परमार और त्याग
परमार और त्याग


"प्यार त्याग मांगता है।"
चिलचिलाती धूप में, पार्क के उस कोने में, पीपल और नीम की घनी छांव के नीचे, पीपल की जगत पर बैठे विनय और श्रद्धा। विनय के हाथ में श्रद्धा का हाथ था। विनय श्रद्धा के हाथ को बड़े प्यार से सहला रहा था।
"त्याग हमारे ही हिस्से में क्यों?"
पूछा था विनय ने। उसकी आवाज भर्राई हुई थी।
"शायद इसीलिए कि हम इस परीक्षा में पास हो जायेंगे।"
"ये परीक्षा हमारे लिए ही क्यों?"
"हर कोई पीएच.डी. करने लायक तो नहीं होता। लेकिन स्नातक और स्नातकोत्तर तो तमाम लोग हो जाते हैं। हम शायद पीएच.डी. वाले लोग हैं।"
"पता नहीं श्रद्धा कि हम पीएच.डी. वाले हैं या नहीं। मैं सिर्फ इतना जानता हूं कि तुम्हें खोकर जिंदा रहना बहुत मुश्किल होगा।"
"चाहे जितना भी मुश्किल हो जीना तो पड़ेगा ही। तुम्हें भी और मुझे भी। कसम खाओ कि ऐसा कोई काम नहीं करोगे जिससे हमारे पवित्र प्रेम की मर्यादा का उलंघन हो।"
"इतनी कठोर परीक्षा मत लो।"
"ये परीक्षा तुम्हें उत्तीर्ण करके दिखानी है।"
श्रद्धा ने धीरे से अपना हाथ छुड़ा लिया। और उठ खड़ी हुई। श्रद्धा विनय को समझा रही थी। मगर ऐसा नहीं था कि श्रद्धा बहुत खुश थी। उसके भीतर भी बहुत कुछ टूट रहा था। श्रद्धा ने विनय का सिर अपनी छाती से लगा लिया। एकबारगी तो विनय सिसक पड़ा। श्रद्धा मुड़कर जाने लगी। विनय ने उसे नहीं रोका। आंसू भरे नेत्रों से उसे जाते हुए देखता रहा। श्रद्धा कुछ दूर जा चुकी थी।
"जाओ, जहां रहो खुश रहो।"
विनय ने अपने प्रेम को इस शुभाशंसा के साथ अपने जीवन से विदा कर दिया।
पांच साल बाद।
शहर के सबसे बड़े और व्यस्त माॅल में विनय केयर टेकर हो गया था। पहले दो साल तो बहुत कठिन गुजरे। ताजी चोट थी। रह-रहकर टीस उठती थी। विनय बिलबिला जाता। कितनी ही बार अपनी जिंदगी खत्म करने पर आमादा हुआ। लेकिन एन वक्त पर उसके कानों में वही आवाज गूंज जाती "कसम खाओ कि ऐसा कोई काम नहीं करोगे जिससे हमारे पवित्र प्रेम की मर्यादा का उलंघन हो।" विनय आज भी श्रद्धा से उतना ही प्रेम करता था जितना कल करता था। इसलिए आखिरी पायदान पर पहुंच कर भी विनय आत्महत्या के पाप से बच जाता। लेकिन समय हर घाव को भर देता है। विनय का घाव भी भर गया। उसने जीवन यापन के लिए नौकरी ढूंढनी शुरू कर दी। और जल्दी ही इस माॅल में ये जाॅब पा गया। माॅल के वर्तमान केयर-टेकर अपनी नौकरी छोड़ना चाहते थे। उन्होंने अपने मैनेजिंग डायरेक्टर को नोटिस दे दिया था। उसी समय विनय ने नौकरी के लिए आवेदन किया। विनय को सहायक के तौर पर नियुक्त किया गया। तीन महीने सहायक के पद पर काम करने के बाद विनय पूर्ण केयर-टेकर बन गया। एक केयर-टेकर के तौर पर विनय के पास काम का अंबार लगा रहता था। विनय चाहता भी यही था। अपने आप को एक पल के लिए भी खाली नहीं छोड़ना चाहता था। दिन के दस बजे से उसकी ड्यूटी शुरू हो जाती थी और रात के दस बजे तक चलती थी। कभी-कभी तो रात के बारह-एक बजे तक ड्यूटी करता रहता। ऐसे समय में विनय घर नहीं जाता। माॅल में ही सो जाता। ड्यूटी के दौरान उसे खाना खाने और चाय पीने की ही छुट्टी मिलती। लेकिन इतनी व्यस्तता के बावजूद भी विनय खुश था। वो अपनी ड्यूटी को खूब इंज्वाय कर रहा था। खाने और चाय की व्यवस्था माॅल की तरफ से माॅल के ही एक रेस्टोरेंट में थी। यूं वो केयर टेकर था। माॅल के जिस भी रेस्टोरेंट में चला जाता चाय-नाश्ता यूं ही हो जाता। पूरे माॅल में ऐसा कोई दुकानदार, ऐसा कोई कर्मचारी नहीं था जो विनय को पहचानता न हो। उस दिन माॅल में कुछ मरम्मत का काम चल रहा था। मजदूर माॅल की छत से बाहर की तरफ लटके हुए अपना काम रहे थे। विनय की दृष्टि उन मजदूरों पर पड़ी। उसने तुरंत अपना मोबाइल निकाला और ठेकेदार को डायल कर दिया।
"जी विनय साब! बोलिये क्या हुकुम है।?"
