पर्चियाँ...
पर्चियाँ...
उन दोनो की जिंदगी चल रही थी
खेल खेल में...
हँसी खुशी में ...
साथ साथ....
यहाँ वहाँ....
आज न जाने क्या हुआ कि बीती जिंदगी के बारें में वह पलटकर देखने लगी। बीते पच्चीस सालों में लोग उनकी शादीशुदा जिंदगी के बारें में बात किया करते थे। अपनी खुशनुमा जिंदगी के बारे में बात करते वक़्त वह ठठाकर हँस देता और वह हल्के से मुस्कुरा भर देती... क्योंकि वह जानती थी कि जो जिंदगी अभी तक गुज़री है वह खेल खेल में ही गुज़री है और आगे की जिंदगी भी खेल खेल में ही गुज़ारनी है।
लोग कहेंगे ये कौन से खेल की बात कर रही है?
अरे हाँ, वही पर्ची उठाने वाला खेल...
देखने वालों को शायद यह बिल्कुल सीधा सादा खेल लगे.....कागज़ की दो छोटी छोटी पर्चियाँ से एक पर्ची उठाने वाला खेल.... लोग कहेंगे उसमें ऐसा क्या है?वह कैसे बताएँ लोगों को की उसे हमेशा ही 'सुनो' वाली पर्ची मिलती रही...
यह सयोंग ही था कि 'कहो' वाली पर्ची उसे एक बार भी नही मिली....इस गज़ब के संयोग को याद कर वह हल्के से फिर मुस्कुरा देती है...
अपनी शादीशुदा और खुशनुमा जिंदगी के बारे में वह कैसे बताएँ की वह सुनती रही...हरदम सुनती ही रही...