Arunima Thakur

Romance

4.5  

Arunima Thakur

Romance

पहला प्यार दूसरी बार....

पहला प्यार दूसरी बार....

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कहानी का शीर्षक था, "प्यार वह भी दूसरी बार", पढ़कर मुझे हंसी आ गई। शीर्षक पर नहीं अपने आप पर यहां तो प्यार पहली बार करना भी मुश्किल था। क्यों ? अरे भाई हमारे जमाने में तो यह प्यार, प्रेम, इश्क जैसे शब्द तक फुसफुसा कर बोले जाते थे। याद है मुझे आठवीं कक्षा की हिंदी की क्लास जिसमें सर के रोमांच बोलते ही पूरी क्लास ही खी खी खी और खूसुर पुसुर करने लगी थी। नसीब वाले हैं आजकल के बच्चे जिनको आज नर्सरी क्लास में ही प्यार हो जाता है। वह "आई लव यू मम्मी", "आई लव यू पापा" के साथ-साथ आई लव यू बोलना भी सीख जाते हैं। पर हमारे जमाने में तो. . . .। खैर ऐसा भी नहीं की लोग उस जमाने में इश्क नहीं किया करते थे। जमाने के खिलाफ जाकर प्रेम प्यार के किस्से तो सदियों से बनते आ रहे हैं l 


मैं एक ठाकुर खानदान की मन्नतों बाद आई बेटी। माँ पापा तो क्या पूरे खानदान की लाडली। पूरा बचपन भाइयों के साथ बीता क्योंकि मैं भाइयों का एक छोटा सा खिलौना थी। पहले वह मुझे अपने साथ लेकर जाया करते थे। बड़े हो जाने पर मैं जिद करके उनके साथ जाने लगी। तो लड़कियोंचित गुणों का विकास मुझ में हुआ ही नहीं या शायद बहुत बाद में हुआ। दसवीं ग्यारहवीं तक आते-आते जब सहपाठी सहेलियां किसी न किसी लड़के के नाम की आहें भरती I मैं नासमझ सोचती इनमें ऐसा क्या खास है ? यह डायलॉग तो बहुत बाद में आया पर मेरे विचार तब भी वही थे, "किसी की आँखें अच्छी, किसी की आवाज, कोई पढ़ाई में अच्छा, कोई डांस में, किसी एक से प्यार हो तो कैसे ?" कोई भी सर्व गुण संपन्न लड़का जो मेरी कसौटी पर खरा उतरे ऐसा मिला ही नहीं। जिसके लिए मैं अपने माँ-पापा के बीस साल के प्यार और इज्जत को दाँव पर लगा सके। मेरी पारिवारिक पृष्ठभूमि और उसका रफटफ एटीट्यूड देखकर किसी की हिम्मत ही नहीं हुई मुझ से प्यार करने की। 


पढ़ाई खत्म करते ही मेरी शादी तय हो गई। मेरे भावी पति मुझे फोन करते, कार्ड भेजते। पर मुझ में प्रेम प्यार की कोई भी भावना जागृत नहीं होती। मुझे लगता था कि शादी करने के बाद दूसरे के घर में जाकर मुफ्त की गुलामी ही करनी है। मेरे आस-पास में चचेरी बड़ी बहनों को, भाभी, चाची लोगों को देखती तो यही लगता। तो शादी के समय तक पति नाम के जीव से कोई भी जरा भी मोह या लगाव नहीं हुआ था। उस समय पर दहेज प्रथा भी जोरों पर थी। तो मैं मन में डरती भी थी अगर उन लोगों ने दहेज की मांग की तो ? अगर मेरे पापा नहीं दे पाए तो? फिर पता चला इनकी तरफ से मांग तो कुछ नहीं थी, पर इस तरह से पापा लोग ज्यादा परेशान थे  कि कुछ नहीं मांग रहे, तो पता नहीं क्या क्या देना पड़ेगा ?


तिलक करके आने के बाद पापा काफी खुश दिखे कि लड़का बहुत ही अच्छा है। उसे लेकर मैं दुकान में गया था कि भैया जो जो लेना हो ले लो पर उसने कुछ भी लेने से मना कर दिया। बहुत जोर देने पर एक टीवी लिया, वह भी सस्ता वाला l पापा को खुश देखकर पापा की लाडली यानी मेरे मन में भी मेरे भावी पति के लिए थोड़ा सा सम्मान का भाव आया l मैं जो कि निर्णय करके बैठी थी कि देखती हूँ कैसे मुझे दहेज के लिए प्रताड़ित करते हैं। मुझे किसी ने मारने की हिम्मत की तो वही से चाकू उठाकर घुसा दूंगी। बाद में जो होगा देखा जाएगा। और मिट्टी का तेल डालकर जलाने की कोशिश की तो जलाने वाले को ही जाकर चिपक जाऊँगी l मेरे साथ वह भी जलेगा।