ठेकेदार ने फोन उठाते ही बिना किसी औपचारिकता के कहा।
"सरदार जी! आपके मजदूरों की हेलमेट कहां है?"
"क्या जी! उन्होंने पहनी नहीं है। मैं अभी देखता हूं सालों को। मैं उन्हें सख्त हिदायत देकर आया था कि बिना हेलमेट और सेफटी बेल्ट के कोई काम न करें। ठीक करता हूं अभी।"
विनय फोन काटता इससे पहले ही विनय की ही माॅल के एक रेस्टोरेंट का वेटर विनय के सामने आ खड़ा हुआ। उसके हाथ में एक छोटा सा कागज था। वेटर ने वो कागज विनय की ओर बढ़ा दिया।
"एक मैडम ने आपके लिए दिया है।"
विनय ने कागज लिया और पढ़ा- 'कैसे हो विनय?' पहली नजर में ही विनय को लिखावट कुछ पहचानी सी लगी। मगर कागज पर भेजने वाली का नाम नहीं था।
"कहां हैं ये मैडम?"
"ऊपर। मेरे रेस्टोरेंट में।"
"चलो।"
विनय ने रेस्टोरेंट में आकर देखा। एक टेबल पर श्रद्धा बैठी थी। पास ही दो-ढाई साल की एक बच्ची अकेले ही खेल रही थी। श्रद्धा को देखते ही विनय को लिखावट पहचान में आ गई। पुराने सारे दर्द एकबारगी उभर आये। मुड़कर जाना चाहता था मगर तभी श्रद्धा ने उसे देख लिया। अब विनय ने उसकी उपेक्षा करना उचित नहीं समझा। विनय श्रद्धा के सामने रखी कुर्सी पर जा बैठा। विनय बैठा तो, मगर श्रद्धा से कुछ बोला नहीं। अपलक उसे देखता रहा।
"वेटर!"
श्रद्धा ने आवाज दी। वेटर आया।
"दो काफी ले आना।"
श्रद्धा ने कहा।
"हैदर! इनका बिल मुझे देना।"
"ऐसा क्यों? आर्डर मैं दे रही हूं, बिल भी मैं ही भरुंगी।"
"जाओ, खड़े क्यों हो?"
विनय ने श्रद्धा की बात को नजरंदाज करते हुए वेटर से कहा।
"मैं यहां केयर-टेकर हूं। मेरे नाम कोई बिल कटेगा ही नहीं।"
"ये देखकर अच्छा लगा कि तुमने अपने जीवन को नष्ट नहीं किया। जीवन को जीने का तरीका सीख लिया।"
"तुम कैसी हो? देखने से तो लगता है कि बहुत खुश हो।"
मां को किसी अजनबी से बात करते देख बच्ची सकुचाई सी मां के करीब आ खड़ी हुई और अपनी फ्राक का एक कोना चबाने लगी।
"देखने में यही लगता है कि मैं बहुत खुश हूं। शायद सच भी है। मुझे किसी तरह की कोई कमी नहीं है। पति हैं, अच्छी अर्निंग कर लेते हैं। मुझसे प्रेम भी बहुत करते हैं। और प्रेम से ज्यादा मुझपर उनका विश्वास भी है। मुझे हर तरह की स्वतंत्रता है। फिर भी कहीं कुछ कमी है। शायद तुम्हारी। तुम्हें खोकर शायद मैंने अपने अंतर्मन की संतुष्टि खोई है।"
"तुम्हारी बच्ची बहुत प्यारी है।"
विनय ने जैसे श्रद्धा के प्रलाप को नजरंदाज कर बातों की दिशा को मोड़ना चाहा। जैसे वो कहना चाह रहा था कि अब इन बातों से क्या फायदा। इन बातों का समय बहुत पीछे छूट गया है।
इसी समय वेटर ने काफी सर्व कर दी। वेटर वापस जाने के लिए मुड़ा ही था कि विनय ने कहा-
"भल्ला साहब की दुकान से एक चाकलेट का बड़ा पैक ले आओ।"
वेटर चला गया। माॅल का ये समय भीड़भाड़ वाला नहीं था। जहां दोनों बैठे थे वो जगह भी एकांत की थी।
"अच्छा विनय! तुम्हें मेरी याद तो आती होगी।"
विनय हंसा।
"लगता है तुम्हें बात करने के लिए कोई टापिक नहीं सूझ रहा है।"
"ऐसा क्यों?"
