Jhilmil Sitara

Comedy

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Jhilmil Sitara

Comedy

नींद और ख़्याल

नींद और ख़्याल

3 mins
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काफ़ी देर तक करवट बदलने के बाद भी नींद दूर - दूर तक ना झपकी में थी ना बिस्तर के सिराहने। कुछ पढ़ने की इक्छा नहीं हो रही थी तो सोचा थोड़ी देर टीवी देखा जाये। टीवी ऑन था मगर म्यूट कर रखा था और क्यूँकि, कुछ नया जैसा देखने को नहीं था प्रोग्राम। सब रिपीट ही चल रहे थे। टीवी ऑन छोड़कर लाइट्स ऑफ़ कर लेट गई।


तभी दिवार पर एक छिपकली नज़र आयी। उसका डांसिंग अंदाज़ में चलना भी डरावाना लग रहा था बहुत।

हालांकि, ये शांत ही होते हैं। मगर दीवार से छत की तरफ जैसे बढ़ते हैं इनके गिरने की संभावना हमारे लिए सौ प्रतिशत बढ़ जाती है। बिस्तर छोड़कर मैं भी भागने ही वाली थी की छिपकली दीवार पर लगी पेंटिंग की तरफ बढ़ गई। शायद उसे यकीन हो गया यहाँ उससे मुकाबला करने वाला कोई नहीं है। कोई होगा तो होगा मगर मैं तो इस मामले में डरपोक रहना ही पसंद करूंगी। मैं नहीं चाहती वो मुझपर कूद पड़े और मेरी चिख़ सुनकर सारा प्रदेश जाग जाये। जैसे कोई उलकापिंड मुझपर ही गिर गया हो। खैर!! वो मुझपर दया कर एक तरफ हो गई थी। मैंने सोचा जैसे ही दरवाजे के आस - पास जाएगी मैं उसे बाहर का रास्ता दिखाने का भरसक कोशिश करूंगी। फिलहाल वो पेंटिंग के पीछे छुप गई थी।


  अब तो मुझे पहले से ज्यादा डर लग रहा था। कहीं मुझे नींद आ गई और वो पेंटिंग के पीछे से निकल कर छत पर आ गई और जैसा मेरा डर कह रहा है वो गिर के मेरे चेहरे पर आकर चिपक गई तब तो......ओह्ह!!! कितना भयानक ख्याल है। ना बाबा ना मैं अब चाहकर भी नहीं सो सकती थी। लगातार मैं पेंटिंग के पीछे से उसके निकलने का इंतजार बिना पलकें झपकाये करने लगी।


कुछ देर के सब्र के बाद वो आखिरी नज़र आयी। धीरे - धीरे पेंटिंग से झाँकती हुई। जैसे उसे आज मेरे साथ ये डर भरा लुकाछिपी का मज़ा लेना था। टीवी अब भी ऑन था और चुपचाप चलते हुए स्क्रीन की रंग बिरंगी लाइट्स कमरे में हर तरफ पहुंचाने में लगा हुआ था। उन रंग बिरंगी लाइट्स में दीवार पर चिपकी छिपकली मुझे अब अलग ही नज़र आने लगी थी। लाइट्स के साथ उसके मूड को इमेजिन करने लगी मैं धीरे - धीरे। ग्रीन लाइट में वो मुझे किसी हरी - भारी घाँस पर आराम से लेटी हुई नज़र आने लगी। येल्लो लाइट में वो पिले कपड़े पहने कर मटक - मटक कर चलती हुई लग रही थी इतराते हुए। ब्लू लाइट में वो किसी डिस्को में पुरे जोश और स्टाइल में नाचती हुई दिखाई दे रही थी तो ऑरेंज लाइट में किसी समंदर के बीच पर निढाल पड़ी सनसेट देखती मालूम हो रही रही थी। रेड लाइट पड़ते ही लगा जैसे वो किसी खतरे में घिरी हुई मासूम लैला है जो हेल्प हेल्प की गुहार लगा रही है। मगर वाइट लाइट पड़ते ही वो फिर से डरावनी छिपकली बन जाती थी। इन बदलते लाइट्स और छिपकली के साथ जुड़ती इमेजिनरी थॉट्स बनाते बनाते डर कब मन से निकला और नींद कब पलकों से उत्तर आँखों में समा गई पता नहीं चला मुझे।


  अगली सुबह देर से उठी तो छिपकली कहीं नज़र नहीं आयी। हाँ, शायद उसे मेरे साथ बोरियत हुई होगी और वो चुपचाप चली गई होगी शायद!!!!!! या फिर देर रात धमक पड़े मेरे कमरे में.... 


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