अख़लाक़ अहमद ज़ई

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5.0  

अख़लाक़ अहमद ज़ई

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शिक्षा मंडी में ग्राहक देवता

शिक्षा मंडी में ग्राहक देवता

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संस्थागत स्कूलों की अपनी समस्याएं हैं। खासकर तब, जब उसकी शाखाएं इधर-उधर छतरी हों। नाम होता है कि हम समाज की सेवा कर रहे हैं--हमारी संस्था रूपी वृक्ष कितनी छतनार है! लम्बी-लम्बी डालियां-टहनियां चहु दिशा में अपनी शिक्षा रूपी छाया के जरिए देश को बाईसवीं सदी में ढकेले लिए जा रहे हैं। लेकिन जो टहनी जितना फल देती है मालिकान उतना ही उस पर ध्यान देते हैं। नपा-तुला। ऐसी संस्थाओं के लिए मैनेजमेंट अपने तईं चाहकर भी कुछ नहीं कर पाता। यह छटपटाहट तब और भी बढ़ जाती है जब वह संस्था बाजारवाद के मैराथन में शामिल हो।


इस स्कूल के साथ भी वही हुआ। एक पहाड़ी पर कब्जा कर संस्था का बोर्ड लगा दिया गया। ताबड़तोड़ नर्सरी से प्राइमरी स्कूल के लिए छत डाल दिया गया। बच्चों के लिए गार्डन बनवा दिये गये। झूले वगैरह डलवा दिये गये। कुछ मोअत्बर लोगों की मैनेजमेंट कमेटी बना दी गयी। तीन-चार अध्यापिकाओं की नियुक्ति भी कर दी गयी। अब सवाल उठा कि बच्चे कहां से लाये जायें। सवाल तो बहुत बड़ा था। कमेटी को ध्यान आया कि एमरजेंसी में संजय गांधी ने विभाग को नसबंदी के कोटे बांटे थे जिसका नतीजा यह निकला कि हर विभाग अपने लक्ष्य को पार कर एक-दूसरे को मात देने की फिराक में था। यानी अति सफल फामूला। तो क्यों न यहां भी वही फार्मूला आजमा लिया जाय। यह ध्यान आते ही तुरन्त प्रत्येक सदस्य पर कोटा निश्चित कर दिया गया।


प्रत्येक सदस्य पर दस बच्चों को लाने का लक्ष्य रखा गया। अब वह खुद पैदा करके लावें या किसी दूसरे के बच्चों को चुरा कर लावें, यह सदस्यों की जिम्मेदारी। शुरूआती दौर में सौ-डेढ़ सौ बच्चों की मौजूदगी स्कूल की प्रतिभा को दर्शाने के लिए बुरा नहीं है। मैनेजमेंट कमेटी उंगली पर गिन-गिनकर ही गदगद हुई जा रही थी। स्कूल के रजिस्ट्रेशन का जहाँ तक सवाल है, वह हेड क्वार्टर की समस्या है। जब बच्चों का इंतजाम हो सकता है तो स्कूल का रजिस्ट्रेशन क्यों नहीं हो सकता? फिर शिक्षा निदेशालय को भी तो अपने लक्ष्य की पूर्ति की चिंता होगी ही!


स्कूल के मेम्बरान बच्चों की खोज में चारों दिशा में फैल गये। कस्बे में जहाँ कहीं भी, किसी भी गली-कूचे में बच्चे दिखते तो सदस्यों का खुशी के मारे पचास ग्राम खून बढ़ जाता। वह बच्चे को पुचकारते--


"बड़ा प्यारा बच्चा है!" गंदे, मैले-कुचैले कपड़ों में भी उन्हें संभावित अन्नदाता दिखता। खोजकर्ता अगल-बगल सतर्क नजर दौड़ाते ताकि लोग उनकी तरफ मुखातिब तो हों पर 'बच्चा चोर' न समझें। जैसा कि अक्सर गांव-गिरावं में, खासकर जेठ-बैसाख के दिनों में लकड़सुंघवा का किस्सा हर बच्चों वाले घर में फन उठाकर फुंफकारता रहता है। मां-बाप बच्चों को बताते रहते हैं कि दोपहर को बाहर मत निकलना वरना लकड़सुंघवा लकड़ी सुंघाकर, बोरी में भरकर ले जायगा। जेठ-बैसाख का महीना न भी हो, तो भी लकड़सुंघवा का डर लोगों के दिमाग में थोड़ा - बहुत तो रहता ही है इसलिए थोड़ी-सी असावधानी हुई नहीं कि बे-भाव की पड़ जायगी। ऐसे में भूल-चूक लेनी-देनी का सवाल भी न उठ पायगा।


"किसका बच्चा है?"


"सुअर का बच्चा तो दिखता नहीं, इंसान का ही हो सकता है!" तुनकमिजाज और हाजिरजवाब वालों का कोई एक ठिकाना तो होता नहीं है। वह कहीं भी मिल सकते हैं।


खोजकर्ता पर खिसियाहट का दबदबा बढ़ जाता लेकिन उसे अपने ऊपर हावी नहीं होने देता।


" हीही-हीही…। भाई साहब, आप भी! मेरा मतलब था कि इसके पिता का क्या नाम है?


इस सवाल पर ज्यादातर खामोशी तारी हो जाती।


" आप हैं कौन?"


" मैं शिक्षा विभाग से आया/आयी हूँ।"


'शिक्षा विभाग' मतलब सरकारी महकमा। इस शब्द का इस्तेमाल खोजकर्ता जानबूझ करते ताकि लोगों पर प्रभाव पड़े और उन्हें सरकारी मुलाजिम जैसा मान दें। 'सरकारी' लफ्ज़ में जो तासीर है वह चरक की औषधि में भी नहीं होगी। यह और बात है कि 'सरकारी' लफ्ज़ हरामखोरों का 'जमा' है पर है रुतबेवाला। इसीलिए यह लफ्ज़ सटाक से मुंह से निकला नहीं कि फटाक से दिमाग में घुसा और ताबड़तोड़ असर दिखाना शुरू। लोग ठंडे पड़ जाते। इस बीच उनको दांव मारने का मौका मिल जाता वह बच्चे के सिर पर हाथ फेरते, कपडे़ की क्रीज की परवाह किये बिना सामने बैठ जाते। जरूरत पड़ने पर भसक्का भी मार जाते ताकि बच्चे को उसकी बराबरी का एहसास करा सकें। सबसे पहले उसका नाम पूछते, मां-बाप का नाम पूछते, घर का पता पूछते फिर उंगली पकड़ाकर उसके घर के दरवाजे तक पहुंच जाते। मां-बाप को शिक्षा का महत्व समझाते, अपने स्कूल का पता बताते और दूसरे दिन स्कूल में बच्चा समेत आने की दावत दे आते।