"तुम्हें नहीं लगता कि ये प्रश्र मूर्खतापूर्ण है?"
श्रद्धा निरुत्तर हो गई। सचमुच इस प्रश्र का कोई औचित्य नहीं था। कुछ देर तक दोनों के बीच शांति बनी रही। इस बीच वेटर चाकलेट का एक बड़ा पैक लेकर आ गया। विनय ने पैकेट बच्ची की तरफ बढ़ा दिया। बच्ची सकुचाई सी चुपचाप खड़ी रही।
"चिक्की! ले लो। मामा हैं। और लेकर थैंक्यू बोलो।"
विनय फिर हंसा।
"तुम हंसे क्यों?"
"अभी कल की ही बात है, तुम मुझे आदर्शवाद के पाठ पढ़ाया करती थी। और आज...?"
"आज क्या?"
"माना कि हम पति-पत्नी कभी नहीं हुए। मगर प्रेमी-प्रेमिका तो थे ही। मेरे हाथ आज भी उस सनसनी को महसूस करते हैं जो तुम्हें छूने से मेरे हाथों और हाथों से पूरे शरीर में फैल जाया करती थी। और आज तुमने मुझे छूटते ही भाई बना लिया। कुछ तो मर्यादा रखी होती भाई-बहन के रिश्ते की।"
श्रद्धा सोच में पड़ गई। उसका का चेहरा पीला पड़ गया। सचमुच उससे गलती हुई थी।
"चिक्की घर जाकर अपने पापा को सब कुछ बता देगी, यही सोचकर मैंने ऐसा कहा था।"
"इसका मतलब तुमने मुझसे झूठ बोला था।"
"कौन सा झूठ?"
"यही कि तुम्हारे पति तुमसे प्यार करते हैं और तुम पर विश्वास करते हैं।"
"इसमें झूठ क्या है?"
"यदि तुम्हारे पति तुमसे प्यार करते हैं और तुम पर विश्वास करते हैं तो इन छोटी-मोटी बातों को नजरंदाज कर जायेंगे। और यदि ये झूठ है तो मेरे परिचय के लिए अंग्रेजी का शब्द 'अंकल' खूब सूट करता है। कम से कम मर्यादा तो बनी रहती।"
दोनों की काफी खत्म हो चुकी थी।
"मैं अब जाना चाहती हूं।"
"जा तो तुम पांच साल पहले ही चुकी हो।"
विनय ने धीरे से कहा।
श्रद्धा एक बार फिर चली गई। श्रद्धा के जाने के बाद विनय गहरे सोच में डूब गया। प्यार में त्याग उसी के हिस्से में क्यों आया। श्रद्धा के हिस्से में क्यों नहीं। वही क्यों एकतरफा प्यार निभा रहा है।
अगले दिन।
विनय अभी लंच करके उठा ही था कि...
"हाय! मेरा नाम विनीता है। मैं यहां बैठ सकती हूं?"
आगन्तुका ने विनय के सामने वाली कुर्सी की तरफ इशारा किया।
"श्योर...।"
रेस्टोरेंट की सारी मेजें खाली पड़ी थीं। फिर भी आने वाली इसी मेज पर क्यों बैठना चाहती है? विनय को कुतूहल हुआ। उसने सामने वाली को देखा। जींस-टॉप पहने इस आधुनिका के चेहरे पर एक रहस्यमयी मुस्कराहट थी।
"शायद आपको मुझसे कुछ काम है।"
"काम है भी और नहीं भी।"
"मतलब?"
"ये आप पर निर्भर करता है कि आप मेरे आने को किस नजर से देखते हैं।" ...
इस तरह विनय और विनीता की दोस्ती की शुरुआत होती है। इस दोस्ती का भविष्य क्या होगा ये मैं भविष्य पर छोड़ता हूं।
।।इति।।
।। दीपक कौशिक।।
।।७९०५४१५५३७।।
"