Abhishu sharma

Drama Inspirational

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Abhishu sharma

Drama Inspirational

पहली उड़ान

पहली उड़ान

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वह नन्हा कबूतर, अकेला उस बहुमंजिला-गगनचुम्बी इमारत की छत से लगे छज्जे पर बैठा था। उसके दोनों भाई-बहन कब के उड़ चुके थे । उनके बहुत प्रोत्साहित करने पर भी वह नहीं उड़ पाया था। ज्यों ही वह उस छज्जे के किनारे तक अपने छोटे कदमो से दौड़ कर जाता, और अपने पंखो को फ़ैलाने की कोशिश ही करता, त्यों ही ऊंचाई और फिर पंखों के ना खुलने का डर उसे वही रोक लेता। समीप ही विशाल समुन्द्र अपनी बाहें फैलाये उसे अपनी और खींच रहा था, ईमारत की छत से समुन्द्र बहुत- बहुत अधिक नीचे था।

 नन्हे को इस बात का पूरा यकीन था की उसके पंख उसका साथ नहीं देंगे, हारकर उसने अपने झुके सर और कंधे का भार साथ ले उस छज्जे के दूसरे कोने पर बने एक बिल में चला गया जहाँ वह रात को सोता था। यहां तक की जब उसके भाई और बहिन भी उड़ गए और उसके मुकाबले उनके पंख बहुत छोटे थे,

छज्जे के कोने तक भागकर, पंखो को लहराते हुए वह पालक झपकते हुए कब उड़ गए उसे पता ही नहीं चला.

 तब भी वह हिम्मत की नय्या में डुबकी नहीं लगा पाया और निराशा की गहराइयो में खोकर वापस आ गया। उसके माता पिता उसे हताश देखकर अपनी बारीक और पतली आवाज़ में उसका होंसला बढ़ाने आये, उन्होंने कई तरीके अपनाये, भूखे रह जाने की धमकी तक दी, जब तक वह उड़ेगा नहीं, खाने का एक कोर तक नहीं देंगे, दो टूक कहकर जाने का नाटक भी किया पर गिर जाने की दहशत ऐसे उसके मन पर हावी थी कोई धमकी, मनुहार उस पर कारगर साबित नहीं हुई। 

यह सब पिछले दिन की घटना का विश्लेषण था। 

तब से कोई भी परिवार का सदस्य उसके पास नहीं आया था। एक दिन पहले उसने अपने माता पिता को उसके भाई बहन के साथ समुद्र की लहरो से खेलते हुए, आसमान में छाये बादलो की गहराइयों में समाते देखा था, वह उन्हे उड़ने की कला में पारंगत कर रहे थे । किस तरह लहरों को चीरते हुए जाना है और मछलियों का शिकार करना है, सबकुछ थे उन्हें सीखा रहे थे । जीवन जीने के मूल्य और सिद्धांत से उन्हें अवगत करा रहे थ। 

उनके पंखो की उड़ान में पैरों की पतंग के तांगे से स्वाभिमान के मांझे की डोर को बाँध रहे थे। 

नन्हे ने कल ही अपने बड़े भाई को एक समुद्री मछली को अपने पेरो से पकड़ने में पहले तीन बार विफल हो, चौथी बारी में सफलता की बिगुल बजाते देखा था, सभी परिवार के सदस्यों ने घेरा बनाकर उसका स्वागत गर्वित मन से हर्षोल्लास के साथ किया था।

आज सुबह सभी घरवालों ने नन्हे की बुजदिली के लिए बहुत ताने देकर उसे खूब जाली कोटि सुनाई थी।

ऐसा प्रतीत हो रहा था की सूरज भी उसकी बुजदिली की कविता का पाठ कर क्रोध की अग्नि में जल रहा था । छज्जे पर भी अब उस अग्नि की ज्वाला पहुँच चुकी थी। कल शाम से नन्हे ने एक दाना तक नहीं खाया था तो वह धूप अब उसे ओर अधिक प्रताड़ित कर रही थी। तभी उसे एक मछली की पूँछ का सूखा हुआ टुकड़ा छज्जे के एकदम दाहिने किनारे पर दिखाई दिया। उसने उसे खा लिया

