रोज मेरा मातृ दिवस
रोज मेरा मातृ दिवस
आज वृद्ध आश्रम में बैठी बार बार यही सोच रही हूं कि क्या यही नीयति लिखवा कर लाई थी? समय कैसे करवट लेता है, आपको कहाँ से कहाँ पहुंचा देता है? क्यों कोई वृद्धावस्था में इतना विवश हो जाता है? सोचती हूँ तो यादें चलचित्र की भांति मस्तिष्क में घूमने लगती हैं।
बचपन में पिता व भाइयों की लाडली थी क्योंकि चार भाइयों में मैं अकेली थी। खूब दुलार मिलता, मां बाबू जी से व अपने चारों भाइयों से। हर जिद पूरी होती। कभी भाई गुस्सा भी होते पर मां उन्हें प्यार से समझा देती। अच्छे कॉलेज से पढ़ाई की, पढ़ने में सदा अव्वल रही। कब बचपन से युवावस्था में पहुंच गई, जान ही न पाई।
घर में मां बाबू जी से कहती, लाडो बड़ी हो गई है, पढ़ाई भी अच्छी कर रही है, बस एक अच्छा योग्य लड़का मिल जाये तो लाडो के हाथ पीले कर दें। उस समय मैं मासूम मां की बातों का अर्थ ही नही समझ पाती थी।
पर मेरा भाग्य ही शायद अच्छा था। बाबू जी के मित्र घर पर मिलने आये हुए थे। तभी मैं कॉलेज से आई तो बाबू जी के मित्र को देख नमस्कार करते हुये अंदर दाखिल हुईं। रसोई में जाकर मां से पूछा कि कौन आये है? बाबू जी के मित्र हैं, शहर आये थे, तो मिलने चले आये।
पता नही कितनी देर बाबू जी और उनके मित्र हंसी मजाक करते रहे। उनकी आवाजें अपने कमरे से सुन पा रही थी। कुछ देर बाद शायद वो चले गए। उनके जाते ही मानो घर में खुशी का माहौल ही आ गया। मां बाबू जी मेरे कमरे में आये और मुझे अपने पास बिठाते हुए बोले, लाडो तेरे लिए रिश्ता आया है। वो मेरे मित्र जो आये थे, उनका लड़का आईएएस है, उन्होंने तुझे पसन्द किया है। अगले हफ्ते लड़के के साथ घर आ रहे हैं। बस सब तय हो जाये। मां बाबू जी की आंखों में आंसू देख पा रही थी। बाबू जी मेरे सर पर हाथ फेरे जा रहे थे।
अगले हफ्ते बाबू जी के मित्र पूरे परिवार के साथ आये और आशीष ने मुझे एक नजर में पसन्द कर हामी भर दी। दो हफ्ते में ही मैं आशीष की दुल्हन बन सुसराल आ गई।
समय बीतता गया और तीन साल बाद मेरी गोद में अभिषेक का आना हुआ।
आशीष के आईएएस अधिकारी होने के कारण काफी तबादले होते रहे। अभिषेक भी बड़ा होता गया और एमबीए करने के बाद देहरादून में अपनी कम्पनी खोल ली। आशीष के सेवा निवृत्त होने के बाद हम लोग भी देहरादून में ही बस गए।
अभिषेक का भी विवाह कर दिया। उसकी पत्नी भी अभिषेक की ही कम्पनी में हाथ बंटाने लगी। समय बहुत अच्छे से चल रहा था। पर नीयति को कुछ और ही मंजूर था। अचानक आशीष का हृदयाघात से देहावसान हो गया। मैं बिल्कुल अकेली रह गई। कुछ दिन तो ठीक चला। पर शायद मैं विधवा एक बोझ बन गई थी अपने बेटे के घर और एक दिन वही बेटा मुझे वृद्धाश्रम में छोड़ कर चला गया।
आज सोचती हूँ कि पति बिना मां कितनी विवश हो जाती है। कभी भाइयों की दुलारी, मां बाबू जी की लाडली और अपने पति आशीष की जान, आज कितनी असहाय है। क्यों बच्चे अपने माँ बाबू को वृद्धावस्था में तड़पने के लिए छोड़ देते हैं?
रेडियो में चल रहे गाने "तू कितनी अच्छी है, तू कितनी प्यारी है, ओ मां" के गाने से तन्द्रा टूटती है।
पल्लू से आंसू पोंछकर पति, बेटे संग परिवारिक फ़ोटो को तकिए के नीचे रख वृद्धाश्रम में बहनो को योगा कराने में व्यस्त हो जाती हूँ। अब इन्ही बहनो की मैं बहन हूँ, बेटी हूँ और मां भी हूँ।
अब रोज मेरे लिये मातृ दिवस है, रोज एक चुनौती है और इन बूढ़ी माताओं की मैं प्यारी मां हूं। हर पल, हर क्षण इनका प्यार व आशीष पाती हूँ और वही आशीषों की पोटली इन्ही पर लुटा देती हूं , संतोष पाती हूँ।