पौराणिक कथा : निर्णय
पौराणिक कथा : निर्णय
भरत और शत्रुघ्न दोनों भ्राता कैकेय देश से अयोध्या की ओर जा रहे थे। दोनों का मन बहुत उद्वेलित था। समाचार ही कुछ ऐसा था। तात दशरथ जिनकी छत्रछाया में वे पले बढे थे , जिन्होंने इस संसार का ज्ञान करवाया था , वे अब इस दुनिया में नहीं रहे। यह कोई समाचार तो नहीं था, यह तो वज्रपात था। भरत और शत्रुघ्न दोनों भ्राता इस समाचार को सुनकर मूर्छित हो गये थे। मातुल ने उन्हें ढांढस बंधाया था और कहा था कि भावी राजा को इस तरह शोक नहीं करना चाहिए।
भरत तभी से यह सोचकर उद्विग्न थे कि मातुल ने ऐसा क्यों कहा था। बार बार वे अपने मन को समझाते कि मातुल से कोई त्रुटि हो गई होगी इसलिए उन्होंने ऐसा कह दिया है जबकि मातुल को भी ज्ञात है कि भावी राजा तो उनके ज्येष्ठ भ्राता और जन जन के चहेते श्री रामचंद्र जी ही हैं। भरत इन शब्दों की गहराइयों में जाने की कोशिश कर रहे थे मगर वे हर बार खाली हाथ ही लौट रहे थे। रथ में पूर्णत: निस्तब्धता थी , बस पहियों के घूर्णन और अश्वों की हिनहिनाहट का शोर हो रहा था।
रथ अयोध्या नगर में प्रवेश कर चुका था। अयोध्या नगरी इस तरह प्रतीत हो रही थी जैसे एक सुहागिन स्त्री का सुहाग उजड़ गया हो और वह श्रीहीन, कांतिहीन और सौन्दर्यहीन हो गई हो। चारों ओर नीरवता का साम्राज्य था। उन्हें यह देखकर आत्मिक संतोष हुआ कि "तात" के देवलोक गमन पर अयोध्या नगरी भी शोकमग्न है।
कुछ नगरवासी इधर उधर घूमते नजर आ रहे थे मगर सबके चेहरे "स्याह" और निस्तेज थे जैसे तन से किसी ने प्राण हर लिये हों। "सभी नगरजन कितना स्नेह और सम्मान करते हैं तात का"। भरत ने मन ही मन सोचा। पर ये क्या ? लोगों की निगाहों में तिरस्कार, घृणा और असम्मान क्यों दिख रहा है भरत को ?
"अनुज शत्रुघ्न, लोगों की निगाहों में जो घृणा का सागर मैं देख रहा हूं क्या तुम भी वही देख पा रहे हो" ?
"जी भ्राता श्री। पर कारण नहीं समझ पा रहा हूं ? शोक तक तो उचित है पर घृणा , तिरस्कार ? क्या कारण हो सकता है इसका ? लोगों का व्यवहार भी कुछ आश्चर्य जनक लग रहा है। हमारे अयोध्या में आने से जैसे इन्हें प्रसन्नता नहीं हुई हो अपितु क्रोध हो रहा हो। हम लोग पहले भी कई बार मातुल के यहां गये हैं। जब वापस अयोध्या लौटते थे तो कितने उत्साह और उमंगों से हमारा स्वागत करते थे सब लोग। मगर आज तो फिजां बदली बदली सी लग रही है"।
"तात के देवलोक गमन का समाचार ही इतना विकराल है अनुज कि उसके बोझ से स्वागत सत्कार सब दबकर रह गया है। मुझे इस पर आश्चर्य नहीं हो रहा है अनुज , मुझे तो इस पर आश्चर्य हो रहा है कि भ्राता श्रीराम के राज्याभिषेक की कहीं तैयारी नहीं दिख रही है। एक अनजानी सी आशंका मेरे मन में घर करती जा रही है। लोगों की नजरों में हम दोनों के प्रति रोष , असम्मान, घृणा के बादल दिखाई दे रहे हैं। मुझे कुछ अनिष्ट होने की आशंका होने लगी है अनुज"
"तात के देवलोक गमन से बड़ा अनिष्ट और कुछ हो सकता है क्या ज्येष्ठ" ?
