Nisha Singh

Drama

4.3  

Nisha Singh

Drama

पंछी

पंछी

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374


चेप्टर -5 भाग-2

इतने में कोल्ड ड्रिंक और सैंडविच आ चुकी थी। जिसका इंतज़ार हमें समीर की कहानी से ज्यादा था।

‘शेखर, मैं और अंकित गए थे।’ कहते हुए समीर ने अपना सैंडविच उठाया, खाते हुए उसकी नाक पर थोड़ी सी लग गई… सॉस ।

‘हम लोग उसके बाद शेखर की कार से भानगढ़ के लिए निकल गए।’ कहते हुए समीर अपनी कुरसी से खड़ा होकर टहलने लगा।

‘असली मज़ा तो रास्ते में आया… हम तीन यार और यारों की यार बियर।’

यह मज़ा था रास्ते का… और मैं सोच रही थी इस सफर में सफर का मज़ा लिया गया है पर यह तो हद है रास्ते भर शराब पी है और कैसे मज़े ले कर बता रहा है।

‘और सिर्फ बीयर ही नहीं फुल आवाज़ में रॉक म्यूजिक… आ हा हा हा… बता नहीं सकता कितना मज़ा आया रास्ते में…’

मेरी समझ में नहीं आ रहा था पीकर गाड़ी चलाने में क्या मज़ा आ रहा था। यह तो अच्छा है ज़िंदा वापस आ गया वरना इसके घर जाना पड़ता रोने के लिए।

‘लगभग 80 किलोमीटर का सफर था… डेढ़ घंटे में पहुंच गए। जैसे ही हम गाड़ी से उतरे हमने सोचा कि लोगों से पूछ लेंगे कहां, कैसे जाना है, पर वहां तो चिड़िया भी नहीं थी, वैसे चिड़िया होती तो भी बताती कैसे… पर कोई बात नहीं हम लोग गाड़ी से उतर के आगे बढ़ने लगे। बड़ा मज़ा आ रहा था। हम सब ने सनग्लासेस लगाए थे चुड़ैल को पटाने के लिए, स्टाइल में चल के हम लोग उस फोर्ट के गेट पर पहुंचे। जैसे ही हम पहुंचे एकदम से गर्म हवा का झोंका आकर हमें थप्पड़ मार गया। सारे बाल खराब हो गए थे, मैंने तो सोच लिया था वहीं कि अब कोई चुड़ैल नहीं पटने वाली। फोर्ट के अंदर काफी दूर तक मार्केट बना था। साला, ऐसा लग रहा था जैसे रोज़ खुलता हो ऐसी साफ-सफाई तो अपने दिल्ली के मार्केट में ना मिले…’

उसकी यह साफ सफाई वाली बात मुझे कुछ अजीब लगी, पहले तो लगा समीर झूठ बोल रहा है पर समीर हम लोगों से झूठ नहीं बोलता, पर ऐसा कैसे हो सकता है जहां कोई रहता ना हो, लोग आने से डरते हो वहां बनी हुई कोई पुरानी मार्केट आम मार्केट जैसी साफ-सुथरी… कमाल की बात थी…। 


‘ओये, बड़े अजीब- अजीब से पेड़ थे वहां पर, सच कहूँ तो मैं वहां सच में डर गया था, दिखने में पेड़ थे ही इतने भयानक’।


मैंने ध्यान दिया कि समीर के माथे पर पसीने की कुछ बूंदें छलक आई थी। वह बूंदें पसीने की नहीं थी वो उसके अंदर का डर था जो मैं उसके माथे पर देख पा रही थी।

‘हम तीन ही थे पूरे फोर्ट में, और कोई भी नहीं था, हवाएं चल रही थी, माहौल बड़ा ही खतरनाक सा था। जैसे-जैसे हम अंदर बढ़ रहे थे हमारे अंदर का डर भी बढ़ रहा था। वैसे उसके अंदर एक हनुमान जी का मंदिर भी था। हम गए… पहले जहां बड़ा मज़ा आ रहा था वहीं अब डर के मारे जान निकली जा रही थी। हनुमान जी के मंदिर पर हम लोगों ने माथा टेका ऐसा लगा कोई पीछे खड़ा है। डर के मारे हम जल्दी से उठ गए।’

मेरा मन बिल्कुल भी नहीं लग रहा था उसकी इन सब बातों में… इतने में ही मेरे घर से फोन आ गया।

‘हां… मम्मी।’

‘क्लास हो गई सारी?’

‘हां हो गई… क्यों?’

‘तो बेटा आज जरा जल्दी आजा मुझे जाना है। शर्मा आंटी बीमार है घर पर कोई नहीं है अपनी सहेलियों को ले आना, तू अकेली भी नहीं रहेगी।’

‘ठीक है आती हूँ।’

‘शायद मम्मी चली गई।’ मैंने डोर बेल बजाई तो किसी ने गेट नहीं खोला। मेरे पास बाहर के डोर की चाबी रहती है, मम्मी जब तब मदर टेरेसा का रूप लेकर निकल जाती है ऐसे वक़्त में ये की मास्टर की का काम करती है। गेट खोलकर मैं और अंशिका अंदर आ गए।

‘कहां गई है आंटी?’ अंशिका ने सोफे पर बैठते हुए पूछा।

‘एक शर्मा आंटी है, शायद बीमार है उन्हीं को दुरुस्त करने गई है।’ कहते हुए मैं अपने कमरे की तरफ चली गई कपड़े बदल कर मैं जैसे ही वापस आई। मैंने देखा कि कुंभकरण महाराज सोफे पर नींद के आगोश में समा चुके थे, अरे… सो गई थी अंशिका, और क्या…।


वह तो सो गई, पर मेरा मन नहीं लग रहा था। बार-बार रोहित का चेहरा आंखों के सामने घूम जाता था। कुछ ऐसा ही तो हो गया था आज। वह सो गई तो मैंने जगाया नहीं, वहीं पड़े सिंगल बेड पर मैं भी पैर फैलाकर बैठ गई। पहले सोचा कि टीवी देख लूं पर वह सो रही थी इसलिए मन नहीं किया। सामने वाली दीवार पर भी रोहित का ही मुस्कुराता हुआ चेहरा मेरे सामने आ रहा था। कभी सोचा नहीं था मेरे साथ भी ऐसा होगा कहीं मैं सचमुच ही रोहित से प्यार तो नहीं करने लगी बड़ी अजीब सी बात है कि आज तक हमने एक दूसरे से बात तक नहीं की है। बस मुस्कुराने भर से क्या होता है… बार-बार दिमाग में वही बातें घूमती जा रही है: मेरा अंशिका के साथ आज कॉलेज गेट के बाहर निकलना, रोहित का गेट पर खड़े होना, हमारी नज़रें मिलना… पर आज… आज कुछ अलग हुआ, आज रोहित ने मुझसे नज़रें नहीं चुराई, अजीब सी कशिश थी उन आंखों में मुझे मुझे अपनी तरफ खींच रही थी। पर वह मुस्कान… वह तो अंदर तक झंझोड़ गई… आज पहली बार रोहित मुझे देख कर मुस्कुराया था। बस में बैठते हुए मैंने फिर उसकी तरफ देखा। वह अभी भी मेरी तरफ देखे जा रहा था, फिर वही मुस्कान मेरी तरफ आई और इस बार मैंने भी उससे मुस्कुराहट का स्वागत एक हल्की सी मुस्कान से कर दिया। हमारे लखनवी अंदाज़ में कहूँ तो हमारे इश्क का आगाज़ हो गया था शायद… 


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