फिर शुरू होता--इंतजार। और इंतजार। हफ्तों गुजर गये, महीना गुजर गया। काफी जद्दोजहद के बाद एक दर्जन बच्चे जुट पाये। समस्या पढ़ाने की नहीं थी। फिर कौन कम्बख्त ज्ञान बांटने के लिए स्कूल खोलता है? एक-दो महीना खर्च हेडक्वार्टर उठा ही सकता था पर उसके बाद तो सब कुछ यहीं से पूरा करना पड़ेगा। एक प्रिंसिपल, तीन टीचर, एक माली-कम-प्यून की तनख्वाह, गार्डन, स्कूल स्टेशनरी व दूसरे अखराजात कहां से पूरे होंगे? घंटी बजाने के लिए सौ-दो सौ रुपए में कोई माई रख लेंगे पर गार्डन की देखभाल, साफ-सफाई के लिए माली चाहिए ही चाहिए। इसमें कटौती की कोई गुंजाइश ही नहीं है। नर्सरी के बच्चों की देखभाल के लिए एक हृष्ट-पुष्ट महिला का होना बहुत जरूरी है। अब हृष्ट-पुष्ट महिला के लिए हृष्ट-पुष्ट वेतन भी चाहिए। सौ-दो सौ से तो काम चलने वाला नहीं। ज्यों-ज्यों दिन खिसकता जा रहा था, त्यों-त्यों चिंताएं भी बढ़ती जा रही थीं।


स्कूल के सदस्यों की समझ में नहीं आ रहा था कि कस्बे में बच्चों की कमी कैसे हो गयी? फिर ध्यान आया कि हो न हो यह सब परिवार नियोजन का ही नतीजा है जो आज वे बच्चों के लिए तरस रहे हैं। भारत सरकार नाहक जनसंख्या विस्फोट का रोना रोती रहती है। कोई उनके दिल से पूछे कि बच्चों की कमी किस तरह सालती है। यह एहसास तब और भी बढ़ जाता है जब कस्बे में हर गली के नुक्कड़ पर शिक्षा व्यवसायी अपनी दुकान खोले, पहले से ही घात लगाये बैठे हों।


आखिरकार ऊब कर बाजार की नब्ज टटोली गयी। सेंसेक्स के उतार-चढ़ाव पर नजर डाली गयी और उपभोक्ताओं के लिए एक लुभावना स्कीम मार्केट में लांच किया गया। मंथली फीस का भाव गिरा दिया गया। निम्न मध्यमवर्ग को आकर्षित करने का यह आखिरी डोज़ था। दवा काम कर गयी। इंग्लिश मीडियम स्कूल में इतनी कम फीस! अब गरीब के बच्चे भी अंग्रेजी पोंक सकेंगे! अहा! बच्चों की आमद शुरू हो गयी। स्कूल मेम्बरान में खुशी की लहर दौड़ गयी। फौरन एक पत्र लिखा गया और कामयाबी की खबर हेड क्वार्टर पहुंचाकर अपनी पीठ थपथपाई गयी। रेट के सवाल पर भरोसा दिया गया कि हम समाज में अपनी उपयोगिता सिद्ध करने के बाद मनमाना रेट वसूल सकते हैं और अपने पिछले घाटे की भरपाई आसानी से कर सकते हैं।


लेकिन इतने प्रयासों के बाद भी एक नुक्स निकल ही आया। कस्बा पूरी तरह डेवलप नहीं हुआ था, सिर्फ उन्नति के पथ पर अग्रसर था। इसी अवसर का लाभ उठाया और स्कूल मालिकान को पहाड़ी पर कब्जा जमाने और फलने-फूलने का मौका मिला। इस उम्मीद पर कि आज नहीं तो कल इस अवैध कब्जे को जायज प्रमाणपत्र मिल ही जायगा फिर शिक्षा के लिए पहाड़ी जैसी मनोरम एवं दर्शनीय स्थल हर किसी को कहां नसीब होता है भला! हरे-भरे पेड़-पौधों के बीच यानी हेल्थी एटमाॅस्फियर में अपने बच्चों को कौन नहीं पढ़ाना चाहेगा! बोर्डिंग अथवा कान्वेंट वाले भी ऐसा माहौल नहीं दे पाते होंगे। लेकिन कब्जा जमाने से पहले इस बात पर गौर किया ही नहीं गया कि ऊपर टेकड़ी पर चढ़ने और उतरने में ही बच्चों का नहीं तो अभिभावकों का आधा दम तो शर्तिया ही निकल जायगा। यह ध्यान बाद में आया जब कुछ पेरेंट्स ने उखड़ी-उखड़ी सांसों के साथ शिकायत की।


"बा~बा~! इस स्कूल में आना बहुत भारी पड़ता है! यह रोज-रोज कसरत करने से तो अच्छा होता किसी दूसरे स्कूल में डाल देते थे।"


प्रिंसिपल सुनते ही चकरघिन्नी की तरह नाच गयीं। यह कैसी मुसीबत आन पड़ी? समस्या गम्भीर थी। एक मुंह से दो मुंह, दो मुंह से दो सौ भी हो सकता है। वक्त की नजाकत को नापा-तौला गया फिर निर्णय लिया गया कि इसकी खबर हाईकमान तक पहुंचायी जाय वरना स्कूल की सेहत पर बुरा असर पड़ेगा। खबर मिलते ही संस्थापक महोदय तत्काल साक्षात प्रकट हो गये। मैनेजमेंट कमेटी के चेयरमैन ने हालात से आगाह किया और बताया कि स्थिति की नजाकत को अगर नजरअंदाज किया गया तो ये थकेले-मरेले गार्जियन्स कभी भी हत्थे से उखड़ सकते हैं।


संस्थापक महोदय ने अपनी तर्जनी की नोक से चश्मे को पीछे की तरफ ठेला।


"मिस्टर……?"


" डाॅ. लालचंद बुधरानी सर।"


"डॉ. बुधरानी। हां बुधरानी, आप किस बेसिस पर ऐसा कह रहे हैं ? मैं अभी-अभी इसी रास्ते से आया हूं। मुझे तो फील गुड हुआ!"