 अब यह बात प्रमाणित हो चुकी थी की खाने का एक टुकड़ा भी शेष नहीं था उस छज्जे पर।

उसने हर एक कोना छान मारा था जहाँ उसे और उसके भाई बहनो को उनकी माँ अपनी चोंच में दाना रख कर खिलाती थी। उसने सूखे हुए छिलको तक को भी खदेड़ डाला था।

मारे भूख के अब वह खुद को ही चाटने लगा, घबराहट से उत्तेजित हो वह छज्जे पर ही एक कोने से दूसरे कोने भागने लगा।

 छज्जे के कोने में झुक कर अपने भूरे शरीर को पटकने लगा की कहीं से उसके माता पिता उसे देख ले ओर उसे खाना खिलाने आ जाएँ।

पर उसे निराशा ही हाथ लगी। उसके ओर उसके परिवार के बीच बहुत गहरी खाई  थी जिसे पार करना उसके लिए नामुमकिन प्रतीत हो रहा था । नन्हे ने आखरी बार पैर को लटका कर सोने का नाटक कर उनका ध्यान अपनी ओर खींचने का आखरी बार प्रयास किया पर विफल ही रहा। 

ऐसा नहीं था की उसके माता पिता उसे छोड़ कर चले गए थे। वह समुन्द्र पर बनी एक चट्टान पर बैठे उसकी हर एक हरकत पर अपनी चौकस नज़र लगाए बैठे थे। कह देने या बता देने भर से जीवन का पाठ नहीं सीखा जा सकता, उसे जीवन में अमल में लाकर, करके ही दिखाना होता है तभी जीवन के दुर्गम डगर को पार कर शिखर पर हर्ष ओर सुकून प्राप्त होता है ।

हताशा की अग्नि में झुलस कर ही मंज़िल का बताशा चखने को मिलता है।

नन्हे ने धीरे धीरे छज्जे का किनारा पाकर उतरना शुरू किया। डर से उसने एक पैर किनारे पर और दूजा, पंखो में दबा रखा था । उसने अपने भाई बहन को चंचलता की पगडण्डी पर मस्ती करते हुए चट्टान को उल्हास करते हुए देखा। वहाँ सभी परिवार के सदस्य हास्य विनोद की क्रीड़ा में झपकी ले रहे थे।

उसके पिता, उसके भाई द्वारा अभी अभी किये शिकार को साफ़ कर, परिवार के अन्य सदस्यों के लिए तैयार कर रहे थे। सिर्फ उसकी माँ उसकी तरफ देख रही थी। वह चट्टान के थोड़े ऊपर भाग पर बैठी थी। वह बार बार मछली के टुकड़े को फाड़ फाड़ कर, छोटा कर, अपनी चोंच में दबाती ओर पंख फैलाती थी। 

यह खाने की झलक ने जैसे नन्हे को पागल बना दिया था। उसे कितना अधिक पसंद था खाने को इस तरह फाड़ना,  छोटा करना, तीखा कर फिर उसे चोंच में दबाना.यह उसे बहुत ज्यादा पसंद था। वह कुड़कुड़ाकर रह गया। उसकी माँ भी यह देखकर कुड़कुड़ाई।

"का -का -का", नन्हा अपनी माँ की ओर देखकर गिड़गिड़ाया की थोड़ा खाना उसे भी दे दो। "का-ऊल-का-गा", उसकी माँ ने जवाब दिया। अपनी माँ के होंसले ओर उत्साह में उसे उपहास और अवहेलना का मिथ्या दर्पण दिखाई दिया। पर फिर भी वह माँ की और कातर निगाहो से देखता रहा और कुछ ही पल बाद ख़ुशी की लहरों में झूमने लग। उसकी माँ अपनी चोंच में दाना लिए उसकी और आ रही थी। वह छज्जे के किनारे पर एक पैर से झूलता हुआ लटक गया की जैसे ही माँ पहुंचे उसकी चोंच में दाना डाल दें। पर जैसे ही माँ उसके समीप आई, छज्जे पर माँ के पंख छुए, वह रुक गयी, , अपने पैर मोडे, पंखों को हवा देना बंद किया और दाना नन्हे की चोंच को छुआ कर नीचे समुद्र की ओर गिरा दिया।

