मुझे कन्यादान शब्द से आपत्ति है
मुझे कन्यादान शब्द से आपत्ति है
आपकी बिटिया, आपका गुरुर, आपका अभिमान, आपका गौरव। जैसे हो कल-कल बहता झरना, या कोई इंद्रधनुष खिला, या फिर कोई जलतरंग बजा। वह चहकती महकती रहती है तो घर-घर लगता है। उसकी बातें, उसकी मुस्कान, आपको आपकी रोजमर्रा की थकान व तनाव से दूर ले जाती हैं। उसकी एक ही हंसी से पूरे घर में रौनक आ जाती है। कहते हैं कि बेटियां बहुत जल्दी बड़ी हो जाती हैं, इन्हें संजो कर रखना चाहिए। यह भी कहा जाता है कि बेटियां पराया धन होती हैं। अजी कोई हमसे पूछे, ये बेटियां तो उम्र भर बेटियां ही रहती हैं। विवाह होने से मायका थोड़े ही ना छूटता है, वह तो बिटिया के दिल में उम्र भर साथ चलता है, फिर चाहे वह कहीं भी रहे। बिटिया के विवाह में, हमारी इन्हीं सभी भावनाओं पर ग्रहण लगाता हुआ यह शब्द 'कन्यादान'। अब आप ही बताइए, भला कोई अपनी जान से प्यारी, राज दुलारी का दान कर सकता है।
दान शब्द से अभिप्राय है, किसी वस्तु को अपने हाथ से किसी दूसरे को सौंप देना। और व्यावहारिक तौर पर दान की हुई वस्तु वापस नहीं ली जाती। यानी 'कन्यादान' का शाब्दिक अर्थ देखा जाए तो आपकी सुपुत्री, जो की आपकी आंख का तारा है उसका दान। अब सोचने का विषय यह है कि आपकी बेटी, कोई धन-संपत्ति, पशु-पक्षी या वस्तु तो है नहीं, जिसे आपने दान कर दिया। इस परंपरा के ठेकेदारों से अगर प्रश्न पूछा जाए कि 'कन्यादान' के साथ-साथ 'पुत्रदान' का रिवाज क्यों नहीं है, तो मुझे संपूर्ण विश्वास है कि उनके पास इसका कोई उत्तर नहीं होगा। तो हम महिलाओं को इस गलत शब्द के प्रचलन से आपत्ति क्यों नहीं? क्यों इस गलत शब्द के प्रयोग से हमारा स्वाभिमान नहीं जागता? क्यों हम इस परंपरा का विरोध नहीं करते? क्यों इस समाज में नारियों को लेकर गलत शब्द के प्रयोग के विरुद्ध आवाज उठाने से, हम हिचकिचाते हैं? यही नहीं अपनी बेटी के विवाह में भी हम खुशी-खुशी इस गलत शब्द का खुलकर इस्तेमाल करते हैं। आपको नहीं लगता, हमें समाज को इस अनुचित शब्द को प्रयोग में लाने से रोकना होगा।
मैं सिर्फ गलत शब्द के इस्तेमाल करने से आहत हूं, दुखी हूं और चिंतित भी। बेटी का विवाह करके उसे वापस अपने घर बुलाने की भी मेरी कोई मंशा नहीं है। मैं तो सिर्फ इतना कहना चाहती हूं कि अपनी पुत्री के विवाह में हम सब मिलकर खुशी-खुशी उसको आशीर्वाद दें और उसके खुशहाल वैवाहिक जीवन की शुभकामनाएं करें। लेकिन ईश्वर ना करें अगर उस पर कोई दुख तकलीफ आए, तो हम उसको यह एहसास दिलाएं कि तुम्हारा तो दान हो चुका है और अब तुम्हारा इस घर से कोई वास्ता नहीं है। अपने पति के घर में तुम जैसे-तैसे अपने दुःख-तकलीफों के साथ जियो। जिसे पाल पोस कर आपने इतने प्यार से बड़ा किया, ईश्वर ना करे, समय पड़ने पर उसी बेटी से मां-बाप कैसे मुंह मोड़ सकते हैं?
इसीलिए मैं आप सभी से यह अनुरोध करना चाहती हूं कि अपनी व्यस्त जिंदगी से थोड़ा समय निकालकर इस विषय में मनन चिंतन अवश्य करें। और यह प्रण लें, अपनी पुत्री की शादी में इस गलत शब्द के प्रचलन का खुलकर विरोध करेंगे और अन्य किसी को भी इसको प्रयोग में लाने से रोकेंगे। हमारे इस पुरुष प्रधान समाज में ऐसी बहुत सी परंपराएं हैं जो सिर्फ महिलाओं को ध्यान में रखकर बनाई गई हैं, ताकि वह उम्र भर पुरुष की सत्ता को स्वीकारें। हमें उनमें जड़ से परिवर्तन लाना है और पुरुषों को भी यह एहसास भी दिलाना है कि हम कोई दान की वस्तु नहीं हैं। समाज में हमारा भी बराबर का अधिकार है। जब 'पुत्रदान' नहीं हो सकता तो 'कन्यादान' का क्या औचित्य। सही मायने में तो किसी भी इंसान का दान संभव ही नहीं है। यह तो ईश्वरीय सत्ता को चुनौती देने जैसा हो जाएगा। यदि हम 'कन्यादान' शब्द की जगह 'वर-वधु ग्रहण' शब्द का इस्तेमाल करेंगे तो ज्यादा उपयुक्त होगा।