"सर, शायद आपने इस तरफ तवज्जो नहीं दी कि अगर आप गाड़ी के बजाय पैदल आते थे तो आपको यहाँ तक अपने आपको धक्के मार-मार कर लाना पड़ता था। और सर, आप तो तजुर्बेकार आदमी हैं। आपको अच्छी तरह मालूम है कि धक्का मारकर चलने और वैसे चलने में कितना फर्क होता है।"


"ओह।" संस्थापक महोदय को धक्का मारने के जुम्ले को पचाने में दिक्कतें तो आयीं पर अपनी गलती महसूस कर, थोड़ी देर के लिए चुप गये।


" मिस्टर बुधरानी, आप ऐसा करें कि इस टेकड़ी के निचले हिस्से को भी, जो सड़क से मिलती है, अपने कब्जे में ले लीजिए और अगर आपका बजट अलाउ करता हो तो……।"


डॉ. बुधरानी दांत पीसकर रह गये--कुत्रिया साला, म्युनिसिपल की प्रापर्टी को अपने बाप की जागीर समझता है। जैसे इसकी अम्मा दहेज में लेकर आयी थीं यह सारी जमीन।


" नो सर, यहां तो चाय के भी वान्दे हैं। टीचर्स, प्यून की तनख्वाह ही निकल जाय वही शुकर कीजिए।" डाॅ. बुधरानी ने तपाक से जुबान की टांग पकड़ ली वरना कोई मनहूस फरमान जारी हो सकता था।


"ठीक है-ठीक है। मैं ही कहीं से फंड का जुगाड़ करता हूँ, तब तक आप स्थिति को संभाले रखिए। फिर उस निचले हिस्से को लेबल कराकर एक बिल्डिंग खड़ी करेंगे और कोशिश करेंगे कि प्राइमरी स्कूल के बजाय सीधा हाईस्कूल या जूनियर कालेज की मान्यता दिला दूं। शिक्षा मंत्री अपना यार है। उससे तो यूं-यूं चुटकी में काम करा लूंगा। बस, एक बार उसे यहां बुलाकर स्वागत करने की देरी है। अगर दो-चार महीने में सरकार नहीं बदली तो।"


इस जमाने में अपनी लुगाई का भरोसा तो रहता नहीं है, सरकार का क्या भरोसा। फिर भी डाॅक्टर बुधरानी को भरोसा करना ही पड़ेगा। और कोई रास्ता भी नहीं है। डॉ. बुधरानी के साथ-साथ पूरे स्टाफ ने यह लाइनें हिब्ज कर ली--" मैडम, यह थोड़े दिनों की तकलीफ है। बस, जल्दी ही हमारा स्कूल जूनियर काॅलेज होने वाला है और तब हम नीचे बनायी जा रही बिल्डिंग में शिफ्ट हो जायेंगे। तब तक के लिए एडजस्ट कीजिए।" और हर शिकायतकर्ता को एक ही सांस में सुना डालते। अल्लाह-अल्लाह खैरसल्लाह करके पहला सत्र खत्म हुआ। दूसरा सत्र भी शुरू हो गया पर वह बिल्डिंग जुबान पर ही तामीर होती रही। पुराने शिकायतकर्ता थककर खामोश हो गये। नये अभिभावकों ने शिकायत की पर दबी जबान में जिसका प्रभाव न के बराबर ही था। अचानक एक दिन धमाका हो गया। मंथली मीटिंग में मैनेजमेंट कमेटी हक्का-बक्का रह गई जब प्रिन्सिपल ने मीटिंग के दौरान नये शिकायत को उद्घाटित किया। सारे मेम्बरान भड़क गये संस्था और संस्थापक दोनों पर। सभी ने एक ही बात दुहराई कि स्कूल कायम करने से पहले संस्था को कस्बे की भौगोलिक स्थिति का पता लगाना चाहिए था फिर जगह का सर्वे कराना चाहिए था फिर इतना बड़ा कदम उठाना चाहिए था। उनको सोचना चाहिए था कि सूनसान और पेड़ों के झुरमुट में खतरनाक इंसान या खतरनाक जानवर या खतरनाक, विषैले कीड़े-मकोड़े भी पल सकते हैं। बस, देखा और भड़ाम से गिर पड़े। मिस्टेक पर मिस्टेक।


वैसे इस तरफ स्कूल मेम्बरान का भी ध्यान नहीं गया कि हाजत रफा करने वाले इस टेकड़ी पर संस्था से बहुत पहले या यूं कह लें कि कस्बे के जन्म के साथ के काबिजदार हैं। जो मुद्दतों से खुले और ऊंचे स्थान पर हगने का लुत्फ उठा रहे हों, उन्हें उस सुख से महरूम करना कितना मुश्किल और मशक्कत का काम है।


"आय'म साॅरी। यह काम मुझसे नहीं होगा।"


सभी ने एक साथ हाथ उठा दिये। डॉ. बुधरानी प्रिंसिपल की तरफ मुखातिब हुए।


"मैडम, शिकायतकर्ता ने क्या कहा? जरा फिर से बताइये तो!"


"झूमर लटकने की ही बात दुहराती रहूं?" प्रिंसिपल चिढ़ गयीं।


सभी जोर से हंस पड़े। अध्यापिकाएं मुंह छिपा कर लोटपोट होने लगीं। डॉ. बुधरानी हड़बड़ा गये।


"नहीं - नहीं, मेरा मतलब है उसका मफहूम बताइये


कि किस तरह की बातें हो रही हैं ताकि उसी के मुताबिक हल ढूंढा जाय।"


" उसमें बताना क्या? बच्चों के पेरेंट्स ने कहा कि रोज सुबह-सुबह लोग डिब्बा-बाल्टी लिए लाईन लगाये बैठे दिखते हैं जैसे अपने अब्बा की शादी में दावत खाने आये हों।…… खुद के साथ बच्चे को भी ताकीद करनी पड़ती है कि सामने देख-सामने देख।…. एकदम सीधी नजर किये पगडंडी को ताकते हुए आना-जाना पड़ता है। इतने एहतियात के बाद भी अगर जरा-सी नजर इधर-उधर बहकी कि सीधा.…। बेशर्मी की भी हद होती है। स्कूल प्रशासन इस तरफ ध्यान क्यों नहीं देता? वगैरह-वगैरह। "


रह-रहकर हाल में हल्की - हल्की हंसी गूंजती रही। मैडम तोलानी खामोश हुईं तो डॉक्टर बुधरानी सोच में पड़ गये।


" पहली बात तो यह है कि हम लोग खुद जायज तरीके से नहीं बैठे हैं इसलिए कोई कानूनी लड़ाई भी नहीं लड़ सकते। यह रोग मुझे लाइलाज लगता है। अगर आप लोगों के दिमाग में कोई आइडिया हो तो सुझायें।" डॉ. बुधरानी ने बात की समाप्ति के साथ माथापच्ची से अपना दामन छुड़ा लिया।


