परिधि के बाहर
परिधि के बाहर
हम साथ काम करते थे....बातें करते थे...बावजूद एक लड़का और लड़की के हमारे बीच बढ़िया सी ट्यूनिंग थी ...बहुत बार मुझे ऐसा लगता था की मेरे से ज्यादा वह मुझे जानता है।
मेरी पसंद...मेरी नापसंद...हर बात...
साल दर साल गुजरने के बाद हम अपने अपने नौकरी में सेटल हो गये। कभी वह बिजी तो कभी मैं...ऐसे ही किसी दिन उसका फ़ोन आया कि मैं आ रहा हूँ..साथ बैठेंगे और गप मारेंगे....
फ़ोन रखकर मैं उससे मिलने के प्लान बनाने लगी। क्या पहनूँ और क्या नही...वह आया। उसकी बॉडी लैंग्वेज एकदम नार्मल थी...मुझे लगा जैसे मैं ही कुछ ज्यादा उत्सुक हो रही हुँ... हमेशा की तरह बातें हुई...ढेर सारी बातें... मैं उसका बिहेवियर देखकर हैरान थी... बातों के दरमियान जैसे मैं ही मैं ताली दे रही थी... उस के हाथ को पकड़ कर बातें कर रही थी... मुझे महसूस हो रहा था की जैसे वह 'उस' टच के लिए उत्सुक नहीं था...यह बात मुझे न जाने क्यों आहत कर रही थी...
हम औरतें इस बात को शायद बेहद जल्द पकड़ लेती है...
हाँ...हाँ... जो बात मुझे अब तक उलझा रही थी...तो यह बात है... वह गे है.... सारी बातें मेरे सामने आईने की तरह साफ़ हो गयी...उसे किसी औरत में क्यों दिलचस्पी होगी भला?
मैं अनमनी सी हो गयी...लेकिन दूसरे ही पल मुझे लगा की उसकी इंडीविजुअलिटी को रेस्पेक्ट देना चाहिए... यह इक्कीसवी सदी है.... समझदार और ओपन माइंडेड लोगों की सदी है.... जो जानकारी रखते है LGBTQ तबके के लोगों के बारे में....उनकी परेशानियाँ क्या हैं उनके बारे में अवेरनेस रखते है..
शाम को उसके फिर ऐसे ही आने के वादे को याद कर वह मुस्कुरा उठी...
अब वह थोड़ी देर पहले वाली झुँझलाती हुई लड़की नहीं थी....उसी मुस्कराहट में ड्रेसिंग रूम के आदमकद आईने के सामने खड़ी हो गयी...वह अचरज से भर उठी...
उसके सामने एक बेहद केयरिंग और कंसर्न रखने वाली एक नॉर्मल लड़की नज़र आ रही थी......