"तुम सही कहते हो अनुज। पर पता नहीं क्यों मुझे इससे भी बड़े अनिष्ट की आशंका प्रतीत हो रही है। मेरा बांया अंग फड़क रहा है और संपूर्ण गात शिथिल हो रहा है"
इससे पहले कि शत्रुघ्न कुछ कहते रथ राजप्रासाद के अंदर प्रवेश कर चुका था। द्वार पर आर्य सुमंत उनके स्वागत के लिए खड़े थे। वे उन्हें माता कैकेयी के महल की ओर लिवाकर ले चले।
"आप हमें कहां ले जा रहे हैं आर्य सुमंत" ? भरत ने पूछा
"राजमाता कैकेयी के भवन में"
"राजमाता कैकेयी ? राजमाता तो माता कौशल्या हैं आर्य। आप तो इतने बड़े विद्वान हैं , आपसे ऐसी त्रुटि की आशा नहीं थी आर्य"। भरत के शब्दों में थोड़ा आक्रोश था।
"माता कौशल्या पहले थीं राजमाता। अब माता कैकेयी राजमाता हो गई हैं"। सुमंत ने बड़ी शालीनता से जवाब दिया।
"मैं कब से राजा बन गया आर्य ? आप ये क्या धृष्टता कर रहे हैं" ? भरत गरज उठे
"माता कैकेयी का ऐसा ही आदेश है महाराज"। सुमंत अपनी ग्रीवा झुकाए कह गये।
महाराज संबोधन सुनकर भरत चौंके। अब उन्हें सब कुछ स्पष्ट दिखाई दे रहा था। अयोध्या के नगरजनों की आंखों में उनके लिये घृणा , असम्मान और तिरस्कार का कारण यही था शायद। भरत ने शत्रुघ्न की ओर देखा। उनकी आंखें भी विस्मय से चौड़ी हुईं जा रही थी। धीरे धीरे भरत की आंखों में दृढता आने लगी और उन्होंने गरजकर कहा
"रथ राजमाता कौशल्या के भवन की ओर ले चलो आर्य सुमंत"
"लेकिन राजमाता कैकेयी ने तो ...." सुमंत ने प्रतिवाद करने की कोशिश की
"ये महाराज भरत का आदेश है"।
अब सुमंत के पास कोई विकल्प नहीं था। उन्होंने रथ को कौशल्या माता के भवन की ओर मोड़ दिया। भरत के आने के समाचार से माता कौशल्या भाव विव्हल हो गईं और उनकी आंखों की कोर से दो आंसू छलक पड़े
"आओ पुत्र। हम सब तुम्हारा ही इंतजार कर रहे थे। यात्रा में कोई कठिनाई तो नहीं हुई तुम्हें" ?
"मुझसे ऐसा क्या अपराध हुआ है माता जो आपने मुझे आपके चरणों में लेटने के अधिकार से वंचित कर दिया है" ? भरत माता कौशल्या के चरणों में लोटते हुए कहने लगे।
माता कौशल्या के धीरज का बांध अब टूट चुका था। उन्होंने भरत को अपनी बांहों में उसी प्रकार से भर लिया जैसे एक सागर सैकड़ों नदियों को अपने में समाहित कर लेता है। दोनों की आंखों से दुख, नैराश्य, क्षोभ, नकारात्मकता के बादल उमड़ उमड़ कर बरसने लगे। थोड़ी देर में माता कौशल्या ने स्वयं को संयत कर कहा
"एक राजा को इस तरह शोक नहीं करना चाहिए पुत्र। यह एक क्षत्रिय के लक्षण नहीं हैं पुत्र। इतने कमजोर मत बनो वत्स , तुम्हें तो हम सबको संभालना है। अगर तुम ही ऐसे भीरु बनोगे तो बेचारे शत्रुघ्न का क्या होगा" ?
