प्रौढ़ावस्था का प्यार !
प्रौढ़ावस्था का प्यार !
"सचमुच कवि जी उस समय आश्चर्य में पड़ गये जब उन्होंने यह महसूस किया कि उनके व्यक्तित्व में अभी भी कुछ ऐसा है जो किसी हम उम्र को अट्रैक्ट कर सके !"
"उन्होंने अपनी जवानी में तो इस एहसास को सैकड़ों बार जिया था। क़ामयाब होने और मनपसंद जीवन साथी पाने के लिए अपने यूनिवर्सिटी के जीवन में ख़ूब हाथ पांव भी मारे थे।.....लेकिन अफ़सोस उनके साथ उनकी ज़िन्दगी अपने अलग ही खेल खेल रही थी।"
"कौन कौन सा नाम नहीं जुड़ा उनके साथ? कभी तारा तो कभी धीरा ! किसी ने उनको" प्लैटोनिक" लवर कहकर उनका उपहास उड़ाया तो किसी ने महीनों प्रेम की पेंगें बढ़ाकर कवि जी की जेबें हल्की करते हुए विवाह न होने का ठीकरा अपने मां बाप के सिर पर फोड़ दिया।"
"अरे ठीक है भाई लेकिन कौन थे ये कवि जी?"... रमेश के इस प्रश्न पर अशोक हड़बड़ाहट में बोल उठा-.... " वही, अपने अज्ञानी जी! "
रमेश की उत्सुकता बढ़ चली थी। उसने पूछा,
"हां फिर क्या हुआ?"
"फिर क्या होना था। वही जो अक्सर पूरब के पढ़े लिखे उच्च कुलीन लड़कों के साथ होता है। एम. ए. करते - करते उनके दकियानूसी मां बाप ने उनकी कुंडली बांटनी शुरू कर दी। ......यह समझो कि एक एक कर टेंडर पड़ने लगे और उनका मूल्यांकन होने लगा ! "
"और लड़की ? " रमेश ने पूछा।
"लड़की? " शब्द पर कुछ जोर देते अशोक बोला;
"अमां लड़की वड़की कैसी है, ? कितनी पढ़ी लिखी है? उसके क्या क्या गुण ढंग है?.......इन सब को दहेज़ के आगे कौन पूछता था उन दिनों? "अशोक ने अपना वाक्य पूरा किया ही था कि रमेश बोल उठा
"ऐसा? "
"हां, ऐसा ही होता था उन दिनों।..... मां-बाप ने एक गोल मटोल लड़की घर लाकर कवि जी के ज़िम्मे सौंप दी।.... हवा हवाई हो गया था उनके इश्क़ विश्व का बुख़ार।"
रमेश ने कवि जी की कहानी खोलकर रख दी थी।उसने आगे बताया....
" उधर वही कवि जी अपने जीवन के इस अप्रत्याशित पहलू से बुरी तरह आहत हो गये थे। ठीक है युवावस्था में सेक्स की मांग ऐसी थी कि पसंद नापसंद को उन्होंने दर किनार कर डाला था और "जो मिल गया उसी को मुक़द्दर समझ लिया" था। लेकिन इश्क़ भी तो एक ऐसा मर्ज़ होता है जो कभी भी जड़ से समाप्त नहीं होता है। और वह भी किसी कवि को चढ़े इश्क के बुख़ार की तो बात ही और है ! वही हुआ ....ज्यों ज्यों दवा की तो मर्ज़ बढ़ता ही गया।"
कवि जी की कहानी ने अशोक पर इन्द्रजाल सरीखा जादू चला दिया था। उसने उत्सुकता जताते हुए आगे की घटना जल्द बताने को जब कहा तो रमेश बोला,
"एक दिन कवि जी एक कवि सम्मेलन से लौट रहे थे और उसमें मिली तारीफ़ से अभिभूत थे।मैं भी तो था उस समारोह में... क्या थी उनकी कविता? ....
"मौसिक़ी पर नशा सा छा जाए,
आशिक़ी हद से जब गुज़र जाए!
तेरा चेहरा गुलाब सा कोमल,
तेरी आंखें हमें करें घायल।
तेरी छम छम किया करे घायल,
मैं हूं नदिया तू मेरा साहिल!
हुस्न पर इश्क़ फ़िदा हो जाए,
आशिक़ी हद से जब गुज़र जाए।"हां... हां.... एकदम यही थी वह कविता और क्या मधुर गला था कवि जी का !
कवि जी घर पहुंचे ही थे कि उनका मोबाइल घनघना उठा।
"हेलो "... किसी महिला का स्वर था!
" हेलो!... मैं कवि जी बोल रहा हूं! "कवि जी ने उत्तर दिया।
" सर, मैं मंदाकिनी हूं... आप आपकी कविताओं की प्रशंसक! आज.. आज आपने जो कविता सुनाई थी वह दिल को छू गई है... और. . और मैं आपसे मिलना चाहती हूं! क्या कल आप काफ़ी हाउस शाम चार बजे आ सकते हैं? "
"ठीक है, मैडम... ठीक है। मैं कोशिश करता हूं।" कवि जी बात समाप्त करने के मूड में थे कि वह महिला कुछ सेक्सी अंदाज़ में बोल पड़ी...
"प्लीज़... दिल मत छोड़िएगा!... मैं.. मैं. पहले से ही टूटी, बिखरी हूं... प्लीज़! " मंदाकिनी ने इतना कहकर फ़ोन काट दाया था|
"फ़िर! " अशोक तिलमिला उठा!
"फ़िर क्या? " रमेश नतीज़े पर पहुंचने के अंदाज़ में बोला;
"फ़िर वही हुआ जिसका मुझे अनुमान था।कवि जी को उनकी रीयल कविता मिल गई... मंदाकिनी आज उनके साथ लिव इन रिलेशन में यह रही है और कवि जी को यह एहसास हो चला है कि देर से ही सही उनकी तारा और धीरा का कम्बिनेशन मंदाकिनी में मिल ही गया है! "