साहसी नारी
साहसी नारी
नारी मुक्ति आन्दोलन की भारत में नींव पंडिता रमाबाई ने डाली थी। उन्होंनें पुरुषों द्वारा महिलाओं के प्रत्येक प्रकार के शोषण के विरुद्ध संघर्ष किया। उनमें अपनी धारणाओं पर डटे रहने का साहस था। उनका जन्म 1858 में और मृत्यु 1922 में हुई थी।
उनके पिता अनंत शास्त्री महान् विद्वान थे। उन्होंने अपनी पुत्रियों को संस्कृत पढ़ाई। जबकि रूढ़िवादी विद्वानों ने इसका विरोध किया और कहा महिलाओं को संस्कृत पढ़ने का अधिकार नहीं है। अनंत शास्त्री का इसी कारण सामाजिक बहिष्कार कर दिया गया। वे बंजारे जैसा जीवन जीने को विवश हो गये। वे धार्मिक ग्रन्थों का पाठ करते, कथा सुनाते और उसी से परिवार का गुजर बसर करते। इसी तरह परिवार सोलह वर्ष तक यात्रा करता रहा।
रमा बाई बचपन ही अन्याय सहन नहीं कर पाती थीं। एक बार उन्होंनें नौ वर्ष की एक छोटी लड़की को पति के शव के साथ भस्म किये जाने से बचाने की चेष्टा की। उन्होनें पूछा-“स्त्रियॉं ऐसी प्रथाओं को सहन क्यों करती हैं?जब मैं बड़ी हो जाऊँगी तो ऐसी प्रथाओं के विरुद्ध संघर्ष करूँगी। “
रमाबाई पर एक के बाद एक संकट आता चला गया। जब उनके पिता का निधन हुआ, तब रमाबाई की उम्र केवल सोलह वर्ष थी। उनके पिता जब मरने हाल थे, तो प्यास से व्याकुल होकर उन्होंनें शर्बत माँगा, उस समय वे अकालग्रस्त क्षेत्रों गुजर रहे थे और उनके पास शक्कर ख़रीदने के लिये पैसे नहीं थे। रमाबाई का परिवार ऑंखें में ऑंसू लिये किसी तरह उन्हें थोड़ा सा पानी ही दे पाया। पिता प्यासे ही चले गये। उनको समाधि देने में भी किसी ने सहायता नहीं की। रमाबाई के भाई ने शव को एक चादर में लपेटा और किसी तरह गड्ढे में विद्वान संन्यासी के शव को समाधि दी।
अभी पिता के देहान्त की दुःख तो था ही, रमा बाई की माता गंभीर रूप से बीमार हो गईं। वे बेहोश हो गईं और बेहोशी की हालत में उन्होंने रोटी मॉंगी। वे भूख से विकल हो गईं थीं। रमा बाई से मॉं का दुःख देखा नहीं गया और वे रोटी मॉंगने निकल गईं। पर उनके मुँह से ये तीन शब्द “ मुझे रोटी दो” निकल नहीं पा रहे थे। गीता ,महाभारत ,अमरकोश और सिद्धान्त कौमुदी का पाठ करने वाली रमा बाई उक्त तीन शब्द नहीं बोल पा रही थीं। अपने ऑंसुओं को रोककर किसी तरह उन्होंनें ये शब्द फुसफुसाये। रमाबाई जिस घर के सामने थीं, उसकी मालकिन दयालु थी,उसने अनुमान लगाकर रमाबाई को रोटी दे दी। रमा बाई रोटी लेकर अपनी मॉं को देने के लिये दौड़ी। पर उनकी मॉं मुश्किल से एक कौर ही निगल पाईं और उनका प्राणान्त हो गया।
रमाबाई अथाह दुःख सागर में डूब गई। उन्होंनें प्रतिज्ञा-“मैं किसी को भी भोजन देने से मना नहीं करुंगी।” इस वायदे को उन्होंनें अपने जीवन की अन्तिम घड़ी तक निभाया और अनेक अवसरों पर अपने हिस्से का भोजन भी दूसरों को खिला दिया।
लक्ष्मी बाई के देहान्त के बाद उनके शव को दाह संस्कार के लिये शमशान ले जाने की समस्या उठी। किसी तरह चौथे व्यक्ति का प्रबन्ध नहीं हो सका तो रमाबाई ने अर्थी का चौथा सिरा उठा लिया और कहा-“ लड़कियों भी अपने मॉं बाप की सन्तान हैं, उनके पुत्रों के समान उनके अधिकार समान हैं।” इस प्रकार रमाबाई अर्थी उठानेवाली प्रथम हिन्दू महिला हुईं ।
दक्षिण भारत छोड़कर रमाबाई अपने भाई के साथ भोजन व काम की तलाश में उत्तर भारत आईं। पच्चीस हजा़र किलोमीटर से अधिक पैदल चल चुकी थीं।राजस्थान की ठंडी रातों में उनके पास पहनने के लिये गर्म कपड़े नहीं थे। वे अपने शरीर को रेत में दबा लेते और चेहरे को कपड़े से ढक लेते।
रमा बाई संस्कृत के ग्रन्थों का मधुर और साफ़ आवाज़ में पाठ करती थीं। वे कलकत्ते पहुँची और वहॉं भी अपने नियमानुसार मन्दिर में हरिकथा की।वहॉं उन्हें बहुत प्रसिद्धि मिली। समाचारपत्रों में उनके भाषण प्रकाशित हुए । रमाबाई के लिये चरम गौरव का क्षण था, जब कलकत्ते के सीनेट हॉल में उनका स्वागत किया गया और उन्हें विद्या की देवी सरस्वती के तुल्य बताया गया।उन्हें लोग पंडिता रमाबाई सरस्वती कहने लगे। रमा बाई को अनेक सामाजिक समारोहों में सम्मानित किया गया।
रमाबाई स्त्रियों के शोषण का जो वर्णन करतीं , उससे लोग विचलित हो जाते ।उन्होंनें कहा कि स्त्रियों के शोषण की कुत्सित प्रथा दुष्ट लोगों के मस्तिष्क की उपज है।रमा बाई की वक्तृत्व क्षमता असीम थी। रमाबाई आर्यसमाज के संस्थापक स्वामी दयानन्द सरस्वती से मिलीं ।रमाबाई मानती थीं कि विवाह में पति व पत्नी समान भागीदार हैं,दोनों की सहमति से विवाह होना चाहिये। रमाबाई ने सारे महाराष्ट्र की यात्रा की और नारी शिक्षा बारे में अपने विचार रखे।रमा बाई ने अंग्रेज़ी भी सीखी और लंदन गईं।अमेरिका भी गईं।उन्होंनें “उच्च जाति की हिन्दू महिलायें” अपनी पुस्तक भी प्रकाशित कराई। “लोक स्थिति” इनकी दूसरी प्रकाशित पुस्तक थी। निराश्रित व विधवा महिलाओं के लिये शारदा सदन स्थापित किया। रमाबाई सार्वजनिक सभाओं में भाषण देती थीं और कुप्रथाएं के विरुद्ध बोलती थीं।
लोगों की मदद के लिये और अकाल जैसी राष्ट्रीय विपदा में मदद के लिये वे हमेशा उपस्थित रहती थीं, उन्होंने खुद भूख की पीड़ा को महसूस किया था। वे अपने काल से आगे थीं। रमाबाई का बहुत संघर्षमय जीवन था। उन्होंने कभी हार नहीं मानी। उनका जीवन प्रेरणाप्रद है।