"ये आप क्या कह रही हैं माते ? भरत कब अयोध्या का राजा बन गया ? इसका निर्णय किसने किया" ? भरत के स्वर में तीव्र प्रतिरोध था।
"नियति ने इसका निर्णय किया है वत्स। भाग्य ने तुमसे तुम्हारे "तात" को छीन लिया इसलिए तुम्हें अयोध्या का राजा नियुक्त किया गया है पुत्र"।
"किसके आदेश से, माते" ?
"तुम्हारे स्वर्गीय पिता और अयोध्या के तत्कालीन महाराज दशरथ के आदेश से"।
"ज्येष्ठ भ्राता रामचंद्र के रहते यह आदेश क्यों दिया गया माते" ?
"तुम्हारे ज्येष्ठ भ्राता राम यहां नहीं हैं पुत्र"
"फिर कहां हैं" ?
माता कौशल्या चुप हो गईं।
"आप बताती क्यों नहीं हैं माते" ?
कौशल्या फिर भी चुप रहीं। भरत ने उन्हें झिंझोड़ते हुए कहा "आप बोलती क्यों नहीं हैं माते" ?
"राम, लक्ष्मण और सीता वन में गये हैं"। माता ने भयानक बम विस्फोट करते हुए कहा। इन शब्दों को सुनकर भरत मूर्छित हो गये। माता कौशल्या ने उनके चेहरे पर शीतल जल का छिड़काव किया तब जाकर उनकी तंद्रा दूर हुई।
"ये अनर्थ कैसे हुआ माते" ?
"नियति को यही मंजूर था पुत्र। जाओ, अब शीघ्रता करो। अपनी मां से मिलकर राजतिलक की तैयारी करो और अपने पिता का अंतिम संस्कार करो" ।
भरत कुछ सोचते हुए बोले। एक प्रश्न पूछ सकता हूं माते" ?
"पूछो वत्स, पूछो। एक नहीं अनेक प्रश्न पूछो"
"अगर कोई वस्तु एक व्यक्ति किसी दूसरे को देने का संकल्प ले लेता है तो क्या वह वस्तु दूसरे व्यक्ति की हो जाती है " ? थोड़ी देर सोचने के बाद माता कौशल्या कहने लगी
"नहीं पुत्र। दूसरा व्यक्ति जब तक उस वस्तु को स्वीकार नहीं करे तब तक वह वस्तु उसकी नहीं हो सकती है"
"तो क्या अयोध्या का राज्य मैंने स्वीकार कर लिया है माता" ?
माता कौशल्या चुप हो गईं। कोई जवाब नहीं था उनके पास। अंत में वे बोलीं "तुम्हारे स्वर्गीय पिता ने दिया है यह राज्य तुम्हें , किसी और ने नहीं , यह मत भूलो पुत्र"
"मैं स्वर्गीय पिता महाराज की भावनाओं का पूर्ण आदर सम्मान करता हूं माते, मगर मैं इस राज्य को स्वीकार नहीं कर सकता हूं। यह राज्य ज्येष्ठ भ्राता श्री रामचंद्र जी का था, है और रहेगा। मैं वन में जाऊंगा और भ्राता श्री को अयोध्या वापस भेज दूंगा। ये मेरा निर्णय है माते। मेरी रगों में भी "सूर्यवंशी" रक्त बह रहा है माते। मैं आपको आश्वस्त करता हूं कि मैं सपरिवार वन जाकर भ्राता श्री, भाभी श्री और अनुज लक्ष्मण को पुन: अयोध्या लेकर आऊंगा। मुझे आशीर्वाद दीजिए माता"। और भरत माता कौशल्या के चरणों में लेट गये।
इस निर्णय से अयोध्या में पुन: उमंगों की बयार बहने लगी।