नन्हे को अपनी आँखों पर विश्वास नहीं हुआ, उसे लगा उसकी माँ उसके ओर अधिक पास क्यों नहीं आई, और फिर, भूख से तमतमाकर, उसने गिरते हुए खाने के दाने की ओर छलांग लगा दी।

बहुत तेज चिल्लाहट के साथ वह बाहर की तरफ, नीचे की ओर बहने लगा। उसकी माँ ने यह देखकर नीचे की तरफ, उसकी ओर, झपट से उड़ान भरी। नन्हे ने अपने पास से माँ को सांयें -सांयें की आवाज़ के साथ नीचे जाते देखा। इस आवाज़ से एक पल को उसका दिल धक् से सहम कर बैठ गया। उस पल उसे कुछ भी सुनाई नहीं दे रहा थ। पर यह सब बस एक पल को ही ठहरा । 

अगले ही पल उसने अपने पंखो को हवा में लहराते हुए देखा। हवा की तेज धारा को चीरते हुए उसके पंख, उसके मखमली पेट को छूते हुए, उसके पेरो को चूम रहे थे। वह अपने परों की सायें सायें की आवाज़ अब सुन पा रहा था। वह नीचे की ओर उड़ रहा था। अब उसे डर बिलकुल भी नहीं लग रहा था। हलके चक्कर भी आ रहे थे पर वह आगे बढ़ रहा था। फिर उसने अपने पंख फैलाये ओर ऊपर की ओर उड़ान भरी। वह खुश मन से चिल्ला रहा था, ओर पंखो को फैला- फैला कर उड़ रहा था।

 अब उसे चक्कर आने भी बंद हो गए थे। वह पंख फैलाकर ओर ऊपर उड़ चला।

उसन अपना सीना ऊपर उठाया ओर हवा को चीरता हुआ, "का -का -का, का -ऊल -का, का -का -गा -गा -गा -का" चिल्लाता हुआ उड़ रहा था। तभी उसकी माँ उसके उत्साह ओर ख़ुशी को बराबर की टक्कर देते हुए उसके पास से निकली ओर उनकी चिल्लाहट का जवाब उसने एक और आनंदित पुकार के साथ दिया। तभी नन्हे के पिताजी हर्षित पुकार के साथ उसके ऊपर से उड़ान भरते हुए उसकी और गर्वित मुस्कान से सरोबार हो उसके पास से निकले।

उसके दोनों भाई बहन उसके चारों तरफ से उड़ते हुए, अठखेलियां करते हुए आ गए, उसका कवच बनने, उसे और अधिक ऊपर उठाने, शिकार की कला में पारंगत करने, उसकी सफलता में छुपी उनकी अपार ख़ुशी में नहाने पूरा परिवार आ गया था।

अब नन्हा बिलकुल भूल चूका था की कभी वह बिलकुल उड़ नहीं सकता था। यह सागर के ऊपर, आसमाँन की गहराईयों में सांसें ले रहा था।

उसने लहरों का कलरव, सागर की असीमित ताकत को अपने पंखो की उड़ान में रची -बसी आज़ादी में महसूस किया। 

अब वह चट्टान पर अपने परिवार के साथ बैठा था। सभी ने गर्व से उसे सीने से लगा लिया। सभी हंस रहे थे, तब उसे भूख का ख्याल आया और सभी लोग अपनी अपनी चोंच में उसके पसंद का खाना दबा उसे खिलाने के लिए उसकी ओर बढ़ चले।

उसने अपनी पहली उड़ान भर ली थी।             


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