मॉर्फीन - 8
मॉर्फीन - 8


लेखक: मिखाइल बुल्गाकव
अनुवाद: आ. चारुमति रामदास
मोर्फिनिस्ट के पास बस एक ही खुशी होती है, जिसे उससे कोई भी छीन नहीं सकता, - ज़िंदगी को संपूर्ण एकांत में गुजारने की योग्यता. और एकांत है – महत्त्वपूर्ण, शानदार विचार, ये है चिन्तन, शान्ति, बुद्धिमत्ता...
रात बीत रही है, काली और खामोश रात. कहीं दूर नग्न हो चुका जंगल है, उसके पीछे नदी, ठण्ड, शिशिर. दूर, कहीं दूर है बिखरा हुआ, बेतरतीब मॉस्को. मुझे कोई लेना-देना नहीं है उससे, मुझे कुछ नहीं चाहिए, और मुझे किसी जगह का आकर्षण नहीं है.
जलो, मेरे लैम्प की रोशनी, जलो हौले-हौले, मॉस्को के कारनामों के बाद मैं आराम करना चाहता हूँ, मैं उन्हें भूलना चाहता हूँ.
और भूल गया.
भूल गया.
१८ नवम्बर.
पाला. खुश्की. मैं पगडंडी से नदी की और जाने के लिए निकला, क्योंकि मैं लगभग कभी भी ताज़ी हवा में सांस नहीं लेता हूँ.
व्यक्तित्व का पतन – तो पतन है, मगर फिर भी मैं उससे बचने की कोशिश कर रहा हूँ. मिसाल के तौर पर, आज सुबह मैंने इंजेक्शन नहीं लगाया. (आजकल मैं दिन में तीन बार चार प्रतिशत घोल के इंजेक्शन लगाता हूँ). असुविधाजनक है. मुझे आन्ना पर दया आती है. हर अतिरिक्त प्रतिशत उसे मारे डालता है. मुझे दया आती है. आह, क्या इंसान है!
हाँ...तो...ये...जब हालत बिगड़ने लगी, तो मैंने दर्द बर्दाश्त करने का (प्रोफ़ेसर N को मेरी तारीफ करने दो), और इंजेक्शन की कालावधि बढाने का फैसला कर लिया और नदी की और चल पडा.
कैसी वीरानी है. कोई आवाज़ नहीं, कोई सरसराहट नहीं. अन्धेरा अभी हुआ नहीं है, मगर वे कहीं छिप गए हैं और दलादल से, टीलों से, ठूंठों से होकर रेंग रहे हैं...चल रहे हैं, चल रहे हैं लेव्कोव्स्काया अस्पताल की तरफ...और मैं भी रेंग रहा हूँ, छडी का सहारा लेते हुए (सच कहूं तो पिछले कुछ समय से मैं कुछ कमजोर हो गया हूँ).
और देखता हूँ, कि नदी से ढलान पर होते हुए पीले बालों वाली एक बुढिया मेरी ओर तेज़ी से उड़ते हुए आ रही है, और घुँघरू जड़े, शोख रंग के अपने स्कर्ट के नीचे पैरों को भी नहीं हिला रही है...पहले तो मैं उसे समझ नहीं पाया और ज़रा भी नहीं घबराया.
अजीब बात है – क्यों इस ठंड में यह बुढ़िया खुले सिर और एक ही ब्लाऊज में है?...
और बाद में, कहाँ से आई ये बुढ़िया, कौन है ये? हमारे लेव्कोवा अस्पताल में तो मरीजों का समय समाप्त हो जाएगा, किसानों की आख़िरी स्लेज गाड़ियां चली जायेंगी, और आसपास दस मील के घेरे में – कोई नहीं है. कोहरा, दलदल, जंगल! और फिर अचानक मेरी पीठ पर ठंडा पसीना बहने लगा – समझ गया!
बुढ़िया भाग नहीं रही है, बल्कि उड़ रही है, ज़मीन को न छूते हुए. ठीक है? मगर इस एहसास से मेरी चीख नहीं निकली, बल्कि मैं इसलिए चीखा कि बुढ़िया के हाथों में एक नोकदार डंडा है. मैं इतना क्यों घबरा गया? क्यों? मैं एक घुटने पर गिर पडा, हाथ फैलाए हुए, आंखें बंद करते हुए ताकि उसे न देखूँ, फिर मुड़ा और लंगडाते हुए घर की और भागा, जैसे वह संरक्षण स्थल हो, कुछ न चाहते हुए, सिवा इसके कि मेरा दिल न फट जाए, कि मैं जल्दी से जल्दी गरमाहट भरे कमरों में भागूं, जीती-जागती आन्ना को देखूँ...और मॉर्फिन को...
