मुहब्बत करोड़ो के मोल- 2
मुहब्बत करोड़ो के मोल- 2
स्तुति को कभी- कभी मम्मी की हालत पर बहुत तरस आता था। वह समझ रही थी कि मम्मी को इस डिप्रेशन से बाहर निकालने के लिए उनका तुरंत ऑपरेशन हो जाना चाहिए। उसने एक नजदीकी प्राइवेट अस्पताल में पता भी किया था। उस मल्टीस्पेशलिटी अस्पताल द्वारा पूरे ऑपरेशन का पैकेज इम्प्लाॅट- पल्स्टीक सर्जरी- पोस्ट- ऑपेरेटिव सभी खर्चे मिलाकर कुछ पंद्रह लाख की लागत बताया गया था।
अब स्तुति को मम्मी को ठीक देखना तो था पर इसके लिए उसे कहीं से पंद्रह लाख रुपये जुगाड़ने थे। परंतु कहाँ से लाएगी वह इतने पैसे? इसी चिंता में स्तुति दिनरात घुलने लगी।
उसने मन ही मन हिसाब लगाया। पापा के प्रविडेन्ट फण्ड में पाँच लाख रुपये अभी बचे हैं। उसकी सेविंग्स में भी कुल दो लाख होंगे। सौष्ठव भी कहीं से दो- तीन लाख की लोन/ दोस्तों से उधार ले सकेगा।
इन सबके बाद भी पाँच लाख रुपये की और जरूरत होगी उनको!अब और पाँच लाख-- इतने पैसे कहाँ से मिलेगा?
पक्की नौकरी होती तो लोन लिया जा सकता था, पर वह रास्ता भी कहाँ खुला था।
बस,आगे उसके दीमाग ने काम करना बंद कर दिया था। वह पूरे सोलन में ऐसे किसी को नहीं जानती थी जो उसे यूँ ही पाँच लाख रुपये का लोन ले लें।
स्तुति स्कूल छुट्टी के पश्चात् घर लौट रही थी लेकिन उसे अभी वहाँ जाना का मन नहीं हो रहा था! वह माँ की सूनी आँखों का सामना इस वक्त कतई नहीं करना चाहती थी। पैसों के इंतज़ाम के बारे में हर बार झूठी दिलासा देने में आजकल उसका मन नहीं माना करता था।
अतः शाम के झुटपुटे में वह अपना विशालकाय झोला लेकर, जिसके अंदर करीब हज़ार काॅपियाँ थी जाँचने हेतु,, उसने स्कूल के बाद एक नजदीकी कोचिंग सेंटर में एक घंटे पढ़ाने का काम ले लिया था।
पढ़ाने के लिए तो अन्य अनुभवी शिक्षक थे-- वह नई थी तो उसे छात्रों की काॅपियाँ जाँचने के लिए दे दिया जाता था।
नामी शिक्षकों के पास इस फालतू काम के लिए समय नहीं होता था तो यह काम उसके मत्थे मड़ दिया गया था।
बहरहाल अपना भारी- भरकम झोला संभ
ाले स्तुति उस रामबाग पार्क में जाकर बैठ गई। यह पार्क सोलन का सबसे बड़े पार्कों में से एक था। गर्मियों के दिन शाम को हवा खाने यहाँ पर बहुत से लोग आते थे।
कुछ लोग बच्चों को लेकर घूमने आते थे और कुछ लोग अपने कुत्तों को घूमाने लाते थे। और जिनके पास जागूयर रोल्स- राॅयस अथवा बीएमडब्ल्यू जैसी कारें होती हैं, वे बच्चों और कुत्तों दोनों को साथ लाते हैं। उनके बच्चे अकसर अपनी नैनी की गोद में पीछे होते हैं और वे खुद कुत्तों को गोदी में लिए आगे- आगे चला करते हैं।
स्तुति यह सब हमेशा से ही देखती आई है। वह जब भी थोड़ी देर के लिए इस पार्क में आकर बैठ जाया करती है तो ऐसे लोग उसे अक्सर मिल जाया करते थे। वह आज तक नहीं समझ पाई कि धनवानों के लिए क्या ज्यादा जरूरी है-- अपने बच्चे या पालतू कुत्ते-- ?!!परंतु किया भी क्या जा सकता है-- सबकी अपनी- अपनी प्राथमिकताएँ हैं।
खैर, इन्हीं सब घटनाओं से स्तुति का थोड़ा मन बहल जाया करता है। वह अपनी घरेलू चिंता को परे रखकर इन लोगों की जीवनचर्या को ध्यान से देखती और समझने की कोशिश करती थी।
आज भी उसने देखा कि एक तीन साल की बच्ची अपने पिता, नैनी और कुत्ते के साथ इस पार्क में आई है।
उस बच्ची के पिता किसी से फोन पर बात करते हुए अन्यमनस्क ज़रा दूर निकल गए थे। तब पास बैठी आया ने भी उस मौके का फायदा उठाकर पाँव- पाँव अपनी बिरादरी वाली किसी महिला को ढूँढकर उससे बतियाने में व्यस्त हो गई थी।
अब वह बच्ची और उसका डाॅगी-- ये दोनों ही अकेले रह गए थे एक दूजे की रखवाली और मनोरंजन के लिए।
स्तुति पेड़ के पास एक बैंच में बैठकर सब कुछ देख रही थी, पर उसे कोई भी नहीं देख पा रहा था। भूख लगने के कारण उसके हाथ में एक भूने हुए मसालेदार चने का पैकेट भी था जिसे उसने पार्क के मुख्यद्वार के पास बैठनेवाले उस बूढ़े चनेवाले से कुछ देर पहले ही खरीदा था।
अब वह हौले- हौले चने चबाती हुई इस बच्ची को अपने डाॅगी के साथ खेलते हुए देख रही थी।
क्रमशः