" बच्चों को छोड़ने और लेने ज्यादातर औरतें ही आती हैं, और वह भी यंग लेडीज। इसलिए इस समस्या को इतनी आसानी से टाला नहीं जा सकता।" एक अध्यापिका ने डॉ. बुधरानी के पस्त हौसले का दबे लफ़्ज़ों में विरोध किया।


"यू आर राइट मिस शगुफ्ता, बट ऐसे मामले में पुलिस भी हमारी मदद नहीं कर सकती। लीगल वे से देखें तो वे म्युनिसिपल की प्रापर्टी का इस्तेमाल कर रहे हैं न कि हमारी। इसलिए पुलिस से शिकायत हम किस आधार पर करेंगे?" मिस्टर साधुवानी भी पस्त दिखे।


"हमारे दिमाग में एक बात आ रही है।"


सभी बोलने वाले की तरफ देखने लगे।


" उन लोगों का सुबह छह से नव का मार्निंग प्रोग्राम चलता है इसलिए हम अपना टाइमिंग बदल कर सुबह साढ़े सात के बजाय साढ़े नव कर दें तो कैसा रहेगा?"


"बेस्ट आइडिया, पर सुबह के स्वच्छ और स्वस्थ्य वातावरण में बच्चों को इसीलिए पढ़ाया जाता है ताकि बच्चों के फ्रेश माइंड के जरिये उनके भविष्य को उज्ज्वल बनाया जा सके।" साधुवानी ने अशोक के प्रस्ताव को एक तरह से खारिज ही कर दिया।


" हम बच्चों के भविष्य की ओर तकेंगे तो अपना वर्तमान खो देंगे।" तीखा प्रहार किया डॉ. बुधरानी ने-- "हमें सबसे पहले अपनी सेहत का ख्याल रखना है। फिर हम कौन-सा आइंस्टाइन पैदा करने जा रहे हैं? शहीद कल्पना चावला के नाम पर हिन्दुस्तान आज जो डींगे मार रहा है, अगर उसकी सलाहियत को अमेरिका ने न पहचाना होता तो बेचारी कोरी कल्पना ही बनकर रह जाती थी। लाखों प्रतिभाएं अपने देश में पड़ी सड़ रही हैं या फिर पलायन कर रही हैं । उनका कोई पुरसाहाल नहीं है। हम ही प्रतिभाओं की संख्या बढ़ाकर कौन-सा जंग जीत लेंगे?"


इस सच्चाई को कौन झुठला सकता है! अब देखिये न, हमारी राष्ट्रीय भाषा हिन्दी है, यह समूचा विश्व जानता है। लेकिन हिंदी जाहिलों की भाषा है, यह हिन्दुस्तानियों के अलावा और कोई नहीं जानता। सभी खामोश हो गये। डॉ. बुधरानी ने मौके का फायदा उठाया।


" मेरे ख्याल से साढ़े नव की टाइमिंग सही है।" डॉ. बुधरानी ने प्रस्ताव का खुलकर समर्थन किया --"और अच्छा यही होगा कि इस टाइमिंग में अपने पीरियड की सेटिंग कर लें।.… मैडम, आप टाईमटेबल बनवाकर घोषणा कर दें। अभिभावकों को समझा दिया जायगा कि छोटे-छोटे बच्चे हैं, इतनी सुबह उठाना, तैयार कराना, स्कूल लाना, बच्चों और गार्जियन्स दोनों के लिए तकलीफ का बायस है इसलिए अभिभावकों के रिक्वेस्ट पर स्कूल का समय बदला जा रहा है।"


किसी को उम्मीद नहीं थी कि इतनी बड़ी समस्या का इतनी आसानी से हल निकल आयेगा। सभी कुर्सी के पुश्त से टेक लगाकर ऐसे निढाल होकर बैठे जैसे संसद में कोई बिल पास करा लिया गया हो।


" कहिये मैम, कोचिंग की कितनी शिफ्ट चल रही है?" तनाव रहित दिमाग दूसरों की अंदरूनी स्थिति की टोह लेने के लिए उकसाने लगा।


"आहूजा साहब, आप भी अच्छा मजाक कर लेते हैं।"


"नहीं सीमा जी, मैं वक्त की नब्ज पहचानने की बात कर रहा हूं। आप लोग भी वक्त के साथ चलिये वरना पीछे ही खड़ी रह जायेंगी।" आहूजा ने व्यंग्य को वक्त के फ्रेम में ठूंस दिया।


"आहूजा साहब सही कह रहे हैं। जैसे सरकारी और ट्रस्टी हास्पिटल्स से ज्यादा प्राइवेट हॉस्पिटल वाले कमा रहे हैं उसी तरह सरकारी और ट्रस्टी स्कूलों, काॅलेजों से ज्यादा प्राइवेट कोचिंग क्लासेस वाले दौलत बटोर रहे हैं। आज की तारीख में कोई भी डाक्टर मरीज को जल्द से जल्द अच्छा करना नहीं चाहता बल्कि मरीजों को गीले कपड़े की तरह निचोड़ने में लगा रहता है। उसी तरह आजकल स्कूलों-कालेजों में कौन पढ़ाता है? सभी टीचर्स अपने-अपने स्टूडेंट्स के पेरेंट्स को बच्चों के कमजोर होने और फेल होने की चेतावनी देते हैं फिर अपने यहाँ कोचिंग लेने पर दबाव डालते हैं। डबल फायदा। आम के आम, गुठलियों के भी दाम।….. अब उनसे कौन पूछे कि जनाब, आप में ही कौन-सा सुर्खाब के पर लगे हैं जो सिर्फ आप ही चमत्कार कर सकते हैं, वह दूसरे नहीं कर सकते? लेकिन अभिभावक भी बच्चों के भविष्य के सामने मजबूर होते हैं। बच्चे का साल खराब करने का रिस्क कौन उठाए? इसीलिए सब कुछ बाजार के इशारे पर चल रहा है।….. इस व्यापार में दौलत कमाना है तो ऐसे हथकंडे अपनाने ही पड़ेंगे मैडम!"


