Renuka Tiku

Others

4.7  

Renuka Tiku

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पश्चाताप

पश्चाताप

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मैं रेणुका टिक्कू, आपके सामने एक वास्तविक घटना पर आधारित एक कहानी लेकर आई हूं।

 अक्सर हम भूल जाते हैं कि हर बच्चे की क्षमता उसकी योग्यता दूसरे बच्चे से भिन्न है। एक दूसरे से तुलना उसमें हीन भावना उत्पन्न करती है साथ ही उसके आत्मसम्मान को भी ठेस पहुंचाती है। बच्चा चाहे साधारण योग्यता का हो या विलक्षण बुद्धि का, माता पिता का प्यार, रिश्ता अपने सभी बच्चों के प्रति एक सा ही रहना चाहिए। यह कहानी एक पिता के झूठे अभिमान की है जिसने उसे अपने इकलौते पुत्र से दूर कर दिया।


 त्रिलोकी नाथ जी होम मिनिस्ट्री में ऊंचे पद पर काम करते थे। तीव्र बुद्धि परंतु गुस्सैल स्वभाव के थे। किसी हद तक बहुत हठी भी थे । ऊंची आवाज में बोलना और अकड़ के साथ चलना उनके व्यक्तित्व की पहचान बन चुकी थी।

    परिवार के नाम पर उनकी पत्नी दुर्गा जी, तीन बेटियां और एक पुत्र था। त्रिलोकी नाथ जी को अपनी बेटियों पर बड़ा गुरूर था। और क्यों ना होता तीनों ही एक से बढ़कर एक थी। सबसे बड़ी एक कामयाब गायनेकोलॉजिस्ट थी, दूसरी किसी कॉलेज में प्रोफेसर और सबसे छोटी एक कामयाब साइंटिस्ट थी। दो बेटियां विवाहित थी और सुखी दांपत्य जीवन बिता रही थी सबसे छोटी बेटी ने किसी कारण वंश विवाह नहीं किया और विदेश में जाकर बस गई।

     पुत्र शिखर बहनों के मुकाबले पढ़ाईमैं ठीक-ठाक सा था और कई बार पिताजी से डांट डपट भी खाया करता। बहनों से तुलना कर त्रिलोकी नाथ जी उसकी हमेशा अवहेलना ही किया करते। बहने तो वैसे शिखर पर जान छिड़कने थी। पिता को समझाने के अनेकों प्रयास नाकामयाब ही रहे। कहीं ना कहीं त्रिलोकी नाथ जी के जहन में हमेशा अपनी प्रतिष्ठा का ही ध्यान रहता था।

 बेटियां तो मेधावी और प्रतिभाशाली थी तो अच्छे-अच्छे पदों पर लग गई। आते जाते लोग उन्हें उनकी बेटियों के नाम से संबोधित करते तो गर्व से उनकी छाती फूल जाती उनके गुरूर को और बढ़ावा मिलता और साथ ही शिखर से अपेक्षाएं। इस तरह के व्यवहार ने शिखर को दब्बू सा बना दिया था। पिता के सामने वह कभी खुलकर ना बात करता और हमेशा कोशिश करता कि सामना ही ना हो।

 दुर्गा जी भी त्रिलोकी के इस व्यवहार से नाखुश ही थी। शिखर में प्राण बसते थे उसके, पर त्रिलोकी की ऊंची आवाज के आगे उसका साहस टूट जाता।

     समय बीतता गया शिखर पढ़ लिख गया और किसी ऑफिस में लाइब्रेरियन लग गया। मां बेटा दोनों खुश थे संतुष्ट थे। अब त्रिलोकी नाथ जी ने सोचा कि शिखर का विवाह किया जाए।

  कई लड़कियां देखी और दिखाई गई। परंतु निर्णय की चाबी त्रिलोकी नाथ जी के हाथ में ही थी। घर आकर जब शिखर से पूछा जाता तो बेचारा हां ही कहता। परंतु त्रिलोकी नाथ जी को किसी का परिवार पसंद नहीं आता, कहीं पर वह बोलते कुंडली नहीं मिलती और किसी- किसी रिश्ते में लड़की को अपनी नजर से तोल कर उसके तौर-तरीके में नुक्स निकाल देते। अर्थात कोई ना कोई बहाना बनाकर रिश्ते को ठुकराते। जाने किस चीज की तलाश थी उन्हें।

