शोध

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नंदिता गेट पर खड़ी होकर पाँच वर्षीय बेटा 'नंदू' के आने का इंतजार कर रही थी, तभी उसका उसकी सहेली सौम्य आ गई। दोनों खड़े-खड़े वहीं बातें करने लगी। बात अभी अधूरी ही थी कि नंदू की बस आ गई। नंदू बस से उतरते ही आवाज़ लगाया माँ- नंदिता ने कहा - “तुम अंदर चलो मैं आ रही हूँ।"

नंदू बाहर बरामदे में ही अपना बैग कुर्सी पर फेंकते हुए पुनः चिल्लाया माँ।

नंदिता उसे हाथ से इशारा कर सौम्या के बात ख़त्म करने का इंतज़ार करने लगी। तीसरी बार नंदू अपनी पूरी ताकत से चीखा "माँ ...माँ… आओगी या नहीं…"

नंदिता लगभग दौड़ते हुए अंदर आई। "क्या बात है ? इतना क्यों चिल्ला रहे हो ? आंटी क्या सोचेंगी … कैसा लड़का है, मम्मी इसे कोई तरीका नहीं सिखाई" नंदू गुस्से में ही बोला - “मैं तुम्हें ये बताना चाहता था कि जब तुम मुझे किसी के सामने डांटती हो तो मुझे भी ऐसा ही बुरा लगता है। अब समझी.."

       

बच्चों के मन में हिलोरे लेती बदले की अद्भुत भावना को नंदिता दंग रह गई। उसने नंदू को अभी डाँटना उचित नहीं समझा। चुपचाप उसके कपड़े बदलने लगी। माँ को शांत देख नंदू थोड़ा सहम गया पर थोड़ी ही देर में पुनः बोला - “माँ! आंटी तो अक्सर आती हैं। जब कभी तुम आंटी से बातें करती रहती हो और पापा आ जाते हैं तो तुम तुरंत कहती हो - "मेरे हसबेंड आ गए अब बाद में बातें करुँगी।" जब मैं आया, तो तुम आंटी से क्यों नहीं कही

"मेरा बेटा आ गया अब बाद में बातें करेंगे।" टॉपर नंदिता आज पुनः बाल मनोविज्ञान पर शोध करने को विवश हो गई।

 छोटे बच्चे भी घर में अपना महत्व और सम्मान पिता के समान खोजते हैं।



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