताजी को मन में थकी हुई जानकर श्रीराम बड़ की छाया मे घड़ीभर विश्राम कर लेते हैं। स्त्री- पुरुष श्रीराम की शोभा देखते हैं और आनन्दित होते हैं। श्रीराम का नवीन तालवृक्ष के समान श्याम शरीर है। विद्युत् के रंग के लक्ष्मण जी हैं। दोनों ने वल्कल वस्त्र पहना है। कमर में तरकस है, हाथों में धनुष- बाण है। सिर पर सुन्दर जटा का मुकुट है। विशाल नेत्र हैं।
गॉंव की स्त्रियाँ सीता जी के पास आती हैं और अत्यन्त स्नेह से पूछते हुए सकुचाती हैं फिर सीधे-सादे कोमल वचन कहती हैं-" मरकतमणि और स्वर्ण के समान श्याम और गौर वर्ण के तुम्हारे कौन हैं"।
सीताजी सुन्दर नेत्रों को तिरछा करके उन्हें राम के बारे में इशारे से बताती हैं और लक्ष्मण को छोटा देवर बताती हैं। यह सुनकर गॉंव की स्त्रियॉं सीता जी को आशिष् देती हैं।
लोगों से रास्ता पूछकर फिर सीता जी लक्ष्मण जी सहित राम जी आगे गमन करते हैं। विधाता को दोष देते हुए लोग लौटते हैं और कहते हैं कि-" विधाता के सभी काम उलटे हैं। जिसने समुद्र को खारा बनाया और इन राजकुमारों के वन में भेजा। यदि ये जंगल में बिना जूते के चल रहे हैं तो बेकार ही वाहन रचे। ये जंगल में ज़मीन पर ही कुश और पत्ते बिछाकर सोते हैं तो सुन्दर सेज और महल व्यर्थ बनाये। ये कन्द मूल खाते हैं तो सुस्वादु भोजन व्यर्थ हैं। यदि इन्हें वनवास दिया तो रास्ता पुष्य क्यों नहीं बनाया।" श्रीराम का दर्शन पाकर गॉंव - गॉंव में लोगों को आनन्द हुआ। कुछ लोगों ने राजा- रानी को दोष लगाया।
पथिक रूप श्रीरामचन्द्र जी की सुन्दर कथा सारे रास्ते और जंगल में छा गई। श्रीराम मार्ग के लोगों को सुख देते हुए वन को देखते हुए श्रीसीताजी और लक्ष्मण जी के साथ चले जा रहे थे। बटोही श्रीराम की छवि देखकर पशु पक्षी मोहित हो गये, पथिक श्रीराम ने उनके चित्त भी चुरा लिये। आज भी जिसके हृदय में कभी श्रीसीता लक्ष्मण सहित राम बटोही आ बसें तो वह परमानंद के उस मार्ग को पा जायेगा, जिसे कभी कोई विरले मुनि पाते हैं।