  थक चुका था शिखर अपनी नुमाइश लगवा लगवा कर। सोचा शादी मुझे करनी है या पापा को? आज सोलहवीं लड़की देखने जाना था। लड़की संगीत की अध्यापिका थी। सुशील, साधारण बिना किसी बनावटी पन के। नाम था शीतल। घर लौटते समय त्रिलोकी नाथ जी बोले- कैसी लगी लड़की शिखर? मुझे तो परिवार का कोई नाम कहीं नजर नहीं आता, और लड़की के पिता सरकारी क्लर्क हैं। है ना शिखर ? शिखर खून के घूंट पीकर रह गया। हिम्मत जुटा कर बोला परिवार से मुझे क्या लेना देना। कोई चोर उचक्के थोड़ी ना है, मुझे लड़की पसंद है पापा। त्रिलोकी नाथ जी चिड कर बोले -तुम्हें तो किसी गाय से भी बांध दें, तो भी चलेगा। मुझे तो बिल्कुल नहीं भाया रिश्ता।

   शेखर मन ही मन चुका था कि बस! अब और नहीं…... दस महीने से यह सर्कस चल रही है। शादी तो मैं शीतल से ही करूंगा वरना किसी से नहीं। 

  दो सप्ताह बाद शिखर ने घर में घोषणा कर दी कि वह शीतल से विवाह कर रहा है। दुर्गा जी तुरंत बोली- हां हां ठीक है, मैं पंडित जी से बात कर मुहूर्त निकलवाती हूँ । त्रिलोकी नाथ जी अखबार पढ़ रहे थे, बड़े इत्मीनान से अखबार टेबल पर रखा, चश्मे की एक टांग को मुंह में दबा शिखर को ऊपर से नीचे तक देखा- बोले अच्छा अब हमारा विरोध करोगे ? नहीं करोगे तुम उस लड़की से विवाह!

 शिखर हिम्मत कर बोला- पापा दीदी लोग के विवाह में आपको कोई आपत्ति नहीं थी। दोनों ने स्वयं ही तो जीजा जी ढूंढे हैं। अब त्रिलोकी नाथ जी का पारा सातवें आसमान पर था। ऊंची आवाज में बोले- तू बहनों से क्या मुकाबला करेगा ? उनकी पोजीशन देख सोसाइटी में और अपनी भी ।

इस वाक्य ने शिखर के स्वाभिमान को ठेस पहुंचाई । अब तो उसने मन में ठान लिया कि शादी होगी तो शीतल से वरना नहीं। बिना कुछ बोले वहां से निकल गया। अगले वीरवार को शिखर ने शीतल से कोर्ट मैरिज कर ली और घर पर मां को फोन करके बताया की आशीर्वाद लेने घर आ रहे हैं। मां तो मां ही होती है, दुर्गा जी ने जल्दी-जल्दी आरती की थाली सजाई, साड़ी बदली ,और दरवाजे के पास खड़ी हो गई। मन में खुशी की फुलझड़ियां फूट रही थी और दूसरी और घर में उठने वाले आतंक का भय।

 घंटी बजी का दुर्गा जी बिचारी जल्दी-जल्दी पल्लू ठीक कर, दीया जला थाली में रख, बाहर की ओर निकली । पीछे पीछे त्रिलोकी नाथ की। किस के स्वागत की तैयारी है दुर्गा जी ? बिना कुछ जवाब दिए उसने दरवाजा खोला। सामने शिखर और शीतल खड़े थे। साधारण सी सूती साड़ी में शीतल ,मांग भरी हुई और हाथ में एक फूलों की माला और एक मिठाई का डब्बा लिए खड़ी थी। आगे बढ़कर दोनों ने दुर्गा जी के पांव छुए, दुर्गा जी ने आरती उतार कर शीतल को गले लगाया। माथे पर चुंबन दे आशीर्वाद दिया। शिखर ने मां से आंखें मिलाई तो देखा उसमें खुशी के आंसू और पूरी पूरी सहमति थी। दोनों आगे बढ़े, त्रिलोकीनाथ दोनों हाथ कमर पर रख गुस्से से सारी प्रक्रिया को देख रहे थे ।, जैसे ही शिखर पाव छूने झुका- वो पीछे हो गए और गुस्से से बोले अभी और इसी वक्त इस घर से बाहर चले जाओ। मुझे नीचा दिखाने के लिए तुमने यह सब किया। मेरे घर में तुम्हारा कोई स्थान नहीं।