बात तो मार्के की थी पर फिलहाल सभी ने चुप्पी साधे रखी। दूसरे दिन सभी अध्यापिकाएं अपने-अपने तय वक्त से पहले ही पहुंच गयीं। चोरी-चुपके। वैसे आमतौर पर प्रार्थना शुरू होने के एक मिनट पहले या फिर प्रार्थना के बीच में सभी का पहुंचना होता था। नये स्कूल अनुशासन में इतनी नरमी रह ही जाती है। लेकिन उस दिन अचानक एक-दूसरे को वक्त से पहले देख, चोरी पकड़े जाने की खिसियाहट सभी के चेहरे पर उभरी फिर गायब हो गयी। चोर-चोर मौसेरे भाई फिर क्या छिपाना? सभी ने एक-दूसरे को गलबहियां डालकर मंत्रणा की और अपने-अपने क्लास के बच्चों के अभिभावकों को चुन-चुनकर पकड़ा- "देखिये, आपका बच्चा पढ़ाई में बहुत कमजोर है। उस पर आप लोग ध्यान दीजिए। कई दिनों से आप लोगों को बुलवाने की सोच रही थी। अच्छा हुआ आप लोग आज मिल गये।….. मुझे नहीं लगता है कि आपका बच्चा सेकेन्ड सेमिस्टर में पास हो सकेगा।" यह मक्कारी भी बड़ी लाभदायक चीज होती है। ऐसा किसी ने सोचा नहीं। और सोच भी नहीं सकते क्योंकि मक्कारी को शराफत से सोचा ही नहीं जा सकता।


" लेकिन मिस, बच्चे को ट्यूशन भी भेजती हूँ। होमवर्क भी बराबर करता है। युनिट टेस्ट और फर्स्ट सेमिस्टर में मार्कस् भी अच्छे थे।"


"आप खुद ही मैथ-इंग्लिश से कुछ भी पूछकर देख लीजिए। बच्चा कुछ भी नहीं बता पाता। ट्यूशन भेजने और होमवर्क करने/कराने से दिमाग नहीं बढ़ता है। बच्चों के साथ पेरेंट्स को भी हार्ड वर्क करना पड़ता है। (या फिर डाबर का 'शंखपुष्पी' या तिब्बिया का 'दिमागीन' खिलाना पड़ता है पर अफसोस, निम्न मध्यमवर्ग यह दोनों काम नहीं कर सकते।) बच्चों को पढ़ाना-लिखना इतना आसान नहीं होता जितना आप लोग समझती हैं। आपके बच्चे का साल खराब हो जायगा फिर मुझे दोष मत देना। बताना मेरा फर्ज था, सो मैंने बता दिया। आगे आपकी मर्जी।"


सुनते ही अभिभावक सुस्त पड़ गये।


" फिर आप ही बताइए मिस, क्या करूं? "


" देखिये, मेरे पास तो टाईम है नहीं। मेरे पास वैसे ही बच्चे बहुत हैं। हां, मैं एक टीचर का पता देती हूं, आप बच्चे को उनके पास डाल दीजिए। वह बहुत अच्छा पढ़ाती हैं।"


" नहीं मिस, अब मुझे किसी पर विश्वास नहीं। मेरे बच्चे को आप ही पढ़ाइये।"


" सी~~(उल्टी सांस) नहीं बाबा, मैं इतना बोझ नहीं उठा सकती। स्कूल की थकान, फिर घर पर ट्यूशन। आप तो जानती ही हैं कि बच्चों को गाईड करना कितना मुश्किल काम है!" लेकिन मन में झुनझुने बजने शुरू हो गये।


" सो तो है मिस, पर कुछ भी कीजिए, हमारे बच्चे को आप ही पढ़ाइए बस। मैं कुछ नहीं जानती, हां!"


"…... ठीक है। अपने क्लास का बच्चा है तो कुछ तो करना ही पड़ेगा। कल आप आइए फिर कुछ एडजस्ट करती हूं।" जज्बात को दबाना मुश्किल हो रहा है।


"थैंक्यू मिस।"


आह~~! इतनी मशक्कत के बाद अध्यापिकाएं खुश तो अभिभावक भी खुश। स्कूल और अध्यापिकाओं की गाड़ी नई रफ्तार से दौड़ने लगी। स्कूल अब साढ़े सात के बजाय साढ़े नव बजे खुलने लगा। दूसरी तरफ मैनेजमेंट खुश था कि उसने एक बहुत बड़ी समस्या का सस्ता, मजबूत और टिकाऊ समाधान अपनी बुद्धिमत्ता के मार्फत खोज लिया है जो इस स्कूल की हिस्ट्री में अजर-अमर होकर रहेगा। नतीजतन कई मीटिंगें अवरोध और समस्या रहित संपन्न होती रहीं। अभी कुछ ही माह बीते थे कि फिर एक मीटिंग की चाय में मक्खी कूद गयी जिसके छींटें सबके मुंह पर पड़े - भचाक!


मीटिंग के दौरान खिड़की से 'झनाक' की आवाज़ आयी और शीशे के टुकड़े फर्श पर बिखर गये। कोई कुछ समझ पाता इससे पेशतर एक नवयुवक दरवाजे के सामने नमूदार हुआ।


"हमारा बाॅल इधर आया है।"


डॉ. बुधरानी का चेहरा तमतमा उठा लेकिन कुर्सी से उठे नहीं।


"बड़े ढीठ हो! एक तो खिड़की का कांच तोड़ दिया, दूसरे बाॅल भी लेने चले आये!"


"खिड़की में कांच लगवाते ही क्यों हो जो वह टूटे।" लड़के के बेलौस, बे-लगाम जवाब से सभी दंग रह गये।


" हद हो गयी!" डॉ. बुधरानी कुर्सी से उठ खड़े हुए--"बड़े बेशर्मी हो! एक तो नुकसान कर दिया ऊपर से जबानदर्राजी करते हो?"


" कौन दररा जी? " लड़के ने आश्चर्य से पूछा।


डॉ. बुधरानी जबरदस्त चिढ़ गये। जोर से चिल्लाए--"पाटील, इसको अन्दर कैसे घुसने दिया? निकालो इसको बाहर।"


माली-कम-चपरासी पाटील जब तक आता-आता, लड़का भागकर अपनी झुंड में पहुंच गया। सब लोग हाल से बाहर निकल आए। दूर खड़े लड़के ऐसे देख रहे थे जैसे जंगल में शेर के आने की भनक लग जाने के बाद भी हिरनों का झुंड कान उटेरे तब तक खड़ा देखता रहता है, जब तक शेर किसी पर झपट्टा नहीं मारता।


"तुम लोगों को यहां खेलने की इजाजत किसने दी?"


