परियों का देश - अब रीलों में
परियों का देश - अब रीलों में
🌑 परियों का देश — अब रीलों में 🌑
🌹 श्रृंगारित हास्य व्यंग्य से अध्यात्म तक 🌹
✍️ श्री हरि
🗓️ 22.10.2025
परी — यह नाम कभी सूक्ष्म वासना का प्रतीक था।
वह कल्पना का वह फूल थी जो हर पुरुष के मन में खिलता था —
निराकार, अधूरी, पर सुगंध से भरी।
हर मर्द के भीतर एक परीलोक बसता था,
जहाँ वह अकेला राजा होता था,
और उसके चारों ओर सैकड़ों परियाँ मंडराती थीं —
उसे देखतीं, मुस्कुरातीं, और उसकी दमित इच्छाओं को
मदिरा की तरह पिलाती जातीं।
वह आनंदलोक नहीं था — वह वासनालोक था।
देह ही वहाँ साधना थी, और सौंदर्य उसका अस्त्र।
पुरुष सदियों से इस परीलोक में जीता रहा —
कभी चित्रकाव्य में, कभी नृत्यनाट्य में, कभी कल्पना में।
पर आज — यह परीलोक डिजिटल हो गया है।
अब परियाँ आकाश में नहीं, रीलों में उड़ती हैं।
यह नया युग है — “रील लोक” का युग।
जहाँ परियों ने वस्त्र उतार दिए हैं — न नारीत्व के विरोध में, बल्कि व्यूज़ के समर्थन में।
जहाँ देह प्रदर्शन है, और प्रदर्शन ही व्यवसाय।
जहाँ आकर्षण ही अर्थ है, और अर्थ ही अस्तित्व।
वे हकीकत में नहीं, स्क्रीन पर अनावृत हैं —
पर प्रभाव उतना ही तीखा,
उतनी ही उत्तेजना,
उतनी ही बिक्री।
कभी बाजार में देह बिकती थी,
अब भावनाएँ बिकती हैं — पर सौदा वही है।
तब ग्राहक गली के मोड़ पर खड़ा होता था,
अब मोबाइल के स्क्रॉल पर।
अंतर बस इतना है —
वह स्त्री पहले “वेश्या” कहलाती थी,
अब “इंफ्लुएंसर” कहलाती है।
दोनों के केंद्र में एक ही देवी है — कामना।
एक पैसे के लिए देह बेचती है,
दूसरी ध्यान के लिए देह दिखाती है।
एक सड़क पर खड़ी होती है,
दूसरी स्क्रीन पर।
पर दोनों के हाथों में वही दीपक —
“पुरुष की दृष्टि” का,
और दोनों के चरणों में वही अर्पण —
“वासना की अग्नि” का।
रील लोक में हर लड़की परी बनना चाहती है,
और हर पुरुष उस परी का भक्त।
वह लाइक को आशीर्वाद समझता है,
वह व्यूज़ को वरदान।
एक पक्ष में इच्छा का व्यापार,
दूसरे में दृष्टि की दासता।
युग बदल गया, पर भाव वही है।
कृष्ण के युग में गोपियाँ नाचती थीं — भक्ति में।
आज की परियाँ नाचती हैं — एल्गोरिद्म में।
तब बाँसुरी बजती थी, अब ट्रेंडिंग साउंड।
तब प्रेम था, अब प्रमोशन।
हर युग में वासना ने वस्त्र बदले हैं,
पर उसका स्वरूप नहीं।
वह कभी मंदिर के पीछे छिपी,
कभी मोबाइल के स्क्रीन पर नाची।
और पुरुष — वह सदा उसका उपासक बना रहा।
पर जो पुरुष एक दिन अपनी आँखें खोल देता है,
वह देखता है कि यह रील लोक भी उसी परीलोक की अगली कड़ी है —
वही पुराना भ्रम, बस डिजिटल रंग में रंगा हुआ।
वह हँसता है, जैसे किसी पुराने स्वप्न से जाग गया हो।
वह समझता है —
परी कहीं बाहर नहीं,
वह भीतर की अधूरी तृष्णा है।
जब वह तृष्णा शांत होती है,
तो रील भी मौन हो जाती है,
देह भी अर्थहीन,
और दृश्य भी निर्लिप्त।
तब मर्द जान लेता है —
कि जिसने अपनी वासना को जीत लिया,
वही सच्चा दर्शक है;
बाकी सब कलाकार हैं —
जो रोज़ अपनी-अपनी रीलों में अभिनय कर रहे हैं।
🌼
यही अंतिम सत्य है —
परीलोक से रीललोक तक यात्रा लंबी नहीं, बस मन की दिशा बदलनी है।
जहाँ देह का आकर्षण मिटे, वहीं आत्मा अपनी असली ‘रील’ दिखाती है —
जिसे देखने के लिए व्यूज़ नहीं, दृष्टि चाहिए।