और मैं भाग कर घर आया.
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बकवास. खोखला भ्रम. आकस्मिक मतिभ्रम
१९ नवम्बर
उल्टी. ये बुरी बात है.
२१ तारीख को आन्ना से मेरी रात की बातचीत.
आन्ना – कम्पाउंडर जानता है.
मैं – वाकई में? कोई बात नहीं. छोटी-सी बात है.
आन्ना – अगर तुम यहाँ से शहर नहीं जाओगे, तो मैं अपना गला दबा लूँगी. तुम सुन रहे हो?
अपने हाथों की ओर देखो, ज़रा देखो.
मैं – थोड़ा थरथराते हैं. मगर इससे मुझे काम करने में कोई दिक्कत नहीं होती.
आन्ना – तुम देखो – वे पारदर्शी हैं. सिर्फ हड्डी और चमड़ी...अपने चहरे की और देखो...सुनो, सिर्योझा, चले जाओ, तुम्हें कसम है, चले जाओ...
मैं – और तुम?
आन्ना – चले जाओ. चले जाओ. तुम मर रहे हो.
मैं – खैर, ये बड़ी कठोर बात कह दी. मगर मैं वाकई में खुद ही नहीं समझ पा रहा हूँ, कि मैं इतनी जल्दी कैसे कमजोर हो गया? अभी तो पूरा साल भी नहीं बीता, जबसे मैं बीमार हूँ. ज़ाहिर है, मेरी शरीर-रचना ऐसी ही है.
आन्ना (अफसोस से) – वो कौन-सी चीज़ है जो तुम्हें ज़िंदगी की तरफ वापस ला सकती है? हो सकता है, तुम्हारी अम्नेरिस – बीबी?
मैं – ओह, नहीं. शांत हो जाओ. मॉर्फिन का शुक्रिया कि मुझे उससे छुटकारा दे दिया.
उसकी जगह पर – मॉर्फिन.
आन्ना – आह, तुम, खुदा...मैं क्या करूँ?
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मैं सोचता था कि सिर्फ उपन्यासों में ही ऐसी होती हैं, जैसी ये आन्ना है. और अगर मैं कभी अच्छा हो जाऊँ, तो मैं हमेशा के लिए अपना भाग्य उससे जोड़ लूँगा. उसे जर्मनी से वापस न आने दो.
२७ दिसंबर.
बहुत दिनों से मैंने नोट बुक को हाथ नहीं लगाया. मैं गरम कपड़ों में लिपटा हुआ हूँ, घोड़े इंतज़ार कर राजे है. बोमगर्द गरेलव डिस्ट्रिक्ट से चला गया है, और मुझे उसकी जगह पर भेजा गया है. मेरी जगह पर – लेडी डॉक्टर आयेगी.
आन्ना-यहीं रहेगी...मेरे पास आती-जाती रहेगी...
हालांकि तीस मील है.
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ये पक्का निर्णय लिया गया कि १ जनवरी से मैं एक महीने की बीमारी की छुट्टी लूँगा – और मॉस्को जाऊंगा, प्रोफ़ेसर के पास. मैं फिर से ‘इकरारनामा’ लिख कर दूंगा, और महीना भर उसके अस्पताल में अमानवीय यातनाएँ सहता रहूँगा.
अलबिदा, लेव्कोवा. आन्ना, फिर मिलेंगे.
वर्ष १९१८
जनवरी.
मैं नहीं गया. अपने घुलनशील दैवी कणों से जुदा नहीं हो सकता.
इलाज के दौरान मैं मर जाऊंगा.
और बार-बार मेरे दिल में ख़याल आता है कि मुझे इलाज की ज़रुरत नहीं है.
१५ जनवरी.
सुबह उल्टी हो गई.
तीन इन्जेक्शन्स चार प्रतिशत वाले घोल के शाम को.
तीन इंजेक्शन्स चार प्रतिशत वाले घोल के रात को.
१६ जनवरी.
ओपरेशन का दिन है, इसलिए काफी देर बर्दाश्त करना पडा – रात से शाम के छः बजे तक.