" तेरे बाप ने।" झुंड के बीच से आवाज आई। बोलने वाला नहीं दिखा। आहूजा तिलमिला गए।


"सर, आप पुलिस को फोन कीजिए। ये लोग ऐसे नहीं मानेंगे।"


"तुम ठीक कह रहे हो। अब तो पुलिस को बुलाना ही पड़ेगा।" डॉ. बुधरानी प्रिंसिपल आॅफिस की तरफ तेज कदमों से बढ़े। थोड़ी देर बाद उसी तेजी के साथ वापस लौटे।


" पुलिस आ रही है।" उन्होंने अपने साथियों को सूचना दी और खड़े होकर लड़कों को देखने लगे। चेहरा अभी भी सभी का तमतमाया हुआ था पर इधर की चुप्पी से उठने वाली बगावत की बू को लड़कों ने शायद सूंघ लिया। लड़कों के पहले होंठ हिले फिर धीरे से खुद हिले, फिर धीरे-धीरे घूमे फिर धीरे-धीरे चले फिर एक साथ हंसकर चिल्लाते हुए उल्टी दिशा में पहाड़ी से नीचे उतर गये।


डॉ. बुधरानी प्रिंसिपल की तरफ घूमे।


"मैडम, यह लोग पहले से ही आते रहे हैं या आज पहली बार दिखे हैं?


" मेरा ख्याल है कि यह लोग पहले से ही अपना अड्डा बनाये हुए हैं। चूंकि पहले साढ़े बारह बजे स्कूल बन्द हो जाता था इसलिए इस तरफ इतना ध्यान नहीं गया पर जब से स्कूल साढ़े नव से हुआ है तब से इन लोगों का जमावड़ा दिखने में आ रहा है। ये लोग लगभग एक बजे दोपहर से खेलना शुरू करते हैं। वैसे कभी-कभी कई ग्रुप में ताश खेलते हुए भी देखे गये हैं। यहीं आसपास।"


" मैडम, ताश खेलने वालों का जमावड़ा स्कूल खुलने के पहले से ही रहता है। कभी-कभी हम लोगों को देखकर ये लोग बोली-ठिठोली भी करते हैं। इस तरह की शिकायत कई अभिभावक भी कर चुके हैं। क्यों कंचन जी? " सीमा, पास खड़ी दूसरी अध्यापिका की तरफ घूमी।


" हां, कई अभिभावकों ने शिकायत की।"कंचन ने गवाही दी।


" गलत हो रहा है। बहुत गलत हो रहा है।" डॉ. बुधरानी बेचैन हो उठे--आप लोगों ने ये बातें पहले क्यों नहीं बतायी?"


"सर, अभी-अभी तो हम एक समस्या से उबरे थे फिर सोचा कि हो सकता है, इसका हल अपने आप निकल आवे और स्कूल की चहल-पहल से ये लोग अपनी जगह बदल दें।"


" लाखैरे, गुंडे - मवाली कभी सुधरे हैं जो आज सुधरेंगे?….. खैर, अब पुलिस तो आ ही रही है।


डॉ. बुधरानी वहीं बेचैन चहलकदमी करने लगे। इधर से उधर। उधर से इधर। साथ-साथ बड़बड़ाते भी जा रहे थे--"बहुत हो गया। बहुत हो गया। अब तो कुछ करना ही पड़ेगा।"


सभी खड़े, कभी भागकर गये लड़कों की दिशा में देखते तो कभी डाॅक्टर बुधरानी को। थोड़ी देर बाद एक पुलिस सब-इंस्पेक्टर दो सिपाहियों के साथ आते दिखा। उसने आते ही पूछा--"फोन किसने किया था?"


"हाँ इंस्पेक्टर साहब।" डॉ. बुधरानी इंस्पेक्टर के करीब लपक आये--"आइये, देखिये। खिड़की का क्या हाल कर दिया है। और ऊपर से दादागीरी भी।"


आगे-आगे डॉ. बुधरानी, उनके पीछे सब-इंस्पेक्टर। उसके पीछे दोनों हवलदार फिर उसके पीछे स्कूल के पूरे स्टाफ ने हाल में प्रवेश किया। सब-इंस्पेक्टर ने फर्श पर टूटे-बिखरे शीशे का मौका-ए-मुआयना किया फिर उसने बड़ी ही सतर्कता से पूरे हाल पर चारों तरफ नजर दौड़ायी जैसे वारदात


के पीछे छोड़े गये सुराग को खोजने की कोशिश कर रहा हो। फिर बिना कुछ बोले हाल से बाहर निकलकर वहीं आ खड़ा हुआ जहां से उसने सवाल की शुरूआत की थी।


"यहां तो कोई भी नहीं दिख रहा है।"


"आपको आते देख, सब उस तरफ भाग गये।" थोड़ी-सी झूठ की चाशनी लभेड़कर भागकर गये लड़कों की दिशा में एक ने इशारा किया।


सब-इंस्पेक्टर इंगित दिशा में बढ़ चला। पीछे-पीछे पूरी भीड़। सब-इंस्पेक्टर ढलान के करीब जाकर खड़ा हो गया। उसने नीचे झांककर देखा। नीचे फैली बस्ती पर भी एक नजर दौड़ाई फिर उसने घूमकर चारों तरफ पहाड़ी के विस्तार को निहारा।


"आप लोग उस लड़के को पहचानते हैं?"


"नहीं सर। हां, सामने आ जाय तो पहचान सकते हैं।"


सब-इंस्पेक्टर वहीं खड़ा रहा, सतर्क नजरों से इधर-उधर देखते हुए।


"हूँ ~~। वैसे किसी भी खुली जगह पर क्रिकेट वगैरह खेलना कानूनन जुर्म नहीं है फिर भी अगर किसी को तकलीफ होती है तो ताकीद की जा सकती है। आप अपनी एक हद बना लें और उसके अन्दर किसी को न आने दें। फिर भी अगर कोई बदमाशी करता है तो उसके साथ सख्ती बरती जा सकती है।" सब-इंस्पेक्टर बोलकर खामोश हो गया।


" इंस्पेक्टर साहब सही कह रहे हैं सर।" मिस्टर साधुवानी ने चिंतित दिख रहे डॉ. बुधरानी को एक तरह से ढांढस बंधाया --" हम अगर अपनी एक सीमा तय कर लें तो इन झंझटों से छुटकारा पा सकते हैं सर!"


" और उसके बाद भी कोई गड़बड़ी होती है तो फिर मुझे फोन कीजिएगा। मेरा नाम ए.पी. तावड़े है। सब-इंस्पेक्टर तावड़े। आप एक काम और कर सकते हैं। अपने आदमियों को सतर्क कर दीजिए। जैसे कोई आपकी हद में आये और मना करने के बाद भी न माने तो उसको पकड़ लीजिए। फिर देखिये, मैं कैसा रिमांड में लेता हूँ!"


" हां, यह अच्छा आइडिया है।" सभी ने एक साथ खुशी जाहिर की।


" वैसे आप लोगों को यहां स्कूल बनाने की सलाह किसने दी?"


