फोन की घंटी
फोन की घंटी


रात के खाने की तैयारी कर रही थी कि फोन की घंटी बज उठी। मैं बिना फोन देखें ही समझ गई थी कि पापा का होगा। तभी बेटा चिल्लाया ,
"मम्मी नानाजी का फोन है।"
"तुम रिसीव करो जब तक मैं आती हूं।" मुझे पता था पापा के फोन का मतलब आधा घंटा कम से कम। मैंने जल्दी से दाल कुकर में डाल गैस पर चढ़ाई। इतनी देर में बेटा फिर आ गया। मैंने फोन लिया ही था कि पापा शुरू हो गए।
"कैसी है, कहां बिजी थी, जो मुझसे बात करने का टाइम नहीं लगता तुझे।"
हंसी छूट गई मेरी " क्या पापा आप भी रोज तो बात करती हूं।"
मेरी बात बीच में ही काट पापा बोले "अच्छा बता क्या कर रही थी।" और जो बातों का सिलसिला शुरू हुआ तो चलता ही गया। मेरी नजर घड़ी पर पड़ी तो माथा ठनका अरे, आज फिर खाने में देर हो गई। मैं मन ही मन बड़बड़ाई।
"पापा फोन रखती हूं, कोई आया है।" कह मैंने फोन रख दिया । पापा भी न, कहां से इतनी बातें ले आतें हैं। रोज़ नित नए किस्से! मानो किस्सों का कोई खज़ाना हो उनके पास। लेकिन पहले तो वह इतनी बातें नहीं करते थे। बल्कि बचपन में जब हम बहन- भाई जब खूब बातें करते तो कहते
"अरे कितना बोलते हो तुम सब। कहां से लाते हो इतनी बातें।" उस समय पापा कम बातें करते थे। शायद घर- बाहर के कामों में ज़्यादा थक जाते होंगे। और अब लगता है पापा का भी बचपन लौट आया है। कहते है ना बुढ़ापा बचपन का ही एक रूप है। अब पापा के पास समय है तो मेरे पास नहीं। घर- परिवार, नौकरी इन सब में दिन कैसे निकल जाता है, पता ही नही चलता। लेकिन पापा को कैसे समझाऊं, उन्हें खुद भी तो समझना चाहिए। सोचते हुए मैंने जल्दी से काम निबटाया। अगले दिन आँफिस पहुंची ही थी कि भाई का फोन आ गया।
" दीदी जल्दी घर आ जाओ, पापा कि तबियत अचानक ज्यादा खराब हो गई है।" कह उसने फोन काट दिया।
यह सुन मुझे विश्वास ही नही हुआ । कल शाम को तो मेरी उनसे कितनी देर तक बात हुई है। फिर एकदम से क्या हो गया। मैं तुरंत ऑफिस से निकली रास्ते में ही मैंने अपने पति को भी फोन कर दिया। जैसे ही मैं ऑटो से उतरी घर के सामने भीड़ देख, मेरे मन में अनेक आशंकाएं उठने लगी
मैं भारी क़दमों से किसी तरह अन्दर पहुंची तो वहां का मंज़र देख मैं चीख उठी। मेरे पापा का मृत शरीर धरती पर लेटा था। सहसा मुझे विश्वास ही ना हुआ। मैं उनकी देह से लिपट फूट फूट कर रोने लगी और कब बेहोश हो गई पता ही ना चला। जब होश आया तो पापा अंतिम यात्रा पर जा चुके थे।
शाम को भैया ने बताया कि रात को दीदी से बात करने के बाद जो सोए तो सोते ही रहे गए। सुबह जब मैं चाय देना गया तो पापा में कोई हलचल ना थी। मैं घबरा गया और तुरंत डॉक्टर को बुलाया। डॉक्टर ने बताया देर रात ही पापा की मौत हो चुकी थी।
रह रह कर मेरा मन मुझे धिक्कार रहा था कि में कैसे इतनी स्वार्थी हो गई थी कि अपने पापा के लिए ही समय नही निकाल पाती थी। कभी यह ना सोचा मां के बाद पापा कितना अकेला महसूस करते होंगे और मैं अपने पूरे दिन का एक आध घंटा उन्हें ना दे सकी। अब भी रोज़ फोन बजेगा, लेकिन वो पापा का ना होगा और चाहकर भी मैं अब कभी उनसे बात ना कर पाऊंगी। ये सब सोच सोच कर मेरी आंखों से फिर आंसू बहने लगे।
दोस्तों मेरी कहानी का उद्देश्य केवल इतना है कि हमारे बुजुर्गो को उम्र के इस पड़ाव में हमारी सबसे ज़्यादा ज़रूरत है। वो हमारा धन नहीं समय चाहतें है माना आज समय बहुत कीमती हो गया है लेकिन माता पिता से ज़्यादा नहीं। उनसे मिले, उनकी सुने अपनी कहें वरना बाद में मेरी तरह उनकी आवाज़ सुनने को तरस जाएंगे।