शाम का धुंधलका – सबसे भयानक समय होता है – क्वार्टर में भी मैं स्पष्ट रूप से एकसार और धमकाती हुई आवाज़ सुन रहा था, जो दुहरा रही थी:
“सिर्गेइ वसील्येविच. सिर्गेइ वसील्येविच.”
इंजेक्शन के बाद सब कुछ फ़ौरन शांत हो गया.
१७ जनवरी.
बर्फीला तूफ़ान – मरीज़ नहीं देखने हैं. इस ज़बरदस्ती की कैद के दौरान मनोचिकित्सा की पाठ्य पुस्तक पढी, और उसने मुझ पर बेहद भयानक प्रभाव डाला. मैं ख़त्म हो गया, कोई उम्मीद नहीं है.
फुसफुसाहट से डरता हूँ, इस ज़बरदस्ती की कैद के दौरान मुझे लोगों से चिढ़ होती है. मैं उनसे डरता हूँ.
उत्साह के दौरान मैं उन सबसे प्यार करता हूँ, मगर अकेलापन मुझे ज़्यादा पसंद है.
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यहाँ सावधान रहने की ज़रुरत है – यहाँ कंपाउंडर और दो नर्सेस हैं. बहुत ध्यान रखना होगा, ताकि भेद न खुल जाए. मैं अनुभवी हो गया हूँ, और अपना भेद नहीं खुलने दूँगा. जब तक मेरे पास मॉर्फिन का स्टॉक है, किसी को भी पता नहीं चलेगा. घोल मैं खुद ही बनाता हूँ, या आन्ना को काफी पहले नुस्ख़ा भेज देता हूँ. एक बार उसने कोशिश की थी (असफल) पाँच प्रतिशत को दो प्रतिशत में बदलने की. खुद ही ठण्ड और तूफ़ान में लेव्कवा से लाई थी.
और इस वजह से हमारे बीच रात को भयानक झगड़ा हो गया. उसे मनाया कि ऐसा न करे. यहाँ के कर्मचारियों को मैंने बताया कि मैं बीमार हूँ. बड़ी देर तक सिर खपाता रहा, कि कौनसी बीमारी का नाम सोचूँ. ये कहा कि मुझे पैरों का गठिया और गंभीर न्यूरेस्थेनिया है.
उन्हें बता दिया गया है कि मैं फरवरी में छुट्टी लेकर इलाज के लिए मॉस्को जाने वाला हूँ. सब कुछ ठीक ही चल रहा है. काम पर कोई परेशानी नहीं होती. उन दिनों में ऑपरेशन्स करने से बचता हूँ, जब मुझे हिचकियों के साथ अनियंत्रित उल्टियां शुरू हो जाती हैं. इसलिए एक और बीमारी – गेस्ट्रोएन्टेराइटिस – का नाम भी लिखना पडा. आह, एक आदमी के लिए बहुत सारी बीमारियाँ हो गईं!
यहाँ का स्टाफ बहुत दयालु है और वह खुद ही मुझे छुट्टी पर भगा देता है.
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बाह्य रूप: दुबला, विवर्ण, मोम जैसा पीलापन.
स्नान किया और साथ ही अस्पताल की मशीन पर अपना वज़न लिया. पिछले साल मेरा वज़न ४ पूद था ( एक पुद = १६.३८ किलो- अनु.), और अब है ३.१५ पूद. मशीन की सुई को देखकर डर गया, फिर डर निकल गया.
बाजुओं पर लगातार छाले हो रहे हैं, वैसा ही नितम्बों पर भी हो रहा है. निर्जन्तुक करके घोल बनाना मुझे नहीं आता, इसके अलावा, तीन बार मैंने बिना उबाली गई सिरींज से इंजेक्शन लगा लिया, सफ़र से पहले बेहद जल्दी में था.
इसकी इजाज़त नहीं है.
१८ जनवरी.
ऐसा मतिभ्रम हो गया : काले चश्मे में किन्हीं बदरंग लोगों का इंतज़ार कर रहा हूँ. ये बर्दाश्त नहीं होता. सिर्फ एक परदा. अस्पताल से बैंडेज का कपड़ा लिया और टांग दिया.
कोई बहाना नहीं ढूंढ पाया.
आह, शैतान ले जाए! अरे क्यों, आखिर क्यों, अपने हर काम के लिए मुझे कोई बहाना ढूँढना पड़ता है? वाकई में ये पीड़ा है, न कि ज़िंदगी!
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