अचानक उछाले गये सब-इंस्पेक्टर के सवाल से सभी सन्नाहटे में आ गये। वह बोलता रहा--" यह एरिया पहले से ही क्रिमिनल्स का अड्डा रहा है। यहां कई मर्डर भी हो चुके हैं। आज भी रात-बिरात छोटी-मोटी घटनाएं, वारदातें होती रहती हैं। आप लोगों ने बच्चों के साथ इतना बड़ा रिज्क उठाया कैसे?" सब-इंस्पेक्टर डॉ. बुधरानी की शक्ल संभवत: जवाब की आस में ताकने लगा। डॉ. बुधरानी गडमडा गये।


" वो क्या है सर कि यह मेरी जो संस्था है, जिसने यह स्कूल कायम की, वह हिन्दुस्तान की एजूकेशनल फील्ड में जानी-मानी संस्थाओं में से एक है। अब संस्था वालों ने क्या सोचकर यहां स्कूल की स्थापना की वह तो मुझे नहीं मालूम पर मैं एक रफ आइडिया ही लगा सकता हूं कि…..।"


" अच्छा है। "तावड़े ने बात बीच में ही काट दी--"शिक्षा से ही हिन्दुस्तान का भला हो सकेगा। बच्चों के चरित्र निर्माण से ही महात्मा गांधी, मदर टेरेसा, महात्मा ज्योति फुले पैदा होंगे। आज देश को इन्हीं की जरूरत है। आप लोग अच्छा काम कर रहे हैं।"


बेचारा तावड़े! जानबूझकर बन रहा है। उसे भी अच्छी तरह मालूम है कि इस क्षेत्र में लोग महात्मा गांधी, मदर टेरेसा और महात्मा फुले को ढूंढने के लिए अब नहीं आते। करूं का खजाना कहां गड़ा है, यह ढूंढने आते हैं।


" अपनी तो यही कोशिश रहती है सर, हम हर बच्चे में देश का सुनहरा भविष्य देखते हैं।" डॉ. बुधरानी ने खीसें निपोर दी।


"अच्छा मैं चलता हूं।" तावड़े बिना किसी की तरफ देखे, चलते-चलते बोला--"कभी जरूरत पड़े तो फोन कीजिएगा।"


सब-इंस्पेक्टर सिपाहियों के साथ चला गया। डॉ. बुधरानी अपने स्टाफ के साथ स्कूल में वापस आ गये।


" इंस्पेक्टर ने सही कहा कि हम अपनी एक हद बना लें। फाइनेंशियल प्राब्लम की वजह से दीवार वगैरह खिंचवा नहीं सकते पर जबानी खाका खींचकर हम फिलहाल अपना काम चला सकते हैं।" तावड़े के स्कूल स्थापित करने के सवाल पर मन में टीस बनी रही पर जानबूझकर डॉ. बुधरानी ने उसकी चर्चा नहीं की। सभी चुपचाप डॉ. बुधरानी को सुनते रहे।


"पाटील।" डाॅ. बुधरानी ने चपरासी को आवाज़ दी।


" जी सर?"पाटील डाॅ. बुधरानी के सामने आकर खड़ा हो गया।


"गार्डन से लेकर इस स्कूल की इमारत को एक हद समझो और इस हद में स्कूल या स्कूल के बाद के किसी भी वक्त में बाहरी लोगों के आने पर रोक लगा दो। स्कूल टाईम में हम में से दो-दो, चार-चार लोग रोज यहां मौजूद रहेंगे। जब हम लोगों में से कोई स्कूल में मौजूद हो और कोई बाहरी आदमी जबरदस्ती स्कूल की बाउंड्री में घुसने की कोशिश करे, मना करने के बाद भी न माने तो पकड़ लेना और हम लोगों को बुलाना फिर हम लोग देख लेंगे।"


" जी, बहुत अच्छा।"


" बहुत होशियारी से। समझे?"


" जी, समझ गया।"


डॉ. बुधरानी कमेटी के सदस्यों से मुखातिब हुए।


" हम आठ लोग हैं। रोज दो-दो आदमी स्कूल टाईम में यहां ड्यूटी देगा। सिर्फ कुछ दिनों तक। हालात सुधरने के बाद यह सिस्टम खत्म कर दिया जायगा। लेकिन अभी फिलहाल जब तक प्राब्लम है, हम लोग मिलकर सहयोग करें।….. आप लोग आपस में दिनों की सेटिंग कर लें और उसको लिख लें या जहन में बिठा लें। मैं तो लगभग सभी दिन किसी न किसी वक्त आता रहूंगा। अब आप लोग सुबह से ड्यूटी के लिए तैयार हो जायें।"


कमेटी के सदस्यों ने मंत्रणा के बाद अपनी-अपनी तारीखें फिक्स कर ली और दूसरे ही दिन से ड्यूटी शुरू कर दी पर पाटील के अंदर एक अतिरिक्त उत्साह, जोश थपेड़े मारने लगा। उसके अंदर समन्दर- सी विशालता भर गयी। वह अपने आप को स्कूल के लिए एक अति महत्वपूर्ण सदस्य महसूस करने लगा। उसे गर्व हुआ कि वह इस स्कूल और उसकी सम्पत्ति का एकमात्र रक्षक है। वह स्कूल खुलने से लेकर स्कूल बन्द होने तक एकदम सतर्क, चाक-चौबन्द रहता। पूरी दृढ़ता और जिम्मेदारी के साथ कर्तव्य निभाने के लिये तत्पर। हफ्ते-दर-हफ्ते गुजरने लगे पर कोई शिकार हत्थे नहीं लगा। कमेटी के सदस्य इन्तजार कर-करके सुस्त पड़ने लगे। जब कई हफ्ते गुजर गये तो पाटील में भी वह पहले वाला जोश नहीं रहा लेकिन सतर्कता बरकरार रही।


एक दिन अचानक बिल्ली के भाग्य से छीका टूट ही गया। स्कूल छूटने में दस मिनट बाकी था कि पाटील ने गार्डन के घास की सफाई करते हुए देखा-- गार्डन और स्कूल के बीच खाली पट्टी पर जहां पहले से ही अपने बच्चों को लेने आयी औरतें बैठी हुई थीं, एक नवजवान बेफिक्री के साथ चहलकदमी कर रहा है। पाटील ने गौर से देखा फिर सोचा--यह अभिभावक नहीं हो सकता। इससे पहले इसको कभी देखा भी नहीं। जरूर कोई मनचला होगा जो औरतों, लड़कियों को देखकर आ पहुंचा है। उसने वहीं से आवाज मारी--


"ओय, चल इधर से निकल।"


