प्रार्थना की शक्ति
प्रार्थना की शक्ति
एक बार एक व्यापारी पिता और पुत्र जलमार्ग से यात्रा करते हुए रास्ता भटक कर एक ऐसे स्थान पर पहुंच गये। जहाँ दो टापू आस-पास थे और फिर वहाँ पहुंच कर उनकी नौका क्षतिग्रस्त हो गई।
इस विकट परिस्थितियों से चिंतित होकर पिता ने पुत्र से कहा- "लगता है, हम दोनों का अंतिम समय निकट आ गया है। यहां तो दूर-दूर तक कोई सहारा नहीं दिख रहा है तो क्यों न हम ईश्वर से प्रार्थना करें।"
दोनों ही एक एक टापू आपस में बाँट लिए। एक पर पिता और एक पर पुत्र और दोनों अलग-अलग टापू पर ईश्वर की प्रार्थना करने लगे।
पुत्र ने ईश्वर से कहा- "हे भगवन! इस टापू पर पेड़-पौधे उग जाए जिसके फल-फूल से हम अपनी भूख मिटा सकें।"
ईश्वर ने उसकी प्रार्थना अविलंब सुनी। तत्काल वहां पेड़-पौधे उग गये और उसमें फल-फूल भी आ गये। यह देखकर उसके मुख से बरबस ही निकल गया- "ये तो सचमुच में चमत्कार हो गया।"
अपनी पहली प्रार्थना पूर्ण होते देखकर उसने पुनः प्रार्थना की-" एक सुंदर स्त्री आ जाए जिससे हम यहाँ उसके साथ रहकर अपना परिवार बसाएँ।"
तत्काल एक सुंदर स्त्री प्रकट हो गयी। अब उसने सोचा कि मेरी हर प्रार्थना सुनी जा रही है, तो क्यों न मैं ईश्वर से यहाँ से बाहर निकलने का रास्ता माँगे लूँ ?
उसने ऐसा ही किया और उसने प्रार्थना की-" एक नई नाव आ जाए जिसमें सवार होकर मैं यहाँ से बाहर निकल सकूँ।"
तत्काल वहां नाव प्रकट हुई और पुत्र प्रसन्न हो अपने पत्नी के साथ उसमें सवार होकर बाहर निकलने लगा। तभी एक आकाशवाणी ने उसे चोंका दिया- "बेटा! तुम अकेले जा रहे हो? अपने पिता को साथ नहीं लोगे ?"
आकाशवाणी सुनकर पुत्र ने कहा- "उनको छोड़ो! प्रार्थना तो उन्होंने भी की होगी लेकिन आपने उनकी एक भी नहीं सुनी। शायद उनका मन पवित्र नहीं है, तो उन्हें इसका फल भोगने दो ?'
पूत्र की बात का आशय समझ कर पुनः आकाशवाणी में कहा गया- "क्या तुम्हें पता है कि तुम्हारे पिता ने क्या प्रार्थना की ?क्या तुम यह नहीं जानना चाहोगे कि उनकी कौन सी प्रार्थना स्वीकार हुई और कौन सी अस्वीकार?"
पुत्र बोला-"हां, मैं अवश्य जानना चाहूंगा।"
आकाशवाणी में कहा गया-" तो सुनो! तुम्हारे पिता ने एक ही प्रार्थना की*" हे भगवन! मेरा जीवन तो पूर्ण हो चुका है , पर मेरा बेटा अभी छोटा है ,वह आपसे जो माँगे, उसे दे देना! और इस प्रकार आज तुम्हें जो कुछ तुम्हें मिल रहा है उन्हीं की प्रार्थना का परिणाम है।"
इसी प्रकार स्वार्थ की राह पर निकल कर हम अपने सगे-संबंधियों और शुभचिंतकों से दूर हो जाते हैं। हम भूल जाते हैं कि हमें जो भी सुख, प्रसिद्धि, मान, यश, धन, संपत्ति और सुविधाएं मिल रही है उसके पीछे किसी अपने की प्रार्थना और शक्ति जरूर होती है लेकिन हम नादान रहकर अपने अभिमान वश इस सबको अपनी उपलब्धि मानने की भूल करते रहते हैं। और जब ज्ञान होता है तो बहुत देर हो चुकी होती है। उसके बाद असलियत का पता लगने पर पछताना पड़ता है।