तो जरा सोचिए इन सब मन स्थितियों के बीच प्यार का स्रोत तो कहीं सूखा पड़ा था। संशय असंशय के भंवर में डूबते उतराते मेरी शादी होकर मैं ससुराल आ गई। ससुराल अच्छी थी। पर एक लड़की से बहू बनना, जींस पहनकर घूमने वाली जिसने कभी दुपट्टा भी ना लिया हो, बारहवों घण्टे सर पर पल्लू रखना, सुबह आठ नौ बजे आराम से उठने वाली ( क्योंकि मैं रात में देर तक पढ़ाई करती थी) सुबह पाँच बजे उठ कर नहा धोकर पति का टिफिन तैयार करना। कुछ यूँ लग रहा था जैसे तितली वापस से कोकून बनने की प्रक्रिया से गुजर रहीं हैं। ससुराल में परेशानी कोई नहीं थी। पर सालों, बरसों पहले अपना गांव छोड़कर दूसरे प्रदेशों में बसे लोगों की तरह मेरे ससुराल वाले भी आज भी उसी चालीस साल पहले के जमाने में जी रहे थे। वह यह मानने को तैयार ही नहीं थे कि पिछले चालीस सालों में हमारा प्रदेश काफी बदल गया है, काफी आगे बढ़ गया है। वे आज भी वहीं चालीस साल पुरानी प्रथाओं और मान्यताओं को पकड़े बैठे थे। ससुराल के रस्मों रिवाज, खानपान सब में सामंजस्य बैठाते बिठाते कभी प्रेम प्यार जैसी भावना जागृत ही नहीं हो पाई।  


मेरे पति बहुत अच्छे थे और समय समय पर अपना प्यार जताते भी थे। पर मैं .. हाँ ठीक है ..... .,। ऐसा करते करते चार महीने बीत गये। मुझे पग फेरे के लिए मायके ले जाने के लिए पापा व भाई आयें। मैं तो बहुत... बहुत खुश, लग रहा था जैसे कैद से छूट कर भाग रही हूँ। पापा और भैया हमारे घर पर दो दिन रुके। इन्होंने आसपास की जगहों पर हमको, हम सब को खूब घुमाया फिराया। जिस दिन मुझे जाना था उसके एक दिन पहले से इनकी आँखें तो एकदम लाल आंसुओं से भरी और मेरी भावनाएँ,"हुँह बेकार का नाटक है। मैं अपने घर जा रही हूँ, शांति से रहने कुछ दिन I अब इनकी अम्मा, इनके घरवालों को काम करना पड़ेगा इसीलिए इतना बुरा लग रहा है हुँह. . . I मुझे आज भी याद है जिस रात को मुझे निकलना था उस रात मेरे पति से खाना भी नहीं खाया गया था। और मेरी भावनाएँ "बहुत नाटक करते हैं शान्ति से जाने भी नहीं दे रहें अब मुझे भी खाना खाए बगैर ही निकलना पड़ेगा।" मैं नासमझ चारों पैरों पर तैयार कब मौका मिले कब भागूँ वाली हालत।


पूरे चार महीने बाद मैं अपने घर में थी। इनका रोज फोन आता था। बोलते "मैं तुम्हें बहुत याद कर रहा हूँ"। मैं भी बोलने को बोल देती, "हाँ मैं भी आपको बहुत याद करती हूँ"। ये तो मेरा मन ही जानता था कि कितना याद करती थी। कुछ डेढ महीने बाद मेरी विदाई का मुहूर्त बन रहा था। पर यह क्या ? यह तो बीस दिन बाद ही लेने पहुँच गए। इनको देख कर पहली बार लगा कि जैसे दिल एक धड़कन धड़कना भूल गया। इनका मुँह कैसा कैसा हो रहा था। इनको देखकर थोड़ी दया आयी।जैसे कोई किसी अपने से मेले में बिछड़ गया हो और मिलने पर आंखों में जैसे चमक आती मुझे देखकर वैसे ही इनकी आंखें चमक उठी। पहली बार इनके लिए मेरे मन में कोई भावना जागी शायदI 


मायके से पहली विदाई की सायत नहीं थी। तो लगा पापा इनको वापस भेज देंगे। पर मेरे पापा ने घरवालों का विरोध कर इनसे बस इतना हीं कहा, "जब कभी मैं लिवाने आऊँ तो ऐसे ही आप भी विदा कर देना, आज आप लिवाने आये हैं मैं विदाई से मना नहीं करूंगा"। मेरे अनुभवी पापा ने शायद इनकी आँखो में मेरे लिए अथाह प्यार का सागर देख लिया था। ससुराल पहुंचने पर सबने मुझे छेड़ना शुरू कर दिया। ऐसा क्या जादू कर दिया था कि तुम्हारे जाने के बाद से ये लड़का ऐसा अनमना सा आँखों में आँसू भरकर घूम रहा था। और मेरे पति बाहर के कमरे में बैठकर सीटी बजाते हुए गाने की धुन गुनगुना रहे थे, "पहला नशा पहला खुमार नया प्यार है नया इंतजार ...। पता नहीं लोगों की बातों का असर था या पति के गाने का या बीस दिनों की जुदाई का, पहली बार मुझे अपने दिल में प्यार का एहसास हुआ।


और आज इनके जाने के बाद तो वह प्यार और भी ज्यादा गहरा हो गया है। लगता है मुझे दोबारा से इनसे इश्क हो गया है। पहले तो मुझे समाज के साथ, परिवार के साथ, बच्चों के साथ, सबके साथ इन्हें बाँटना पड़ता था। पर अब तो यह मेरे हैं सिर्फ मेरे। किसी ने क्या खूब कहा है :-


"आजकल हम तुम दोनों साथ में टहलते हैं।

मैं छत पर और तुम मेरे जेहन में। 


कौन कहता है कि मुलाकात तेरी मेरी आज की हैं।

तू मेरी रूह के अंदर हैं कई सदियों से।"



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