"क्यों निकलूं?" नवयुवक अकड़कर खड़ा हो गया।


पाटील उलट जवाब सुनकर तिलमिला उठा। वह तेज कदमों से बढ़कर नवयुवक के करीब आ गया।


"मैं बोला न! चल इधर से निकल!" पाटील ने युवक को धक्का दिया।


"तेरी…..।" युवक तमतमाकर पाटील की तरफ झपटा। पाटील ने झट उसका एक हाथ पकड़ कर मरोड़ा और पीछे से उसको अपनी बाहों में जकड़ लिया। पाटील चिल्लाया--


"सर जी, सर जी जल्दी….. देखिये….. जल्दी।"


कुछ लोग अंदर से लगभग दौड़ते हुए बाहर आये।


"क्या हुआ-क्या हुआ।" सभी ने एक साथ पूछा।


पाटील कोई जवाब देता उससे पहले ही युवक ने पाटील की गिरफ्त से अपनेआप को छुड़ा लिया। क्या पता छुड़ाया या पाटील ने ही अपनी पकड़ ढीली कर दी।


" देखिये सर, यहां इतने सारे लोग बैठे हुए हैं पर किसी को इसने कुछ नहीं कहा सिर्फ मुझे ही भगा रहा है।" युवक अपने सामने स्कूल अधिकारियों को देख, पता नहीं आश्वस्त हुआ या डर गया लेकिन उसने अपनी बात दृढ़ता से कह दी।


"लेकिन तुम इधर आये कैसे?" डॉ. बुधरानी जो सबसे पीछे खड़े थे, अकड़कर सामने आ गये।


" सर, मैं अपने बच्चे को लेने आया हूं।"


बच्चा!! मतलब यह लोफर नहीं अभिभावक है! युवक के बोलते ही सभी के मुंह खुले के खुले रह गये। हाथों के तोते उड़ गए। पाटील का चेहरा पीला पड़ गया।


" दरअसल, कुछ ही दिन हुआ स्कूल ने नियम बनाया था कि स्कूल पीरियड में इस बाउंड्री के अंदर किसी को न आने दिया जाय।" डॉ. बुधरानी अपनी शर्मिन्दगी छिपाने के लिये युवक को पलझाने की कोशिश में लग गये।


"नियम बनाये थे?" युवक जो अब तक पैजामे के अंदर दिख रहा था, अचानक 'नियम' के सवाल पर पैजामे से बाहर हो गया। उसने स्कूल के ढांचे पर वहां तक नजर दौड़ा डाली, जहां तक वह देख सकता था।


"मेरे ख्याल से इस स्कूल में आज तक नोटिस बोर्ड ही नहीं बना तो नियम कैसे बन गये? यह अभी तक मेरी समझ में तो नहीं आया!"


नवयुवक की बात सुनते ही स्कूल कमेटी के सदस्यों को मलेरिया वाला बुखार चढ़ गया। दरअसल, नर्सरी और जूनियर स्कूल में नोटिस बोर्ड की जरूरत ही नहीं होती पर अभिभावकों के सूचनार्थ कोई इंतजाम तो होना ही चाहिए था। युवक बोलता रहा--"और अगर जबरदस्ती नियम बना ही डाले गये तो आपने अपने स्टूडेंट्स को बताया? बच्चों की डायरियों पर रिमार्कस लिखे? गार्जियन्स को इसकी खबर दी? या सिर्फ नियम बनाये और बत्ती बनाकर अपने-अपने डाल ली?"


"ए~, जबान संभाल कर बात कर!" पाटील ने युवक को रपटा।


"तू मेरे को तमीज सिखायेगा? "युवक दंगलमार मुर्गे की तरह पाटील के सिर से सिर सटाकर खूनी आंखों से घूरने लगा।


" पाटील, तुम चुपचाप खड़े रहो।" डॉ. बुधरानी ने पाटील को डांटा। पाटील के साथ युवक भी पीछे हट गया।


" तूने मेरा हाथ मरोड़ा है न! मैं तुझे तो बाद में देखूंगा। "युवक ने डॉ. बुधरानी की तरफ देखते हुए पाटील की तरफ इशारा किया--"और अगर इसी तरह आप नियम बनाकर इस गुंडे के जरिये उसका पालन कराते रहे तो एक दिन ऐसा आयेगा कि आपके स्कूल में कुत्ते भी मूतने नहीं आयेंगे। आप क्या समझते हैं कि आप हमारे ऊपर एहसान कर रहे हैं? आप हमारे ऊपर कोई एहसान नहीं कर रहे हैं। नोटों की थप्पी हम लोग देते हैं तब आप हमारे बच्चों को पढ़ाते हैं।"


स्कूल छूट चुका था। सारे बच्चे भरभराकर बाहर निकलने लगे थे। युवक ने वहीं से खड़े-खड़े बच्चों की भीड़ में अपने बच्चे को पहचाना और आगे बढ़कर अपने बायें हाथ की तर्जनी पकड़ायी और पाटील को घूरता हुआ चला गया। बाकी सभी चुपचाप खड़े युवक को जाते देखते रहे।


"पाटील, यह सब क्या हो रहा है?" डॉ. बुधरानी की फुंफकार सुनायी दी।


इस वाक्य-युद्ध के बीच तमाम अभिभावक जुट गये और भीड़ के रूप में मूक दर्शक बने खड़े रहे।


"सर, मैं समझा कोई गुंडा है जो मौका देखकर घुस आया है।"


"तुम्हें गुंडा और भगवान में कोई अंतर नहीं दिखता? ग्राहक देवता के समान होता है। जिसकी हमें पूजा करनी चाहिए उसी की हम बेइज्जती कर रहे हैं। तेरे को पाप लगेगा, पाप! भूखों मरेगा तब तेरी अक्कल ठिकाने आयेगी। आज फर्स्ट एण्ड लास्ट वार्निंग दे रहा हूं। आइंदा गलती हुई तो नौकरी से हाथ धो बैठोगे। ऐसी गलती बर्दाश्त नहीं की जायगी।"


****


डॉ. बुधरानी व दूसरे लोग अंदर चले गये हैं। सारे अभिभावक भी अपने-अपने बच्चों को लेकर जा चुके हैं। अध्यापिकाएं एक-एक करके चली जा रही हैं। पाटील वहीं बाहर ओटे पर बैठ गया है। वह एक गहरी सांस खींचकर ऊपर खुले आसमान की तरफ देखने लगा।


"…... क्या नीली छतरी वाले! तू हमेशा पेट पर ही निशाना साधकर बैठता है क्या?…... मैं तो अपनी ड्यूटी निभा रहा था। पन तू भी बिन बताये कहीं भी, किसी को भी घुसा देता है फिर सारी खुन्नस निकलती है मुझ गरीब पर।…... पन एक बात समझ में नहीं आयी भगवान! इस विद्या के मंदिर में ग्राहक को किधर से घुसा दिया!"



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