       त्रिलोकी नाथ जी का हठ और अभिमान सर चढ़कर बोल रहा था। आवाज इतनी ऊंची थी कि पड़ोसी भी खिड़कियों से झांकने लगे। शिखर की आंखें भर आई। कुछ बोल ही ना पाया। मां की आंखों से गंगा जमुना बह रही थी। जल्दी में चुपके से अपने हाथ के कंगन उतार शीतल के हाथ में दिए और वहां से चली गई।

   इस घटना से दुर्गा जी के स्वास्थ्य को भारी झटका लगा। दिल की बीमारी ने घेर लिया और डिप्रेशन की शिकार बन गई। शिखर चोरी-छिपे मां हमसे मिलने आता पर इसका जरा भी आभास त्रिलोकी नाथ को न था। दुर्गा जी ने समझाने की बहुत कोशिश करी कि एक ही बेटा है उसे भी अपनी खुशी से अपनी जिंदगी जीने का अधिकार है। और फिर अपने ही बच्चे से कौन दूरी बनाता है। कैसा अभिमान, और अहंकार है यह जी? बेटियों ने भी शिखर का पक्ष लेते हुए पिता को बहुत समझाया, परंतु उनके कान पर जूं न रेंगी। उनका हठ और अभिमान-- उसका क्या करते हैं?

  कुछ समय बाद दुर्गा जी ने त्रिलोकी का साथ छोड़ दिया और इस संसार से विदा हो गई। इतना बड़ा बंगला, आठ कमरे। त्रिलोकी एक से दूसरे खाली कमरों में ही घूमता रहता। घर, घर से मकान हो गया। कभी-कभी उससे उसका जमीर धिक्कारता ‘क्या त्रिलोकी तू वाकई खुश है अकेले इस चारदीवारी में?’ क्या तेरा निर्णय सही था? बाहर भाग जाता घर से त्रिलोकी ताकि यह विचार उस पर हावी ना हो जाए। अब तो उसके ठाट भी कम हो गए थे, कपड़े मिले होते, चप्पल फटी हुई और दाढ़ी बढ़ी हुई। रस्सी जल गई पर बल ना गया, इतना सब होने पर भी उनकी अकड़ में कोई कमी ना थी। पैसे की कमी ना थी पर घर की लक्ष्मी चली गई थी।

 शेखर और शीतल की शादी को 8 साल बीत गए थे। गृहस्थी अच्छे से ही चल रही थी। मां के जाने के बाद शिखर कभी लौटकर उस घर में ना गया। बहनों से ही पिता की खोज खबर ले लेता था। ऑफिस से आते आते शिखर का एक्सीडेंट हो गया और वह ईश्वर को प्यारा हो गया। बटुए में बड़ी बहन और शीतल दोनों के ही फोन नंबर थे। बहन ने रोते-रोते पिता को खबर दी। त्रिलोकी को कुछ समझ ना आया। कुछ ना बोल पाया। सारी इंद्रियां जैसे सुन्न हो गई। अभिमान, अकड़, ज़िद सभी जैसे धूल सो गया। बावले से हो गए। बिना कुछ खाए पिए कुर्सी पर बैठ साइड टेबल पर 5 साल के शिखर की तस्वीर को घंटों निहारते रहे।

  शाम को बड़ी बेटी आई और बोली- ‘पापा, शीतल से मिलने चलिएगा?’ बिना कुछ बोले गर्दन हां मैं हिलाई और साथ चल पड़े।

 दरवाजा एक 7 वर्ष की बच्ची ने खोला। परिचय की आवश्यकता ही नहीं थी। हूबहू शिखर। उसने आवाज लगाई- मां कोई आया है मैं तो नहीं जानती, देखिए तो। शीतल बाहर आई और नमस्ते कर साइड में खड़ी हो गई। शब्द नहीं थे त्रिलोकी नाथ जी के पास। मन में पश्चाताप नासूर बनकर काट रहा था। सिर्फ बोले- ‘घर चलो शीतल।’

 शीतल बड़ी शालीनता से बोली-- ‘घर ही में तो हूं पिताजी।’

 सुना है आखिर के दिनों में त्रिलोकी नाथ जी अपना मानसिक संतुलन खो बैठे और सारा दिन दीवारों से बातें करते फिरते थे।



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